अन्तर्राष्ट्रीयता और वैश्विकता किसी एक देश के आधिपत्य से जितनी जल्दी मुक्त हो जाए, उतना ही अच्छा। हर क्षेत्र से लोग दूसरे देशों में पढ़ने–लिखने, सांस्कृतिक आदान–प्रदान के लिए जाते हैं। व्यापारिक ज़रूरतें अपने–आप में महत्वपूर्ण हैं लेकिन हम मानवीय पक्ष को लेकर ही वैश्विकता की बात करेंगे जहां शोषण तत्व इस विचार में बाधा न बनता हो। ज्ञान विज्ञान का सांझाकरण भी ऐसी ही आवश्यकता है जो किसी राजनीतिक या आर्थिक दबाव के तहत क्षेत्रीय प्रमुखता ग्रहण न करे। यह सही है कि अमरीकी शोषण–तन्त्र ने आज विश्व की एकता को खण्डित किया है और ज्ञान–विज्ञान की बढ़ती हुई एकसूत्रता तथा अंग्रेज़ी को विश्व व्यापी स्वीकृति मिलने की स्थिति को कमज़ोर किया है। सारा दक्षिणी अमेरिका, एशिया के बाकी देश – एकाध को छोड कर – अमेरिकी पूंजीवाद के खिलाफ हैं। यूरोप के आधे देश, विशेष रूप से पूर्वी यूरोप वामपंथी मानसिकता का है। अमेरिकीकरण के साथ अमेरिकी अंग्रेज़ी का सीधा सम्बन्ध है। किसी भी विशिष्टता के साथ इन देशों में अंग्रेज़ी सम्मानित नहीं है।
अमेरिका और यूरोप अपने तीन सौ सालों के वर्चस्व से नीचे धकेले जा रहे हैं। बाहरी तौर पर हास्यास्पद लगने वाली इस बात को अर्थशास्त्री तरह–तरह हमारे सामने रख रहे हैं। नई आर्थिक शक्तियां तेज़ी से उभर रहीं हैं। चीन, भारत, जापान, अफ्रीका के कुछ देश, दक्षिणी अमरीका महाद्वीप के कुछ हिस्से और गैर यूरोपियन गोरी जातियां आज एक चुनौती बनी हुई हैं। जिन देशों की धरती में तेल है, उन्हें बहुत अधिक महत्व अभी नहीं दिया जा सकता उन की भौगोलिक परिस्थिति के कारण, उनकी राजनीतिक बुनावट के कारण, प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं की कमी के कारण या उन की व्यक्तिगत शक्ति–केन्द्रिता के कारण। लेकिन बाकी देशों, समाजों में लोग अपनी ही दृष्टिकेन्द्रिता या आवश्यकता–जनित सामाजिक सुबुद्घि के कारण अपना रास्ता अलग बना रहे हैं। इसके विपरीत अमेरिका और यूरोप में विशेष शक्ति केन्द्रों का आन्तरिक हास हो रहा है। बाहर से भी इतनी अधिक संख्या में लोग वहां पहुँच रहे हैं कि उनकी सफे़दपोशी मटियाली पड़ती जा रही है। इस सारे परिवर्तन को सारा विश्व गौर से देख रहा है। दूसरी बड़ी बात यह है कि उनका अत्याधिक धन का लालच उन्हीं की जड़ों को कमज़ोर कर रहा है। अपने ही अधपढ़े युवकों को काम न देकर वे बाहर सस्ते श्रम वाले समाजों में कारखाने लगा रहे हैं। चीन, ताईवान, सैण्ट्रल अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, इण्डोचाईना इत्यादि पश्चिमी पूंजी से उद्योग–धन्धों में पनप रहे हैं। जैसे–जैसे इन देशों में आर्थिक स्वतन्त्रता आ रही है, इन की खोई हुई याददाश्त भी वापिस आ रही है। ये अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने लोक संगीत, अपनी लोक सम्पदा को धीरे–धीरे वापिस अपनी जनचेतना का हिस्सा बना रहे हैं। ये वे देश हैं जो धर्मों से इतने पीड़ित या प्रेरित नहीं हैं। इन देशों में एक मिश्रित समाज अपनी मिश्रित शक्ति का उपयोग कर रहा है। लेकिन भारत की आर्थिक प्रगति पश्चिमी पूंजी द्वारा लगाए कारखानों पर आधारित नहीं है। पश्चिम आज भी भारत को अपना क्लर्क ही बनाए हुए है। अमेरिका अपनी पूंजी से यहाँ कारखाने नहीं लगा रहा जिससे साधारण लोगों को काम मिल सके। वे हमारे यहाँ काल सैन्टरज़ बना रहे हैं। अंग्रेजी पढ़, बोल सकने वालों को क्लर्की का काम दे रहे हैं। अमेरिकी दफ्तरों, कम्पनियों, हस्पतालों, व्यापारिक केन्द्रों में बिलिंग करने या दूसरे किस्म के प्रोग्राम चलाने का काम यहां के कम्प्यूटर सैंटरों में दे रहे हैं ताकि उनके अपने पढ़े–लिखे लोग योजनाएं बनाने के या दूसरे मानसिक तौर पर सृजनशील, मौलिक नियन्ता होने के काम स्वयं कर सकें। एक नई तरह का बाबू कल्चर अपने असली रूप में भारत में स्थापित हो रहा है।
