कुछ जिज्ञासाएं अभी तक अनुतरित हैं। विज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र सभी ईमानदारी से स्वीकार करते हैं उन विषयों पर अपनी सीमाओं को। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड निस्सीम है। उत्पत्ति, समय काल, सभी धुंध में या उस से भी परे। ज्ञान के जितने भी साधन या वाहक हैं – सिर्फ आँखें मिचमिचाकर रह जाते हैं। ज्ञान का साहस, दम्भ, पाखण्ड कुछ भी नहीं चलता। विवशता भी नहीं है, साधनहीनता भी नहीं। सिर्फ स्वीकारोक्ति है कि हम नहीं जानते। अभी तक नहीं जानते। ऐसे में एक मानव इस विश्व में अपने स्थान, अपनी अल्पकालता, अपनी क्षणभंगुरता के प्रति प्रश्नकुलता से आगे नहीं जाता। एक तटस्थता, अहंकारहीनता और निर्मम उत्सुकता ही मनुष्य को संवेदित और प्रबुद्घ रखती है। यही है धर्म का वह वैज्ञानिक अध्यात्म पक्ष जहां ईश्वर, अनीश्वर की स्थिति स्थगित रहती है। इस के बाद दर्शन और व्याख्या शुरू होती है। रहस्य का भेद खोलने की कोशिशें। ईमानदार दर्शन की प्रारम्भिक स्थिति जो बहुत शुद्घ और लम्बी जिज्ञासा से प्रेरित होती है। ईश्वर का जन्म भी इसी स्थिति में होता है। इसी रास्ते पर थोड़ा आगे अध्यात्म का एक भिन्न रूप शुरू होता है। आत्मा, परमात्मा और विलय के सिद्घाँत और प्राप्ति के साधन।
आगे फिर इसी दर्शन और अध्यात्म की व्याख्याएं हैं, अनेकानेक श्रुतियां और स्मृतियां हैं। पण्डितों, विद्वानों, गुरुओं की पाठशालाएं, ग्रन्थावलियां, वाद-संवाद श्रृंखलाएं हैं। धार्मिकता की होड़ है, रीति-नीति है, अधिक से अधिक धार्मिक ज्ञान होने का अहंकार है। अधिक से अधिक धर्म-पालन का पाखण्ड है, अधिक से अधिक आंख मूंदकर, मूक-बधिर होकर धर्म को समर्पित होने की सामाजिक प्रतिष्ठा है। अपना सब कुछ किसी के हाथों सौंप देने की गुरू शरणागतता है। समधार्मिक के प्रति सहिष्णुतता है। अनुयायियों की असंख्यता की सत्ता है, शक्ति है। अपनी-अपनी धार्मिक पवित्रता है, कर्मकाण्ड है, दण्ड विधान है, धर्मसत्ता, राज्य सत्ता का महामिलन है। क्षणभंगुरता, अल्पकालता की अहंकारहीन वैज्ञानिकता का पूर्ण अन्त! फिर एक लम्बा अन्तराल सा! वैज्ञानिक वस्तुपरकता और औद्योगीकरण के अपने मोह और मोह भंग का अन्तराल।
कुछ पहले तक जीवन के और आयाम भी थे। एक इन्सान दूसरे का तरह-तरह से पूरक होता था। आपस के सौ तरह के संपर्कों, उत्सवस्थितियों से दैनिक जीवन भरा-पूरा सा था। आज इन्सान की जिन्दगी हर तरफ से खाली और खोखली हो कर बाज़ार में खड़ी है। आज लगता है, इस अकेलेपन में, बाज़ार और धर्म की भीड़ में ही सुरक्षा और प्रतिष्ठा है। सम्पन्नता की नुमाईश है। बगैर किसी सच्चे विश्वास के आंखें मूंद कर पाखण्ड की तृप्ति है। बाज़ार और धर्म दोनों ही बिल्कुल खाली और अकेले, सम्बन्धहीन इन्सानों की शरणस्थली हैं। यहां तक कि आज के लगभग सारे गोरिल्ला या सैनिक युद्घों के पीछे धनलोलुपता और धार्मिक आक्रमकता की ऐसी दलदल है जिस में कौन ऊपर और कौन नीचे का अता-पता नहीं। समय के इस छोर से उस छोर तक एक बन्दर छलांग ही लगाई जा सकती है।
