कविताविचार

मैं हूँ एक बूढ़ा परदेसी और तू है नन्ही सी गुड़िया- कृष्ण किशोर

मैं हूँ एक बूढ़ा परदेसी और तू है नन्ही सी गुड़िया- कृष्ण किशोर

मैं हूँ एक बूढ़ा परदेसी और तू है नन्ही सी गुड़िया
कब तक बंद रहेगी मेरे झोले में , अपने घर जा

तू मेरे सीने से लग कर कितनी देर खामोश रही है
अब तो आँख उठा कर कह दे कौन देस तेरे प्रीतम का

कहाँ कहाँ भटकूंगा लेकर मैं तुझ को कमजोर मुसाफिर
सोच रहा हूँ दे दूँ अब तो तेरे हाथ में हाथ किसी का

मझे खबर है तुझ से बिछड़ कर जीना कैसा जीना होगा
लेकिन वैसे भी क्या जीना क्या मरना इस जोगी का।

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