alsoreadकविता

आज़ादी की सुबह (और उस के बाद)

आज़ादी की सुबह (और उस के बाद)

 

एक गैबी रात आसमान से उतरी

खनखनाती जंजीरे उड़ा ले गई

गोल और लाल निशान छोड़ती हुई

 हमारे हाथों पैरों पर

ज़ेवर की तरह खूबसूरत लगे हमें

 जंजीरों के यह निशान

और नई सुबह की नीम खुमारी में

 एकदम उन्हें छीलकर उतार फेंकने के

ओछेपन से खुद को बचा लिया हमने

कुछ वक्त देकर सूती धागों से ढक लिए

अपनी आलमी पहचान के निशान

 लेकिन हर सुबह दुनिया के आईने में

एक चोर नजर देख लेते हैं धागे खोलकर

ताकि याद रहे कि हमारे तौर-तरीकों में

 उन्हीं वफ़दारियों की खनक बाकी है

 जो सिर्फ जंजीरे पैदा करती है

और फिर हमारे नायक

 अपनी पुरानी पहचान को

 जिंदा करती धुनों पर

कदम से कदम मिलाते

सलामियां लेते और देते हुए

 सीना ताने आगे बढ़ते हुए

सामने जो भी आए उसे रौंदते हुए

 अपने गोल और लाल निशानों की विरासत

 इस तरह कायम रखते हैं हर रोज

 और वह आसमानों से उतरी हुई गैबी रात

अपना सफर फिर शुरू करती है

 सफर में है अभी तक

 एक खास सुबह के इंतजार में।

कृष्ण किशोर

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