नदी घर

(खंड काव्य)

– कृष्ण किशोर
विशेष कुछ नहीं

दिनों दिन की ज़िंदगी के सभी सरोकार मेरी कविता के सरोकार हैं। जो कुछ भी चारों तरफ हो रहा है, एक मुद्दत से हो रहा है, उसका पूरी तरह से हिस्सेदार रहा हूं। मैंने कोई भी अतिरिक्त सुख-दुख निर्मित नहीं किए। कोई अतिरिक्त आधार अपनी कविता के लिए नहीं गढ़े। आज की विचारहीन स्थितियों में बटी हुई, टुकड़ा टुकड़ा ज़िंदगी, चारों तरफ दूसरों के नृशन्स हस्तक्षेप से आहत होकर कुछ भी ना कर पाने की असमर्थता में घुटती हुई ज़िंदगी और पद्धति बद्ध संस्थागत अतिक्रमण से कुबड़ाई हुई जिंदगी अपने आप ही मेरी कविता का विषय बनती चली गई।

इसके अलावा आज की यह ज़िद कि आसमान के नीचे खड़े होकर भी आसमान की तरफ नहीं देखना – एक ऐसी संवेदनहीनता पैदा करता है जो सारे अन्यायों को और अन्याय सहने वाले को रास्ता देती हुई चलती है। सजग विचारशील स्थितियों को खंडित करती है। भिन्न-भिन्न मनस्थितियों और विचार स्थितियों के रूप में मेरी कविता एक प्रयास है इस निरंतर चल रहे संघर्ष को जारी रखने का, जिसका दूसरा नाम ही ज़िंदगी है। नदी घर एक लंबी कविता (खंड काव्य) है। इस प्रयास के 13 अलग-अलग पड़ाव हैं। विचार, परिस्थिति और प्रकृति से प्रेरित। इंसान की ज़िंदगी एक निर्णायक स्थिति तक पहुंचती है। उस स्थिति तक, जहां ज़िंदगी सिर्फ एक परिस्थिति बन कर रह जाने से मुक्त होती है। संघर्ष निर्देशित होता है, प्रकृति के नियमों से – जो सहज भी है और क्रूर भी। लेकिन सार्थकता की तलाश भी वहीं शुरू होती है।
दैनिक जीवन के कटघरों में भीड़ ही भीड़ है एक व्यक्ति कहीं नहीं। उनका निजत्व अगर कहीं दिखाई देता है, तो उसके आधार में उनका बिखराव और टूटन भी दिखाई देती है। व्यर्थ का संघर्ष ही दिखाई देता है। एक थका हुआ मन भी आंखों से झांकता है। इन शिकंजों से टूटना ही होगा। एक-एक करके सब को अपनी ही दिशा में बढ़ना कब होगा? खुले आसमान के नीचे खड़े होकर हवा पानी की तरह अपनी दिशा में बह निकलना उतना कठिन भी नहीं। बस हमारी स्मृति खो गई है। उसे ही जोर से पुकारना है, वापिस बुलाना है। हम भूल गए हैं कि हम सब प्रकृति के तत्वों से ही बने हैं। हवा, पानी धरती, आकाश और प्रकाश हम सब के भीतर है हमें विचलित करने के लिए। अपने ही विस्तार को पाने के लिए, इन तत्वों का एक झोंका ही बहुत है। कुछ ही दूर निकलने पर पर्वत, झरने, नदियां, जंगल – सब हमारे साथ होंगे। घर वापसी की तरह हम अपनी खोई हुई पहचान वापस पाएंगे।
कहीं भी निकल पड़ने के लिए, कुछ भी कर सकने के लिए मुक्त होकर, उन सब परिस्थितियों का सामना करने को तैयार होंगे – जो बच्चों को बच्चा नहीं रहने देते। व्यस्को से उनका विवेक और बूढ़ों से उनकी उदारता छीन लेते हैं। इस संसार को जिन भीतरी बाहरी शक्तियों ने मरघट बना रखा है और घरों को कारागार। इन से मुक्त होना जीने मरने के संघर्ष जैसा आत्महंता भी नहीं। केवल अपने ही रूप में इन पर उजागर होना काफी है। ‘नदी घर’ इसी यात्रा पर निकल पड़ने का प्रयास है। हवा, पानी, धरती, आकाश और हमारा सूर्य हमारे साथ है ही। हमारे भीतर और बाहर प्रकृति का विस्तार हमारे साथ है ही।

 

प्रतीक्षा

(खंड 1)

एक मांसल व्यवस्था है
जिसके कांटे चुभ रहे हैं
रोम रोम में
जो मुझे हर क्षण एहसास दिलाते हैं
रक्त हीन होने का
कंकाल होने का
निर्वीर्य होने का।
लेकिन व्यवस्था फिर भी मांसल है
रक्तचाप बढ़ाती हुई
सिर को चढ़ती हुई
आंखों पर नाज़ुक हथेलियां रखती हुई
जो कुछ बीत गया है
उसे तलवों पर चिपकी
मिट्टी की तरह खरोंचती हुई
वर्तमान को
फूलों भरी जादुई टहनी से प्ररेती हुई
और भविष्य को
साफ-सुथरे आकाश पर
तारों की तरह बिखराती हुई
जिसे न कोई छू सकता है
जहां न कोई पहुंच सकता है
सिर्फ उधर आंखें गड़ा कर
रात भर जाग सकता है।
पूरे दिन की थकान के बाद
तलवों से जांघों तक
दुखती हुई टांगो को ए
क पर्वतीय ढलान जैसे पेट से चिपकाकर
आश्वस्त हो सकता है कि
भविष्य तारों भरा आकाश है।
आज का दुख और
कल की थकान कुछ भी नहीं।
मुझे रात भर जागना है क्योंकि मेरा भविष्य सिर्फ अंधेरे में
उजागर होता है
साफ़-साफ़ दिखता है
मुझे एक पल भी नहीं सोना है
मांसल व्यवस्था के गदराए हुए
जिस्म को रात भर झेलना है
अपनी धमनियों में बहने देना है।
इसके कांटों की चुभन को
आत्मसात करना है
एक विचार की तरह देखना है
अभी तो केवल इतना है कि
एक व्यवस्था है और एक एहसास
रक्तहीन होने का, निर्वीर्य होने का।
प्रतीक्षा में हूं वह क्रांति क्षण आएगा
देखना है कि अपना जिया हुआ हर पल
जो आज पर्वत शिखा पर
जमी हुई बर्फ़ सा सफ़ेद नजर आता है
धवल-उज्ज्वल,
जहां इस गंधाती धरती की हवा में
सांस लेने वाला पक्षी भी पहुंच नहीं सकता –
रक्त में शामिल होकर
जिस्म के होने का साधन बना कि नहीं?
और सिर से पैर तक हर अंग में जड़े
चमकदार पत्थर वो शब्द,
वो जगमग-जगमग शब्द
जो मुझे जोड़ते हैं इस व्यवस्था से
जिस्म के किस हिस्से से निकले थे?
पैर की अंगुलियों से
आंख की पुतलियों से
या नाभि चीरकर फूटे थे
एक अमृत धार की तरह
मैं प्रतीक्षा में हूं
वह क्रांति क्षण आएगा
सूरज निकलेगा जब तो
यह तारों भरा आकाश किधर जाएगा?

