मुक्त हो कर अकर्मण्य खड़ा हूँ।
एक पर्वत शिखा पर-
जहाँ कोई पगडंडी
किसी आकांक्षा की ओर नहीं ले जाती।
मेरे पाँवों के नीचे है
धुनी हुई चाँदी सी बर्फ़
और चारों तरफ़
हल्के नीले फूल के तरह खिला हुआ आकाश।
बाँहों में बाँधने के लिए
अपने वक्ष के सिवाय कुछ नहीं।
जीवन की सांझ जैसी हल्की
हवा की परतें
किसी देवदार का
एक पत्ता भी नहीं हिलाती
मन की तरह शांत
सिर पर बर्फ लादे खड़े हैं
उदेश्यहीन, विशाल पेड़ और पत्थर।
कुछ भी ऐसा नहीं
जो छलछला कर
बाहर गिर पड़ने को आतुर हो
अपने से अतिरिक्त
कुछ और हो जाने की
वासना से प्रताड़ित हो कर।
ऐसे ही जैसे कोई फूल
रक्तिम हो उठने की आतुरता में
अपनी टहनी पर उगे पत्तों को नोचता नहीं।
अपने सानिध्य से आकर्षित नहीं करता
किसी कांटे को
अपनी कोमल त्वचा बींध जाने के लिए।
एक विशाल कोख़ फैली हुई है चारों तरफ़
प्रजनन में व्यस्त निरंतर।
लेकिन यहां कोई सगे मां जाए नहीं
एक दूसरे की गर्दन पर सवार होने के लिए।
कोई बंधु बांधव नहीं
वैमनस्य का जंगल सुलगाते हुए।
इस समाज में कुछ भी असामाजिक नहीं।
प्रकृति के धर्म में कुछ भी अधार्मिक नहीं।
जन्म और मृत्यु को
एक सूत्र में बांधती हुई वासना
अनैतिक नहीं होने देती किसी कर्म खंड को।
अपनी ही कोख़ से जन्मे हुए को
प्रताड़ित नहीं करती
उर्धवमुखी होकर जीने के दोष पर।
ऐसी ही मन: स्थिति में आंखें ऊपर उठ जाती हैं
दो पर्वत श्रृंखलाओं के बीच सुनहरी किरण जाल!
सफेद बर्फ और श्यामल बादलों के टुकड़े
गदरा कर उलझ जाते हैं एक दूसरे से।
विमूढ़ होकर देखता हूं
इस वेदना हीन परिणय को
इस अनासक्त आवेश हीन महा मिलन को।
और इन मायावी क्षणों का अंत होता है
सूर्य के आलोक में।
स्वच्छ, धवल, उज्ज्वल हो कर
सिहर उठती है
दो पर्वत-श्रृंखलाओं के बीच की रमणीयता।
अनाच्छादित निर्वस्त्र संबंधों
का यह संसार
मेरा रक्तचाप बढ़ाता है
बर्फ पर रखे हुए तलवों में
सोंधी सी गरमाहट दौड़ती है।
मैं अपनी ही ऊर्जा से आतंकित
एक नए देवदार की टहनी झंझोड़ देता हूं।
उसका बर्फ से ढका मस्तक
मेरी अनैतिकता को ढांप देता है –
मेरे शीश और कंधों पर
अपने मस्तक से कुछ बर्फ गिरा कर
चारों तरफ देखता हूं।
कहीं कुछ नहीं
सिर्फ मैं हूं
सिर्फ मैं – आदिम मैं!
खींच कर उतार फेंकता हूं
अपने सब वस्त्र – अपने जीर्ण संस्कार!
रेशमी सफेद बर्फ पर
इधर उधर छिटके हुए वस्त्रों को
निर्मम होकर देखता हूं
और फिर निर्वसन स्वयं को,
अपने से अलग पड़े
मेरी सभ्यता के प्रतीक मुझे सुंदर लगे।
जैसे सफेद चादर पर किसी ने
कई रंगों के फूल उभार दिए हों
एक ही छलांग में
इस उभरे हुए फूलों के
नन्हे से हिमद्वीप को
लांघ कर भाग उठा।
अपने सामने के संकरे रास्ते पर
पिंडलियों तक बर्फ में धंसता हुआ
हांफता हुआ, भागता रहा।
अपनी उर्ध्वगामी ऊर्जा को
भोगता हुआ –
संताप हीन, वेदना हीन भोग
निर्वस्त्र शरीर की
अलौकिक यात्रा
रक्त कणों को प्रकाशित करती
आस्था में परिणित हुई।
किसी बर्फ की फुनगी पर बैठा हुआ
कोई पक्षी उड़ गया
दूर आकाश की मुक्तता में।
हांफता हुआ,
एक शिला पर औंधा होकर लेट गया।
दूर तक
धुंधलाती हुई सफेद बर्फ
और वनस्पति जगत का
गंधाता रोम रोम!
डूबते हुए सूरज के साथ
मेरी चेतना भी डूब रही थी।
इस संसार से
प्रकृति संसार की यात्रा का
प्रथम क्षण अटक गया
कहीं स्मृति तंतु से।
धीरे धीरे शिला पर
औंधाया हुआ मैं
एक शिला हो गया
एक पत्थर पर पड़ा हुआ
दूसरा पत्थर!