नैतिकता को धर्म से जबरदस्ती जोड़ा गया है। ठीक उसी तरह से जैसे जीवन के बाकी नियमों को धर्म से जोड़ कर देखने का रिवाज था। जैसे सारी सामाजिक बुराईयों को अनैतिक समझा जाता था और धर्म से जोड़ कर उन्हें पाप से जोड़ दिया जाता था। चोरी करना पाप है, झूठ बोलना पाप है, किसी की हत्या करना पाप है। परस्त्रीगमन महापाप है। लेकिन किसी ऊंचे उद्देश्य के लिए ये सभी कर्म जायज हैं, किए जा सकते हैं। किसी की सहायता के लिए झूठ बोलना, चोरी करना पाप नहीं। किसी पापी की, आततायी की हत्या करना पाप नहीं। खास उद्देश्य के लिए परस्त्रीगमन पाप नहीं। परपुरुषगमन भी पाप नहीं। इसी तरह की अनेक उथलीपुथली नैतिकताएं हर धर्म में, हर समय में रही हैं। आधारभूत नैतिक मूल्य नाम की कोई चीज़ एक जैसी एक भी जगह कभी नहीं रही। लेकिन धर्मों ने नैतिकता का राग बहुत ज्यादा अलापा है। व्यक्तियों, समूहों, आचरण समूहों को अनैतिक कह कर दुत्कारा है। अनैतिक कर्म करने पर निर्मम हत्याएं की गईं हैं – स्त्रियों की ज्यादा, पुरुषों की कम। सब से तेज धार हथियार धर्म के हाथ में नैतिकता रही है। जिसे मर्जी समय और धर्म के अनुसार अनैतिक कहकर दंडित किया जा सकता है।
नैतिकता का कोई स्थिर निश्चित स्वरूप न होने की स्थिति में समर्थ लोग हमेशा अनैतिक को नैतिक और नैतिक को अनैतिक सिद्घ कर सकते हैं। आज नैतिकता वैसे भी असंगत और अर्थहीन हो चुकी है। आज कानून निर्धारित करता है कि हम क्या कर सकते हैं, क्या नहीं। चोरी सभी के लिए जुर्म है चाहे किसी की मदद के लिए की गई हो। इसी तरह सभी आचरणों के लिए कानून हैं। सज़ा दी जा सकती है या नहीं, ठीक या गलत, कानून निश्चित करता है। धर्म और नैतिकता की उपयोगिता इन क्षेत्रों में बिल्कुल अर्थहीन हो गई है। कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें धर्म द्वारा सिद्घ-असिद्घ नहीं किया जा सकता, वे शायद नैतिकता में आती हों। लेकिन वह नितांत सामाजिक स्तर पर होगा, धर्म का उससे कोई सम्बन्ध नहीं होगा। जैसे किसी को गन्दी गाली देना, अपमान करना, शायद किसी कचहरी में दण्ड का भागी न सिद्घ किया जा सके, लेकिन सामाजिक स्तर पर इन्हें हम अनैतिक कह कर ही दुत्कारेंगे। धर्म वाले वैसे भी इन छोटे मामलों में टांग नहीं अड़ाते। कानूनों-कायदों के दौर में क्या करना चाहिए, क्या नहीं, आज इतना महत्व नहीं रखता। क्या किया जा सकता है और क्या करने की इजा़जत कानून नहीं देता, इस बात का ही महत्व अधिक है। इसलिए नैतिकता का प्रश्न किसी भी तरह धर्म के साथ जोड़ने का महत्व नहीं रहा।
सच तो यह है कि दलितों और अन्य जातपात की, साम्प्रदायिकता की, स्त्रियों की स्थिति की, पूजा-पाठी आडम्बर की, धर्म-गुरुओं द्वारा शोषण की, धर्म स्थानों द्वारा करोड़ों-अरबों का धन इक्ट्ठा करने की, देश और सरकार के साधनों के अपव्यय की, झूठे-दंभी-अहंकारी धार्मिक मूल्यों में जीने की बात को केन्द्र में रखे बिना आज धर्म की चर्चा नहीं की जा सकती। यही बातें आज धर्म के नाम से बीमार चमड़ी की तरह सामाजिक शरीर से चिपकी हुई हैं। इसी के खिलाफ एक जिहाद (धार्मिक युद्घ) छेड़ने की जरूरत है।