विमोह

(खंड 2)

कहाँ से उदय हुआ यह आभास
उस क्रांति क्षण की प्रतीक्षा
किस भोर से फूटी अचानक
किसी भोर से नहीं- अपने ही
अहम् के छिद्र से झांक कर देखा
अपनी स्थिति की त्वचा छू कर देखा
अपनी आत्म विभोर यात्रा का
एक एक पड़ाव याद आया
तो जाना
व्यक्तियों का समूह रहा हूं
मैंअकेला भीड़ से घिरा
हर पल सिर्फ अपने दुख सुनाता
उस भीड़ को।
अपने प्रति भावुक,
सब के प्रति उदासीन
सारा संसार एक तरफ़-तुच्छ !
मैं अकेला एक तरफ़ – प्रबुद्ध, गरिमावान!
पेट में कीड़ों की तरह
इच्छाएं पालता
भोर तक बिस्तर में कुलबुलाता,
सपनों की दलदल में धंसता- मैं!
अपने चारों तरफ़
सिर्फ सांस भर लेते हुए
बंधुओं को संहारता-
एकांत अंधकार का ऐश्वर्य भोगता हुआ- मैं !
कितना बड़ा हो गया हूं!!
सोचता हूं अब इन छोटे- छोटे मकानों में
नहीं समा पाऊंगा
यह दरवाजे -खिड़कियां
उन बौनों के लिए हैं
जो तृप्त हैं अपने सर पर –
कटोरा भर आकाश से।
यह कुर्सियां, मेज़, बिस्तर
और इन पर बैठते, सोते, जागते लोग
मेरे हाथों पैरो में गड़ी कीलें हैं।
लेकिन सिर्फ सुराख़ हो गए हैं
बेजान हथेलियों और तलवों में।
लहू की एक बूंद भी
नहीं गिरी कभी।
सुराख़ – जिन्हें देखकर लोग डर जाते हैं
लेकिन बदलते नहीं
न अपने प्रति – न मेरे प्रति।
और जो कीलें हैं-
उन्हें सिर्फ मेरे ही जिस्म की
धरती सुहाती है – नर्म, आ
सानी से रास्ता देती हुई डरपोक धरती!
जिसमें वे गड़ सकती हैं
बगैर अपने सिरों पर चोट खाए
सिर्फ नाजुक हथेलियों के दबाव से ही।
लेकिन मैं दुःख रहा हूं
हर कील कांटे को
रास्ता देता हुआ दुःख रहा हूं
कितना अखंड, संपूर्ण
और वैभवशाली हो जाता हूं
उन सब के लिए
जो मुझे भोग रहे हैं – बचपन से
जिनकी आंखें अंधा जाती है
आकर्षण से मेरे प्रति
जिनको मेरे जिस्म की
नर्म धरती प्यारी है
जो मेरी आत्मा को और
उसकी दूरगामी सिद्धांत हीनता को
घना, काला, आधारहीन अंधेरा मानते हैं
कोई मांसलता नहीं
जिसमें वे उतर सकें
सुरक्षित कीलों की तरह।
रेंग सके
मीठा चाटते कीड़ों की तरह
लेकिन आज मेरी आत्मा की
उसी दूरगामिता के
आकाश से उतर कर
सूर्य की किरणों से बने
एक सुनहरे पक्षी की तरह –
एक जगमगाता क्षण
मंडरा रहा है मेरे मस्तक पर।
मेरी आंखें देख रही है
एकटक उस तरफ़
यही सुनहरा पक्षी
कितनी ही बार बचपन से अब तक
इसी तरह उदय हुआ है
मंडराता रहा है – मेरे मस्तक पर
लेकिन मैं गड़ा रहा हूं
अपने बिस्तर में
अपनी मेज़ कुर्सियों पर
पेट में कीड़े पालता हुआ
यही पक्षी
रात भर मेरे ऊपर मंडरा कर
सुबह होने से पहले ही उड़ गया है हमेशा
मेरे जागरण को नकारता हुआ।
मेरी सुबह को
अर्थहीन धुंध में धकेलता हुआ
लेकिन इस बार
यही किरण पुंज
संतुलित होकर ठहर गया मेरे ऊपर।
यह जगमगाता क्षण
फैल गया मेरे सारे आकाश पर
मेरी सिद्धांत हीनता की तरह
मुझे आधारहीन करता हुआ।
जिस्म के तर्क से आजाद करता
मेरे लिए –
अब ये छते, खिड़कियां, दरवाजे
छोटे पड़ गए हैं
या है ही नहीं
हवा का घर केवल आकाश है –
आधारहीन आकाश
उसके सिर पर कोई छत नहीं होती
उसके सिर में कौन कीलें गाड़ सकता है?

 

अर्थहीन

(खंड 3)

जीने का अर्थ
क्या कुछ भी हो सकता है।
सिवाय इसके कि
जन्म से मरण तक
समय की अग्नि धुरी पर घूमते रहना है।
शरीर को यह अंतराल
जैसे कैसे भी हो सहना है
सिवाय इसके कि आकाश की तरह
रिक्त होकर चतुर्दिक, दिशाहीन, हवाओं सा
अपने ही विस्तार में बहना है।
इसी तरह अर्थहीन
उन्मुक्त होकर जिया है
किसी बावड़ी के किनारे
पत्थर की तरह बैठकर
निर्भय और आश्वस्त कछुओं को
अपने गीले चिकने वक्ष पर
आश्रय दिया है।
पुरानी, खोखली मिट्टी से निकलकर
रेंगते हुए कीड़े मेरे स्वजन रहे हैं।
मेरी पीठ पर सरसरा कर
संबंधों की लकीरे छोड़ गए हैं
टुकड़ा-टुकड़ा दर्द
मेरे पथरीले रेशों पर
झूला गए हैं
लेकिन पतझर के आते ही
पीले और पोपले सुख-दुख
पत्तों की तरह झड़ते हैं मेरे ऊपर।
पीठ पर सरसराती हुई सारी लकीरें
मिट जाती रही हैं
उनके भुरभुरी चरमराते स्पर्श से।
टुकड़ा-टुकड़ा दर्द–
मेरे रेशों में काई की तरह जमा हुआ दर्द
धुल-पुंछ गया है
जब भी उस बावड़ी का कच्चा किनारा
कहीं से टूट गिरा छपाक सा ठहरे पानी में।
सिहर कर
पत्थर का बदन छोड़ गई काई
छिटक कर दूर गिरा
रेशों पर झूलता हुआ टुकड़ा-टुकड़ा दर्द।
साफ सुथरा मैं, फिर से उन्मुक्त!
जन्म से मरण के इस अंतराल को
अग्नि धुरी पर साध कर
एक अर्थ-यात्रा पर
निकल पड़ने को आतुर
उठ खड़ा होता हूं।

