alsoreadकविता

दो रातें, दो यादें-कृष्ण किशोर

Krishan Kishore

दो रातें, दो यादें-कृष्ण किशोर

कल रात मेरा पहलू था हसीं , कल रात मेरी आंखें थी जवां

इस रात मेरे पहलू में शरर इस रात मेरी आंखों में धुआं।

कल रात मेरी आंखों में उन्हीं चेहरों की अदाएँ छाई थी

वो जिस्म चमकते थे दिल में वो  रूहें सामने आईं थी

वो शोर बरसता था घर में ,वो हुस्न का मेला आंगन में

वो हवस की गहमागहमी थी वो जिस्म की हाथापाई थी

कल रात मेरा पहलू था हसीं….

हर हाथ कांपते हाथों से कुछ कहने को बेताब सा था

हर आंख में सूरज की ज़ौ थी ,हर दोश पे इक  महताब सा था

क्या जानूं रूह की गर्दिश को क्या जिस्मों नज़र की बात करूं

हां मगर नीयतें साफ़ न थी  हां मगर मिजाज़ खराब सा था

कल रात मेरा पहलू था हसीं….

इक दस्ते कर्म से ग़फ़लत में वो  चीरह-दस्ती दामन की

वो बे-हिस बढ़ते हुए कदम, पस्त लरज़िशें दामन की

इक नया इश्क पैदा होगा इक नई वफ़ा को जन्मेगी

ये  शोख़ लिबासों की सिहरन, बेबाक हवाएँ दामन की

कल रात मेरा पहलू था हसीं…

वो जिस्म की कच्ची मिट्टी में  एहसास का पानी मरता हुआ

एलाने वफ़ा करता जोबन आदाबे वफ़ा से डरता हुआ

हर दर्दको रुखसत करता हुआ ,हर दिल को खुदा हाफ़िज़ कहता

बढ़ता हुआ दरिया आंखों का चेहरों का नज़ारा करता हुआ।

कल रात मेरा पहलू था हसीं…

दो चार घड़ी की कोशिश से हाथों में नया हाथ आ जाना

बस दो लमहों की सोहबत से ,चेहरों पे चिरगों का जलना

कुछ कम तो नहीं  ईनामे-हवस ,कुछ कम तो नहीं एहसाने बुतां

दो चार घड़ी भर ही को सही दुनियाए -मुहब्बत पा जाना

कल रात मेरा पहलू था हसीं….

हर नई कोशिश के साथ कोई दोहराता हुआ अहदो पैमां

चेहरों के मराहिल तय करती आँखों से उलझी हुई जुबां

हर नए वक्त के साथ झगड़ता हुआ नया अंदाजे बयां

वो  राज़ निगाहो जिगर का जो उतना ही हसीं जितना उरियां

कल रात मेरा पहलू था हसीं….

कुछ बरस पुरानी यादों की मिट्टी है मेरी आंखों में जवां

वो दर्द मेरे सीने में दफ़न, वो जिस्म मेरी साँसों में रवां

वो शफ़क से भी ज्यादा रंगीं,वो चांद से भी ज्यादा रोशन

उन सर्द निगाहों का जादू उन बर्फ़ से हाथों का अहसां

कल रात मेरा पहलू था हसीं….

इस मेरे थके हारे तन पर उस दीद का जादू सा चलना

वो सुबह से पहले बुझते हुए बेअदब चिरागों का जलना

उस शोला फ़िशां को क्या कहिए उस ब़र्कजबीं की बात है क्या

उस की आमद और रुख्सत से सूरज का निकलना और ढलना

कल रात मेरा पहलू था हसीं….

वो जिस्म हवा सा जिस्म कि जो महसूस हुआ पर मिल ना सका

वो फूल बर्फ़ का फूल किसी भी तौर सहन में खिल ना सका

वो ज़ात वो  उसकी ज़ात जो दुनिया में यकीं रखती ही न थी

वो महज़ वहम का पत्थर था जो किसी तौर भी हिल  ना सका

इस रात मेरे पहलू में शरर….

वो  जुल्फ से लड़ती हुई आंख से पैहम बहता हुआ लहू

सीने में उबलता हुआ ज़हर, सांसों से झगड़ता हुआ लहू

दुनिया की सितम परवर फ़ितरत को जोश दिलाता हुआ लहू

नसनस में उतरता खंजर सा, रग रग में सरकता हुआ लहू

उस रात वो पैग़ामे फ़ितरत उस रात वो पैहम नादानी

उस रात सिमटता हुआ यकीं उस रात जुनूँ पर निगरानी

अब भी जो कभी भूले भटके उस रात पर नजरें पड़ जाए

दिल चीख उठे तन्हाई में बुझ जाए फलक की ताबानी

इस रात मेरे पहलू में शरर…

वो रात है अब तक याद मुझे जिस रात वो कुछ भी कह ना सकी

वो अपनी वफ़ा से हार गई या मेरी मोहब्बत सह न सकी

अब इस दुनिया से क्या पूछूं ,ऐ दर्दे जिगर कुछ तू ही बता

क्या ऐन सहर का वक्त था जो वो शम्मे फ़िरोज़ां रह ना सकी।

इस रात मेरे पहलू में शरर इस रात मेरी आंखों में धुआं

कल रात मेरा पहलू था हंसी कल रात मेरी आंखें थी जवां।

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