चीन जैसे देश इस बाबूगिरी में नहीं पड़े। उन्होंने पश्चिमी पूंजी से अपने लोगों को श्रम दिलाया। अनपढ़ या थोड़े पढ़े–लिखे लोग जहाँ काम कर सकें, ऐसे उद्योग लगाए। इस तरह ही जनसाधारण उत्पादन के काम में लगता है। अपने स्तर पर अपने साधनों से उत्पादन स्त्रोत आगे चल कर पैदा किए जा सकते हैं। हमारे देश में उत्पादन के विपरीत एक कुर्सी–कम्प्यूटर संस्कृति का जन्म हो रहा है। इस का सीधा असर हम इन से असम्बंद्घित क्षेत्रों में भी देख सकते हैं।
हमारे देश और समाज की असली शक्ति उत्पादन केन्द्रों में है – चाहे वे कारखाने हों या खेत या स्कूल। उन्हीं के बल पर हम आज बहुत कुछ निर्यात करने की स्थिति में पहुंचे हैं। दूसरे देशों की फाईलों का रोकड़ा तैयार करने की मुनीमगिरी से कुछ परिवारों में थोड़ा धन ज़रूर आ रहा है, लेकिन एक बड़ी कीमत पर। काम संस्कृति एक विकास–संस्कृति होनी चाहिए, हास–संस्कृति नहीं। संकीर्ण और दृष्टि विहीन सम्पन्नता मानसिक विपन्नता की ओर ले जाती है। सच पूछा जाए तो अपने ही देश के उत्पादन स्त्रोतों से इसे श्रृंखलित किया जाना चाहिए। ऐसे केन्द्र जहां सब को काम मिल सके – हर तरह के पढ़े–लिखे व्यक्ति को, यहाँ तक कि अशिक्षित व्यक्तियों को भी – इसके लिए नितान्त पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की आवश्यकता नहीं है। हमारे सामने लैटिन अमेरिका के देशों का स्पष्ट उदाहरण है। वे निजीकरण ( Privatization) का व्यापक विरोध करते हैं और पड़ोसी अमेरिकी महामण्डी उन का कुछ नहीं बिगाड़ सकती। सब से अधिक गौर करने की बात यह है कि वे सारे देश अपनी ही भाषा में यानी स्पेनिश में ही अपना सारा कारोबार, उच्चतम शिक्षा और शोध संस्थान चलाते हैं। सिर्फ मामूली औज़ार के तौर पर वे अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करते हैं। वैज्ञानिक सांझ के लिए जितना ज़रूरी हो बस उतना ही। हमारा पड़ोसी चीन भी इस बात को समझता है। जापानी तो शुरू से ही इस बात को जानते हैं। चीन में पश्चिमी देश अपने काल सैन्टरज़ और साफ्टवेयर सैन्टर इसलिए नहीं लगाते क्योंकि चीनियों को उस तरह की इंगलिश नहीं आती। लेकिन वे देश जानते हैं कि उनकी शक्ति का स्त्रोत हैं उनके उत्पादन केन्द्र और उनके साधारणजन।
भारत की जो भी आर्थिक उन्नति हुई, उसका कारण अंग्रेज़ी से जुड़ी नौकरियां नहीं थीं। इसका कारण यहां के अपने उद्योग धन्धे थे, कारखाने थे जो यहां के साधनों द्वारा, यहां के उद्योगपतियों द्वारा लगाए गए थे। इन दस सालों में भारत की निर्यात दर बहुत अधिक बढ़ी। उन देशों में भारत के उत्पादनों की अधिक निर्यात है जहां अंग्रेज़ी का बोलबाला नहीं है। लेकिन चमक–दमक अमेरिका या कैनेडा से लोगों के आने–जाने में और नौकरियां मिलने में ज़्यादा है। इस क्षेत्र में मिलने वाली नौकरियां चाहे बाहर हों या देश में – हमारा दूरगामी आधार कभी नहीं बन सकतीं। उन देशों की आर्थिक या राजनीतिक नीतियों में परिवर्तन इस व्यवसाय को चौपट कर सकता है। उनके काल सेंटर या साफ्टवेयर का काम उनके एक राजनीतिक निर्णय की दया पर निर्भर है। इस व्यवसाय में उतना काम ही हमारे देश में अन्ततः बच पायेगा जितना हम मौलिक रूप से उनसे ज़्यादा अच्छा कर पायेंगे जैसे जापान की स्थिति है।