 
 
 
 

उस बावड़ी के किनारों से
बंधे हुए पानी की कगारों से,
ध्वस्त दीवारों से मुंह फेर कर
अनिश्चित लेकिन निश्चिंत
कहां जाना है – जाने बिना निकल पड़ना
कितना सुखद लगा।
जीवन की अर्थहीनता का बोध
मैले कुचेले अनुभवों के
पाँवों पर जमी मिट्टी की तरह
धुलपुंछ जाने का सुख
कही दुबक गया था,
लेकिन अब लगभग अचेत सा-
किसी भी अर्थ की तलाश से मुक्त होकर
जहां पहुंचा वह संज्ञाहीन कर गया मुझे।
एक अबोध स्थिति – दिशाहीन
स्थिर होकर ठहर गई।
लगभग अचेत सा
किसी भी अर्थ की तलाश से मुक्त होकर,
एक लंबी यात्रा पर
निकल पड़ने का आवारा निर्णय
एक सुनिश्चित निर्णय भी नहीं था।
धरती और आकाश का वह छोर –
जहां दोनों एक होते हुए दिखते हैं,
वह दृश्य-प्रवाह की तरह,
मेरे पांवों को गति दे गया।
यात्रा कितनी लंबी रही,
कितनी बार सूरज चढ़ा
और डूबा- याद रहने जैसी बात नहीं थी।
जहां पहुंचकर मन ठहर गया,
पांव रुक गए
वह विस्तार संज्ञाहीन कर गया मुझे
मुक्त कर गया,
अकर्मण्य कर गया।

प्रकृति जन्य

(खंड 4)

मुक्त हो कर अकर्मण्य खड़ा हूँ।
एक पर्वत शिखा पर-
जहाँ कोई पगडंडी
किसी आकांक्षा की ओर नहीं ले जाती।
मेरे पाँवों के नीचे है
धुनी हुई चाँदी सी बर्फ़
और चारों तरफ़ हल्के नीले फूल के तरह
खिला हुआ आकाश।
बाँहों में बाँधने के लिए
अपने वक्ष के सिवाय कुछ नहीं।
जीवन की सांझ जैसी
हल्की हवा की परतें
किसी देवदार का
एक पत्ता भी नहीं हिलाती
मन की तरह शांत
सिर पर बर्फ लादे खड़े हैं
उदेश्यहीन, विशाल पेड़ और पत्थर।
कुछ भी ऐसा नहीं
जो छलछला कर
बाहर गिर पड़ने को आतुर हो
अपने से अतिरिक्त
कुछ और हो जाने की
वासना से प्रताड़ित हो कर।
ऐसे ही जैसे
कोई फूल रक्तिम हो उठने की आतुरता में
अपनी टहनी पर उगे
पत्तों को नोचता नहीं।
अपने सानिध्य से
आकर्षित नहीं करता
किसी कांटे को
अपनी कोमल त्वचा बींध जाने के लिए।
एक विशाल कोख़
फैली हुई है
चारों तरफ़ प्रजनन में व्यस्त निरंतर।
लेकिन यहां कोई सगे मां जाए नहीं
एक दूसरे की गर्दन पर
सवार होने के लिए।
कोई बंधु बांधव नहीं
वैमनस्य का जंगल सुलगाते हुए।
इस समाज में
कुछ भी असामाजिक नहीं।
प्रकृति के धर्म में
कुछ भी अधार्मिक नहीं।
जन्म और मृत्यु को
एक सूत्र में बांधती हुई वासना
अनैतिक नहीं होने देती
किसी कर्म खंड को।
अपनी ही कोख़ से जन्मे हुए को
प्रताड़ित नहीं करती
उर्धवमुखी होकर जीने के दोष पर।
ऐसी ही मन: स्थिति में
आंखें ऊपर उठ जाती हैं
दो पर्वत श्रृंखलाओं के बीच
सुनहरी किरण जाल!
सफेद बर्फ और श्यामल बादलों के टुकड़े
गदरा कर उलझ जाते हैं एक दूसरे से।
विमूढ़ होकर देखता हूं
इस वेदना हीन परिणय को
इस अनासक्त आवेश हीन महा मिलन को।
और इन मायावी क्षणों का
अंत होता है सूर्य के आलोक में।
स्वच्छ, धवल, उज्ज्वल हो कर
सिहर उठती है
दो पर्वत-श्रृंखलाओं के बीच की रमणीयता।
अनाच्छादित निर्वस्त्र संबंधों का
यह संसार मेरा रक्तचाप बढ़ाता है
बर्फ पर रखे हुए तलवों में
सोंधी सी गरमाहट दौड़ती है।
मैं अपनी ही ऊर्जा से आतंकित
एक नए देवदार की टहनी झंझोड़ देता हूं।
उसका बर्फ से ढका मस्तक
मेरी अनैतिकता को ढांप देता है –
मेरे शीश और कंधों पर
अपने मस्तक से कुछ बर्फ गिरा कर
चारों तरफ देखता हूं।
कहीं कुछ नहीं सिर्फ मैं हूं
सिर्फ मैं – आदिम मैं!
खींच कर उतार फेंकता हूं
अपने सब वस्त्र – अपने जीर्ण संस्कार!
रेशमी सफेद बर्फ पर
इधर उधर छिटके हुए वस्त्रों को
निर्मम होकर देखता हूं
और फिर निर्वसन स्वयं को,
अपने से अलग पड़े
मेरी सभ्यता के प्रतीक मुझे सुंदर लगे।
जैसे सफेद चादर पर किसी ने
कई रंगों के फूल उभार दिए हों
एक ही छलांग में
इस उभरे हुए फूलों के नन्हे से हिमद्वीप को
लांघ कर भाग उठा।
अपने सामने के संकरे रास्ते पर
पिंडलियों तक बर्फ में धंसता हुआ
हांफता हुआ, भागता रहा।
अपनी उर्ध्वगामी ऊर्जा को भोगता हुआ –
संताप हीन, वेदना हीन भोग
निर्वस्त्र शरीर की अलौकिक यात्रा
रक्त कणों को प्रकाशित करती
आस्था में परिणित हुई।
किसी बर्फ की फुनगी पर बैठा हुआ
कोई पक्षी उड़ गया दूर आकाश की मुक्तता में।
हांफता हुआ,
एक शिला पर औंधा होकर लेट गया।
दूर तक धुंधलाती हुई सफेद बर्फ औ
र वनस्पति जगत का गंधाता रोम रोम!
डूबते हुए सूरज के साथ
मेरी चेतना भी डूब रही थी।
इस संसार से
प्रकृति संसार की यात्रा का प्रथम क्षण
अटक गया कहीं स्मृति तंतु से।
धीरे धीरे शिला पर औंधाया हुआ मैं
एक शिला हो गया
एक पत्थर पर पड़ा हुआ दूसरा पत्थर!

