असंदिग्ध
(खंड 7)
एक लंबी निद्रा के बाद
दिनों -दिन की सारी थकान
अपने संबंध संस्कार
अपनी त्वचा से छिटक कर
अर्ध रात्रि सब कुछ झटक कर
खुले आसमान के नीचे आ खड़ा होता हूं।
सबसे चमकदार सितारे की तरफ़
आंख उठाकर,
सोचने की अवस्था से बहुत परे –
एक आकाशी वस्तु की तरह
सितारों के बीच एक सितारा
बनकर जम जाता हूं।
अपनी खुली छत के फर्श पर
मेरी आंखें ऊपर भी हैं
आकाश पर – फैला हुआ
मायावी संसार देखती हुई
और भीतर भी हैं
अपने ही स्वरूप पर जमी हुई।
ऊपर देखता हूं
सब कुछ कितना निश्चित है
कहीं कुछ भी संदिग्ध नहीं
कहीं कुछ भी
अपने होने के आभास से अस्थिर नहीं।
अपने न रहने की नियति के ज्ञान से
अपंग नहीं – अशक्त नहीं
अकर्मण्य नहीं
छिछले अपूर्ण
केवल देह-जनित अनुभवों के
ज्ञान की परिधि में कैद नहीं।
अपने-अपने बंधन में
कितना मुक्त है सब कुछ
सिर के ऊपर
आकाश का सांवलापन
मेरी अधखुली आंखों से
भीतर प्रवेश कर जाता है।
एक रास्ते की तरह
बिछ जाता है भीतर के प्रदेश में।
मैं उस रास्ते पर निकल पड़ता हूं
रास्ते पर कुछ ही दूर निकलने पर लगा
सब कुछ वैसा ही, वही था
जिसे छोड़ कर गया था पीछे।
इस निकल पड़ने में कितना दोहराव था
उन्हीं विसंगतियों का फैलाव था –
पर्वतों, पेड़ों पत्थरों के विस्तार से
जितना विपरीत हो सकता है
उतना विपरीत!
वही सब कुछ आगे -पीछे पसरा पड़ा था।
इन्हीं मृतक वीथियों में रहा हूं-
इन्हीं में रहना, सोचना, जागना हुआ है
भीतर जाना, बाहर आना हुआ है।
वही अंधेरी काली गुफाएं
वही शरण स्थलियां –
फिर से एक बार इन में से
किसी एक में प्रवेश कर जाता हूं
केवल एक दोहराव के लिए।