सात्विक हिंसा

(खंड 5)

जिस्म कब अचेत हो गया
मैं कहां जानता
अर्धरात्रि के किसी एक पल
क्रोंच, क्रोंच, क्रोंच
इतनी भयानक चीखें
हिंस्र होकर मंडरा रही थी।
यह पर्वत स्थली,
वनस्थली शांत!
जैसे इस रक्तपात के वैभव को
अपनी अखंडता में भोग रही हो।
मैं चौक कर
भय से काली
शिला पर उठ बैठा
कुछ ही ऊपर
दो जोड़ी विशाल पंख
एक दूसरे पर झपटते,
चक्कर काटते-
मृत्यु का सामना करते
जीवन के मोह में,
एक दूसरे को
समाप्त करने की
वासना से उत्पन्न
भीषण चीत्कार
आक्रमण –
प्रति आक्रमण!
सिर्फ छाया भर देख पाया
अपने सिर पर मंडराते
इस पक्षी युद्ध की।
एक शिला पर
जैसे सदियों से बैठा मैं
इसी का एक उभरा हुआ
भाग सा हो गया था।
कुछ ही क्षण,
मायावी मृत्यु से
पलायन का संघर्ष
एक अंतिम
उग्र आकाश व्यापी चीत्कार
और फड़फड़ाहट के साथ
मांसल, रक्त पिंड
वह प्रकृति पुत्र-
एक पाखी
मेरी देह को
अपने जीवन की तरह
अस्तित्व हीनता से भिगो गया।
एक सिहरता,
दम तोड़ता,
यह आकाश पुत्र
मेरी बाईं ओर
मेरी त्वचा को छूता हुआ
ढेर हो गया!
भयानक सन्नाटा!
एकदम इतना गहरा
इस रक्तपात के बाद!
मुंदी हुई आंखों को
खोलने के लिए
इतना संघर्ष करना पड़ा
जैसे पलकें नहीं,
सुरमई शिलायें हो
किसी गुफा द्वार को
बंद करती हुई।
कितनी ही देर आकाश पर
पथराई पुतलियां टिकी रही
रात का कौन सा पहर था
नक्षत्र
सिर्फ रक्त के छिटके हुए धब्बे थे
राक्षसी वक्ष पर।
बहुत देर बाद
आंखें दाई और घूम गई –
अंतहीन देवदार,
पंक्ति बद्ध
सारे हिंस्र दैत्य
सारे युवा और वृद्ध दैत्य

पंक्ति बद्ध खड़े थे
उस गहरी खाई की ओर
पीठ फ़ेर कर
जहां कितने ही अस्थि-पिंजर
फेंक दिए हैं
उन्होंने जीवन का रक्त मांस चूसकर।
धीरे-धीरे
एक-एक विशाल-शिला पर
दृष्टि घूम गई।
कितनी भयानक दंत श्रेणी
उस अहंकारी उन्मत्त पर्वत दैत्य की।
मैं निर्वसन –
अपने प्रति निर्मम हो उठा
जीवन की
अंतिम सार्थकता को स्वीकार करने के लिए
रमणीयता के वक्ष से उभरती हुई
सात्विक हिंसा का अर्थ
आत्मसात करने में
एक चमकीला क्षण भर ही लगा।
एक उष्णता से स्फूर्त होकर
भीग गया मेरा मायावी अस्तित्व।
भीतर की सारी बर्फ पिघल कर
रिसने लगी रोम-रोम से
मेरा सारा अनुभव,
सारा ज्ञान,
बूंद-बूंद कर बह निकला
आसपास शिलाओं पर
शून्य हो गया था मैं
और रिक्त
उसी रिक्तता में
उनींदा होकर चलता गया
उन्हीं संकरे रास्तों पर
वापिस
जहां अपनी सभ्यता के प्रतीक
अपने वस्त्र छोड़ आया था।
भीगे हुए वस्त्र
अपने गर्म वक्ष से सटाकर
स्तब्ध बैठा रहा देर तक।
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वापसी

(खंड 6)

प्रकृति के इस विशाल रमणीय कक्ष में
उकड़ूँ बैठा हुआ मैं –
हठात ही स्मृति के एक उन्मत्त झकोरे से
इस विस्तार की ढलान पर
फिसलने लगता हूँ।
एक निष्ठुर कगार पर
आ टिकता हूँ –
स्थिर हो जाता हैसब कुछ
एक कसाव और जकड़न के साथ
स्मृति वास्तविक हो उठती है
इस हिम प्रदेश में
यह निशब्दता उकेर गई उनींदी स्मृतियां।
स्मृतियां जैसे अधखुली आंखें हों
अपने भीतर झांकती हुई
एक एक पोर सहलाती हुई,
अपने बिखरे अस्तित्व धागों को खोलकर
खुली धूप में फैलाती हुई, समेटती हुई
आज और अतीत को जोड़ती हुई।
एक-एक पड़ाव पर
रुक रुक कर याद करता हूं –
आत्म विभोर स्वयं को
अपना जिया-अनजिया हर पल बटोरता हूं।
अपने रिक्त मन की झोली में
प्रकृति सानिध्य के उजास में यह प्रकाश पुंज –
यह सूर्य जो देख रहा हूं- इतने निकट
स्मरण करता हूं।
कितनी ही बार उदय हुआ
केवल कुछ देर बाद ही अस्त हो जाने के लिए।
इस पूर्ण रिक्त अन्तराल से पहले,
प्रकृति के विस्तार में
यात्रा से पहले का अनुभव जीवंत हो उठा।
अब केवल निस्तेज स्मृतियां है पीछे
और आगे है उतरने के लिए रोमांचक ढलान।
नीचे उतरती पगडंडियों को
अपने हाथों की लकीरों की तरह देखता हूं
दूर तक मेरे अहं की तरह
फैली हुई उबड़-खाबड़ ढलान को
नीचे उतरते हुए झांक-झांक कर देखता हूं।
अपार वैभवशाली पर्वत ढलान से
नीचे उतरना ऐसे लगा जैसे
आकाश में धीरे-धीरे सूर्य ऊपर उठ रहा है।
चलते-चलते ऐसे ही मुझे लगा कि
अंतर है केवल ऊपर जाने का
और नीचे उतरने का।
एक अंतर और भी है
स्थिति के पूर्ण अस्वीकार का
नीचे उतर कर ऐसा नहीं लगा कि
सब कुछ ऊपर रह गया है।
एक उदार, असंयत, अनिश्चित प्रकृति में
जीवन मरण की नियम-हीनता
सभी मेरे साथ उतर आए थे।
आगे बढ़ने, पीछे हटने को
कुछ था ही नहीं ।
ऐसी ही पर्वतीय मनस्थिति में
नीचे उतर कर अपनी आत्मीय कठोर धरती पर
सिर रखकर लंबी निद्रा में उतर जाता हूं।
जैसे धरती पर नए प्रवेश के लिए
पूरी तरह अशरीरी होना आवश्यक हो,
नई यात्रा पर निकलने के लिए
नए पांव, थकान मुक्त पांव उगाने आवश्यक हो।

असंदिग्ध

(खंड 7)

एक लंबी निद्रा के बाद
दिनों-दिन की सारी थकान
अपने संबंध संस्कार
अपनी त्वचा से छिटक कर
अर्ध रात्रि सब कुछ झटक कर
खुले आसमान के नीचे आ खड़ा होता हूं।
सबसे चमकदार सितारे की तरफ़ आंख उठाकर,
सोचने की अवस्था से बहुत परे –
एक आकाशी वस्तु की तरह
सितारों के बीच एक सितारा बनकर जम जाता हूं।
अपनी खुली छत के फर्श पर
मेरी आंखें ऊपर भी हैं आकाश पर –
फैला हुआ मायावी संसार देखती हुई
और भीतर भी हैं
अपने ही स्वरूप पर जमी हुई।
ऊपर देखता हूं सब कुछ कितना निश्चित है कहीं कुछ भी संदिग्ध नहीं
कहीं कुछ भी अपने होने के आभास से अस्थिर नहीं।
अपने न रहने की नियति के ज्ञान से
अपंग नहीं – अशक्त नहीं
अकर्मण्य नहीं
छिछले अपूर्ण केवल देह-जनित
अनुभवों के ज्ञान की परिधि में कैद नहीं।
अपने-अपने बंधन में
कितना मुक्त है
सब कुछ सिर के ऊपर।
आकाश का सांवलापन
मेरी अधखुली आंखों से भीतर प्रवेश कर जाता है।
एक रास्ते की तरह
बिछ जाता है भीतर के प्रदेश में।
मैं उस रास्ते पर निकल पड़ता हूं
रास्ते पर कुछ ही दूर निकलने पर
लगा सब कुछ वैसा ही,
वही था जिसे छोड़ कर गया था पीछे।
इस निकल पड़ने में कितना दोहराव था
उन्हीं विसंगतियों का फैलाव था –
पर्वतों, पेड़ों पत्थरों के विस्तार से
जितना विपरीत हो सकता है उतना विपरीत!
वही सब कुछ आगे -पीछे पसरा पड़ा था।
इन्हीं मृतक वीथियों में रहा हूं-
इन्हीं में रहना, सोचना, जागना हुआ है
भीतर जाना, बाहर आना हुआ है।
वही अंधेरी काली गुफाएं वही शरण स्थलियां –
फिर से एक बार इन में से किसी एक में
प्रवेश कर जाता हूं
केवल एक दोहराव के लिए।

 
 

रक्ष असमान

(खंड 8)

किसी भी अंधेरी गली में
किसी भी गुफा द्वार में
प्रवेश कर जाता हूं।
भीतर की अंधेरी सीलन
मुझे अच्छी लगती है।
वहां घुटने टेक कर बैठी हुई
अधमरी ज़िदंगी, आंखें मूंदकर,
सिर झुकाए हाथ वक्ष से चिपकाए
प्रार्थना रत जिंदगी मुझे क्रोधित नहीं करती
क्योंकि मैं जानता हूं
ये मजबूर लोग जो कुछ मांग रहे हैं
बस वही इन्हें नहीं मिलना है
क्योंकि ये सिर्फ मांग रहे हैं
इंसान से या अपने भगवान से।
दूसरों के सशक्त हाथों से
अपनी गर्दनें छुड़वाने के
संघर्ष में लगे अशक्त लोग
मुझे द्रवित नहीं करते –
क्योंकि मैं जानता हूं
इस सहज संबंध को
जो केवल एक स्थिति है
जो कभी क्रांति नहीं ला सकती।
एक शव से सटा हुआ दूसरा शव!
देखता हूं
इस संस्था-बद्ध नियम-बद्ध
शव स्थिति को
जिसे मैं कोई महत्व नहीं देता
क्योंकि संस्था
सरकंडों के राक्षस के सिवाय कुछ नहीं
जिसे एक बौना भी
छिन्न-भिन्न कर सकता है।
लेकिन ये बौने भी नहीं हैं –
सिर्फ शव हैं एक दूसरे से जुड़े हुए
एक ही धागे से बंधे हुए।
एक ही जैसी मान्यताएं और विश्वास
चमड़ी की तरह पहने हुए।
सब के सुख – एक ही नैन नक्श के
सब के दुःख एक ही कद काठ के।
जानवर की तरह सूंघ लेते हैं,
कोई इनसे जरा भी डरता है तो
उस पर झपट पड़ो
चीर फाड़ डालो,
इतने भयानक और इतने कायर!
सब देवी देवताओं से
एक ही प्रार्थना करते हैं ये शव –
रक्ष अस्मान प्रभु, जीवेम शरद: शतम्।
हे प्रभु हमारी रक्षा करो,
हे प्रभु हम सौ साल जिएं।

 
 
 

10 Fascinating Cave Dwellings in the World (with Map & Photos) - Touropia

बहिष्कृत

(खंड 9)

मुझे कुछ भी प्रताड़ित नहीं करता
इन गुफाओं से
बाहर धकेल दिए जाने से पहले
मैं यही का वासी था
मैं भी थोड़ा-थोड़ा जीवित शव था।
केवल यही विद्रोह
इन काली गुफाओं में
मुझसे हुआ था
मैं थोड़ा बहुत जीवित था।
पूर्ण मृत क्यों नहीं हूं?
इन्हीं के कंदराज्ञान से
अंधा क्यों नहीं हूं?
इस अपराध पर
इन गुफाधिकारियों ने
गर्दन पकड़ कर निकाल दिया था मुझे
फेंक दिया था खुले आसमान के नीचे
धकेल दिया था जंगल की तरफ।
इसके बाद आकर्षण जगा
आकाश की तरफ मुंह उठाकर
सितारों से बतियाने का
किसी भी पेड़ से पीठ टिका कर
पत्थरों के चिकने वक्ष सहलाने का,
उन्हें गीत सुनाने का
उनकी छाती पर सर रखकर सो जाने का।
सब की वासनाओं को स्वीकार करने का
घास फूस की तरह
सब को समर्पित हो जाने का।
चढ़ते सूरज की तरह
सुख से गुलाबी हो जाने का
अहसास जागा तभी से
और तभी से जाना कि मेरी उदासी –
पानियों में डूबते तांबई सूरज जैसी क्यों है।
लेकिन इसी तांबई उदासी से,
इसी गुलाबी सुख से मैंने जाना कि
मेरे चारों ओर फ़ैली हुई
सीलन भरी गुफाएं एक विशाल प्रश्न चिन्ह है
मेरी आज़ादी के सामने लटके हुए,
खुले आसमान के नीचे आकर
जीने की सार्थकता को निरर्थक करते हुए।
मुझे अपनी आज़ादी
क्या पेड़ों के साथ, चिकने पत्थरों के साथ
चांद सितारों के साथ भोगनी है?
बांटनी है?
मैं अपनी आज़ादी,
अकेले मानव का ऐश्वर्य
अपनी झोली में भर कर
बैठा रहूंगा किसी नदी के किनारे तमाम उम्र
या उससे पहले ही कोई सैलाब आएगा
और बहा ले जाएगा,
मेरी झोली में दुबके ऐश्वर्य-सर्प को
शायद यही कारण है कि
अब बहुत दिनों से तारे मुझसे बोलते नहीं।
पेड़ पौधे मुंह फेर खड़े हो गए हैं
पत्थरों के चिकने वक्ष पर
कांटे उग आए हैं
मेरे भीतर कोई प्रदेश नहीं
जहां झिलमिलाती आकाश गंगा
उतरकर समाहित हो सके।
कोई रास्ता नहीं
जिस पर चलते हुए मैं
अपने महा विलय बिंदु तक पहुंच सकूं।
एक नए प्रकार का भय मुझे ग्रस रहा है
शायद जंगल में अकेले होने का भय
कितनी जल्दी बुझ गया
ऐश्वर्य जनित विद्रोह
कितनी जल्दी चुक गई
सितारों से बतियाने की हवस
मुड़कर देखता हूं
उन्हीं अंधेरी गुफाओं की तरफ़
और उनके भीतर देवताओं से प्रार्थना रत
सौ साल जीने की भीख मांगते हुए
कायरों की तरफ़
उन्हीं कायरों की तरफ़ जिनके साथ
मुझे अपनी आजादी बांटनी है
उन्हीं गुफाओं की तरफ़ –
जिनकी पथरीली पीठों में सुराख करने हैं मुझे
शिला वक्ष भेदने हैं जिनके
और देखता हूं उन कन्दराधिकारियों को
ये कितने कायर हैं,
ये मुझसे लड़े नहीं
बस मुझे जीवित समझ कर
अपनी गुफाओं से बाहर फेंक दिया था
मेरे स्पर्श से और शव जी उठे शायद! इन्हें पता है
जीवन कितनी जल्दी फैलने वाला रोग है
हवा का एक झोंका ही बहुत है
एक जोड़ा पक्षियों की फड़फड़ाहट
या पत्थरों पर उछलती हुई पानी की धार
बस काफ़ी है
इन्हें पता है –
सूरज की एक किरण भी
घातक हो सकती है
किसी भी शिला के उदर में
एक नन्हा सा छिद्र,
वायु और प्रकाश का षड्यंत्र।
जो ज़रा भी मुक्त है
उसे पूरा मुक्त करना होगा –
ये जानते हैं
उसे बहिष्कृत करना होगा
पूर्ण मुक्त – पूर्ण बहिष्कृत!
अकेला होकर
जीने के लिए पूर्ण मुक्त!
मुझे भी ऐसे ही
मुक्त किया था इन्होंने
मैं जानता हूं,
मुझे फिर से भीतर जाना है –
इन गुफाओं में
अकेले-अकेले ही सही
लेकिन मुक्त करना है सब को।
आकाशोन्मुख होकर सोचता हूं
इन कायरों से जूझना नहीं है मुझे
केवल उजागर होना है
इन पर नन्ही सी प्रकाश किरण की तरह
छूना है इनकी शिराओं को
एक हल्की सी हवा की लकीर से
एक नन्हा सा छिद्र बनाना है
इनकी किसी भी शिला के उदर में
इनकी कंदरांओं में
फ़िर से प्रवेश करने के लिए
इन्हें थोड़ा सा आक्रांत करने के लिए
जीवन का इतना ही स्पर्श काफ़ी है।

अप्रयास

(खंड 10)

आकाशोन्मुख होकर खड़ा हूं
पहले कितनी बार
आज के सूर्य से सूर्य देखा –
याद नहीं।
शिखर पर यह तरल ज्वाल वृत्त
मेरी छाया से
मुझे मुक्त करता हुआ वृत्त
मुझे हठात ही
आकांक्षा मुक्त कर देता है।
या फिर उकेरता है
मेरे भीतर की प्रकाश हीनता को।
कंदराद्वार पर कोई शिला नहीं
पर मेरी धमनियों में
उद्घोष नहीं होता अग्रसर होने का।
मेरा एकांत – सूर्य तप्त एकांत
मेरी वहीं ऐश्वर्य बोध जनित वासना
शिथिल कर देती है मुझे
और वहीं दो शिलायों से निर्मित
छाया कक्ष में बैठ जाता हूं
पीठ टिका कर।
आंखें मूंद जाती है
बाहर के सत्य पर
किंतु भीतर का सत्य जागता नहीं –
केवल ऊंघता है
अर्ध स्वप्न की स्थिति में।
फिर वही प्रश्न –
एकाकी “मैं” ही सत्य है?
युद्ध-अयुद्ध केवल स्थितियां हैं
अपने विलय तक पहुंचने की
लेकिन तभी आंखों पर
किरणों की तपन और प्रकाशाभास
मद्धिम पड़ जाता है।
हवा का एक ठंडा झोंका
मेरे शिला कक्ष में
मुझे छू जाता है
आंखें खोलकर
अपनी बाईं ओर देखता हूं
मेरी छाया मेरे साथ है
और फिर वही वासना
जागृत होती है धमनियों में
मुक्त करती है मुझे
अपने विलय के आभास से।
एक चेतना
किसी स्मृति को उकेरती है
हवाओं की स्मृति को
टूट कर गिरते पत्तों की स्मृति को
किरण पुंज के नीचे
औंधे लेट कर गाए हुए गीत को
एक पक्षी युगल के
निर्भय मिलन की स्मृति को
नदी तट की
एक विशाल भीड़ की स्मृति को
जो अपने दिनों दिन की संघर्ष यात्रा से त्राण के लिए
एक अदैहिक मुक्ति की खोज
में इधर-उधर भटकती फिर रही है।
याद नहीं आता
कोई भी तो युद्ध
महाभारत के कृष्ण से लेकर
मध्य पूर्व के ईसा तक
और सिकंदर से लेकर हिटलर तक
जो लड़ा गया हो
दैनिक, व्यक्तिगत, अतिक्रमणों के विरुद्ध
एक व्यक्ति – एक मानव –
एक जीवन केंद्र रहा हो –
किसी युद्ध का याद नहीं
व्यक्ति कभी किसी भीड़ से बड़ा हुआ हो
भीड़ कभी व्यक्ति के लिए लड़ी हो-
याद नहीं।

प्रयास

(खंड 11)

प्रकृति के सानिध्य से,
धवल उज्ज्वल विस्तार से सूर्य के प्रकाश से,
हवाओं की गति से जितनी ऊर्जा,
साहस, निश्चय बटोर सकता था
अपने श्वास की गति में सब कुछ समेटकर
बार-बार इन गुफाओं में प्रवेश करता हूं।
कंदराधिकारी सरकंडों से बने पुतलों की तरह
अपने स्थानों से जैसे बंधे खड़े रहे।
कुछ चरमरा कर अपने आसपास ही बिखर गए –
कभी किसी का हाथ नहीं उठा।
हवा और सूर्य का प्रकाश
जो मेरे साथ भीतर चला आया था
इन्हें विचलित करने के लिए काफी था,
उठ खड़ा होने के लिए काफी था –
कुछ लड़खड़ाते पांवों के लिए।
मेरे आगे पीछे चलते हुए –
प्रकाश के स्पर्श से
मिचमिचाती आंखों के साथ
गुफाओं से बाहर आ जाने के लिए काफी था।
कितनी बार प्रवेश हुआ
याद नहीं।
अब मैं खुली हवा में मुक्त प्रकाश
में किसी चट्टान से पीठ टिका कर
बैठा हुआ अकेला, अपूर्ण, अशक्त व्यक्ति नहीं था।
मेरे साथ थी नन्ही सी भीड़
अनिश्चित दिशाओं में देखती हुई –
स्वयं को साधती हुई
सब कुछ देखा अनदेखा करती हुई,
एक संयुक्त आह्वान सुनती हुई।
शिला-द्वारों से बाहर आने का आभास
इनके भीतर ही कहीं ऊंघ रहा था।
प्रकाश में उजागर
इनके और मेरे अंतस की धाराओं का संगम
इतनी दूर नहीं था कि मन बैठ जाए।
किसी आधे रास्ते के पत्थर पर –
एक ही करवट देर तक बैठे रहने से
इनके भीतर बाहर रूप-कुरूप सलवटें पड़ गई है।
लेकिन टूटा-फूटा,
उधड़ा-बिखरा ऐसा कुछ नहीं
कि नदी किनारे बैठ कर
प्रातः और सांझ की लालिमा में नहाकर,
पुरवा-पछुआ हवाओं से बदन पोंछ कर,
अपने स्वरूप को
पानी के दर्पण में निहारा ना जा सके।
जगाया न जा सके किसी संवेदना को।
उकेरा ना जा सके समर्पित हो जाने के लिए
उसी घास फूस को – जिसे रोंदते हुए निकल गए हैं
वे सभी जो गुफाओं की शरण में ढेर हो गए।
इस नन्ही सी अस्त-व्यस्त अधचेतन भीड़ को
अपने चेतन मन से जी भर कर देखता हूं।
आंखें और मन भीग जाते हैं
आस की तपन से
कंठ खुल जाता है आह्वान के लिए।
अपनी ही
आवाज हवाओं की सायं-सायं जैसी लगती है।
थोड़ी ही देर में,
यह नन्हा सा व्यक्तियों का द्वीप सिहर उठता है –
अपने भीतर प्रवेश करती
संवेदना सिक्त उमड़ घुमड़ से।
अलग-अलग दिशाओं में देखते हुए
सब सुन रहे हैं
एक संबोधन
जो शायद मेरे ही भीतर से फूट रहा है –
पर्वतों से उतरती हुई पानी की धार जैसा।
अपने को स्थगित करते हुए फूटता है
एक आह्वान-निर्भय हो जाने का।
अपने कानों पर हाथ रखकर
अपना ही गीत सुनने का आंखें बंद कर –
अपने रूप पर रीझ जाने का
अपने-अपने भीतर बहती नदी को
समर्पित हो जाने का।

नदीघर

(खंड 12)

आज भी कोई महाभारत या तीसरा विश्व युद्ध नहीं होगा
मध्य युगीन अश्वारोहियों की दुर्दांत वासनाएं
कोई आतंक पताका फहराते हुई
तुम्हारे शारीरिक
या आत्मिक दमन की दुंदुभि बजाती हुई
तुम्हें घुटने टेक कर
जीवन की भीख मांगने के लिए
विवश नहीं करेंगी।
और न ही प्रताड़ित करेंगी
तुम्हें नन्हा सा साहस बटोर कर
अपनी-अपनी कंदराओं से
बाहर आ जाने के लिए।
तुम्हें – तुम सब को
केवल इतना मात्र करना है
कि खड़े हो जाना है
इस विशाल भवन की तरफ
पीठ फेर कर
इस नदी के गुलाबी जल की तरफ़
मुंह करके अस्तोन्मुख सूर्य को
आत्मसात करना है।
और तुम मेरे मित्र-
तुम जो दूर खड़े हो
जानता हूँ तुम्हें बचपन से
आकाश जैसे उजले
और हल्के नीले वस्त्र पहनकर
पक्षियों की और देख रहे हो,
उनके सांध्य नीड़ गामी
समूह गान को सुनते हुए
चुप खड़े हो –
वापिस जाओ
अपने बचपन की ओर
आज से तब तक का
अंतराल कुछ भी नहीं
एक ही छलांग में पहुंच जाओगे,
उसी गंदले जोहड़ के किनारे
उसी विशाल वट वृक्ष के नीचे
अपने अधनंगे साथियों के बीच।
याद है तुम्हें?
एक स्वांग मंडली गांव में आई थी
और उस मंडली के चले जाने के बाद
तुम अकेले ही वह मंडली हो गए थे।
गूंजते फिरते थे सारे गांव में।
नई नवेलियां तुम्हें रोक-रोक कर
तुम्हारा गीत सुनती थी –
तुम्हारी कला और तुम्हारा बचपन
कितना जादू बरसाता था
सब पर।
कितने बड़े हो गए हो तुम
अब एक घर चलाते हुए –
एक घर जो तुमसे कभी चला नहीं।
जिस के अतिरिक्त तुम्हें
किसी ने कभी कुछ होने नहीं दिया।
आज तुम्हें स्वयं को देखने का
फिर एक अवसर है।
आज तुम अपनी कंदरा से बाहर आकर
आकाश की ओर देख रहे
हो पक्षियों का गीत सुनते हुए।
हे लघु महा मानव,
आज तुम इस छोटी सी
महा मानवों की भीड़ का
एक नन्हा सा भाग हो एक द्वीप हो –
अनतिक्रमणीय द्वीप।
अपनी संपूर्णता में
इस विश्व के महा समुद्र में
अनाक्रांत तैरता हुआ द्वीप।
अपना स्वर संधानो और
गूंजने दो फिर से –
सिर्फ तुम्हारे नन्हे से गांव को ही नहीं,
बल्कि इस समस्त वायुमंडल को गूंजने दो।
अपने संपूर्ण अस्तित्व का गीत
सुनने दो सब को।
खंड-खंड होकर जीने की विवशता
आज पीछे छूट गयी है।
इस द्वारपाल रक्षित भवन के पीछे
नीचे की तरफ़
उतरती खाई में बनी हुई
कंदराओं के पीछे
सब कुछ पीछे छूट गया है –
तुम हो और
तुम्हारे समक्ष है रक्तिम सूर्य
तथा उसका दर्पण –
ये तीव्र गामी नदी
जिसका कोई नाम नहीं
यह नदी तुम्हारी नदी है।
तुम्हारी पूर्णता के साथ बहती हुई
तुम्हारी नदी।
जीवन के उद्गम से अंत तक
निरंतर बहती हुई नदी
आकाश और पाताल को
एक करती हुई नदी,
अपने किनारे स्वयं बनाती हुई नदी-
जन हिताय सेतुओं के नीचे बहती नदी।
ये तुम्हारी नदी है
सूर्य तो सब का साझा सूर्य है –
लेकिन यह नदी तुम्हारी नदी है।
आज तुम सब थोड़ी
सी संख्या में
तुम सब यहां एकत्रित हुए हो
तुम सब की अपनी-अपनी नदी है।
जो कहीं से आकर,
तुम में से होती हुई
कहीं भी जा रही है
तुम्हारे पूर्ण अस्तित्व के साथ।
 
 
 
 

आज तुम सब अपनी नदी पर सवार होकर
निकल जाओ अपनी-अपनी दिशाओं में
सब कुछ तुम्हारे
साथ होगा तुम्हारा घर बार,
सार संसार
लेकिन ऐसा घर बार
जिस की दीवारें
हवा पानी का विरोध नहीं करेंगी।
जिसके आंगन से होकर,
तुम्हारी नदी बहेगी,
जहां किसी न्याय अन्याय को परखने के लिए
तुम्हें अपने अतिरिक्त
कोई साक्षी नहीं चाहिए,
विश्व संघ नहीं चाहिए।
जहां जीने के लिए
हर वक्त एक मोर्चा-बंदी न करनी पड़े
और जहां किसी भी छोटे-मोटे युद्ध में
भाग लेने के लिए
तुम्हें घर के रोशन दानों से
झांक कर देखना न पड़े
कि बाहर खतरा कितना है
अगर मरण प्रिय हो
तो तुम्हारी नदी
तुम्हारे साथ है ही।
अगर मन करे तो कभी भी,
कहीं भी
अधनंगे और भूखे बच्चों को
लेकर चल पड़ो
दूर किसी देश के
अधनंगे और भूखे बच्चों के साथ
इकट्ठा खेलने या मरने के लिए
और धरती की दरारों में
झांक कर देखने के लिए
कि आज तक की प्रगति
जिसके बारे में वे और
उनके मां-बाप – सुनते हैं
बहुत कुछ
कहीं दूर
नीचे बहुत नीचे
पाताल में तो नहीं।
और अगर कुछ ना दिखे
तो तुम्हारी आवाज में आवाज मिलाकर
कह सकें कि कहीं कुछ नहीं है,
पाखंड है उन सत्ताधारियों का
जिन्हें उन्होंने कभी देखा नहीं
लेकिन जिनके झूठ
से सारा आकाश गूंज रहा है।
सारी धरती के लोग
जिनकी विराटता की ध्वजा थामे-थामे कुबड़ा गए हैं।
तुम सब पूर्ण स्वतंत्र हो
कहीं भी सारे विश्व में –
निरंतर चल रहे
बाहर से थोपे हुए
गृह युद्धों में भाग लेने के लिए।
जहां के लोग
अपने देशों का इतिहास
लिखवा रहे हैं
उन लोगों से
जो उस धरती का रंग, गंध, स्वाद
कुछ भी नहीं जानते।
मध्यस्थ तुम भी नहीं बनोगे
वहां जाकर सिर्फ हर बंदूक धारी से
इतना भर कहोगे
कि चलो उस चट्टान के पीछे
सूखी सी झाड़ी पर
खिले जंगली फूल को
तोड़ कर उसे दो
जो तुम्हारी
प्रतीक्षा में तो नहीं
लेकिन जिसके लिए
तुम्हें देख पाने से बढ़कर
और कुछ भी नहीं।
और उस अर्ध जीवित अस्थि पिंजर को
जो विधिवत तुम्हारा बेटा तो नहीं है –
लेकिन तुम्हारी ही रक्त गंध है उसमें
उसे गोद में उठा कर कहोगे
कि किसी को कभी भी
उसके कंधे पर बंदूक नहीं रखने दोगे।
उसके रस्सी जैसे बालों में
हाथ फिरा कर –
उसे खूब प्यार करोगे।
और फिर अगर आंखें भर आए
तो छिपाओगे नहीं
उसे देखने दोगे
कि उसके लिए भोजन से अधिक
जीवनदायी तुम्हारी गीली आंखें हैं।
तुम्हारी यात्रा के
अनेक पड़ाव होंगे –
थोड़ा सुस्ता कर
फिर चल पड़ने के लिए।
निश्चित केवल मन है,
मंज़िल नहीं
केवल एक बहाव है
अपनी ही दिशा में –
अपनी ही नदी पर सवार
अनंत ही अंत है।

अन्यथा

(खंड 13)

आज तुम्हारी सब की साझी
और अलग-अलग चुनौती है
कि तुम सब जो हो
वास्तव में
वही होना चाहते हो कि नहीं।
आज की सांझ
कल के जिस सूर्य को जन्म देगी
वह कंदराओं के भीतर टिमटिमाने वाला
मद्धिम मद्धिम दीपक जैसा नहीं होगा
जिसकी रोशनी में
सब कुछ मायावी और सुंदर लगता है
लेकिन जिस दीपक के आधार में
जमे हुए अंधेरे से
तुम हर छोटे-मोटे युद्ध के बाद
हताहत होकर लौटते हो
लेकिन लौटते अवश्य हो –
मरते नहीं
कल प्रातः के बाद तुम्हारा
युद्ध सर्वव्यापी होगा
हर घर में, हर मंदिर–गिरजे में
हर शिक्षा संस्थान में
हर कारखाने,
कार्यालय में
जहां मानव और स्वयं उसकी प्रकृति
एक दूसरे को पराजित करने के प्रयास में
चुक जाते हैं।
आज के बाद
तुम्हारा लौटना नहीं होगा
हताहत होकर लौटना
नहीं होगा
तुम्हारी नदी –
तुम्हारा शव
एक विजयी शव
अपने वक्ष पर उछालती हुई
उस महा समुद्र को समर्पित करेगी
जहां अस्तित्व और अनस्तित्व का अंतर
स्वयं समाप्त हो जाता है।
अन्यथा लौट चलो अभी
अपनी इस रक्तिम नदी की तरफ
पीठ फेर कर चल पड़ो
उसी द्वारपाल रक्षित भवन की तरफ़
और उसे निर्भय करते हुए
स्वर्ण मंडित पूजा घरों की तरफ़
और उनके पीछे से होकर जाते हुए
उन सुरक्षित रास्तों की तरफ़
जो कुछ ही देर में
तुम्हारे कंदरा द्वार तक
तुम्हें पहुंचा देंगे
द्वारपाल पत्थर हटाकर
तुम्हें भीतर
आने का निमंत्रण देगा
भीतर का सुखद
झीना झीना अंधेरा
तुम्हें चमत्कृत करे,
इससे पहले ही तुम
अपने घुटनों पर बैठकर
प्रार्थना रत हो जाना कि
हे प्रभु हम सौ साल जीयें।



Silhouette of man fishing on river Stock Photos - Page 1 : Masterfile

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