भांप लेती थीं उसकी आंखें
आंधी से पहले की स्तब्धता
पत्तों का टूट कर गिरना
पेड़ों में हवाओं की बेचैनी
देख लेती वह उसका
स्मृतियों से काठ होता शरीर
पहुंच जाती वह भी उसके गांव
और शांत मन से प्रतीक्षा करती
कब उठेगा उसका हाथ, छाती पक्की कर लेती
बच्चों के सामने पिटने और गालियां खाने की तपिश
चूल्हे पर रोटीयां डालने तक टिकती
बच्चे कब बड़े होंगे
पिटती हुई टुकर टुकर उन्हें ही देखती
नदी की लहर पर पत्ते सा हिचकोले खाता
शराबी नहीं था वह
लेकिन सुध में भी नहीं था कि चीन्ह सके
पत्नी और बच्चों की तीन पतली रेखाएं
दो बंडी पाजामों में भी बेमना नहीं था
बस वही उसके मन की नहीं थी
उचक उचक कर ठेला खींचता था
ठेला आगे खींचता स्मृति पीछे
खोली में घुसते ही आसमान सिर से हटते ही
रुत बदल जाती रूप कुरूप हो उठता
थाली कटोरी सामने आती
रोटी उठाकर हाथ पर रख लेता
भूख और थाली का रिश्ता ही क्या
सिकुड़ी सिमटी कभी पास बैठी भी तो
गरम तवे पर ठंडे पानी की झन्नाहट और वाष्प
वह क्षण आया ही नहीं
जब आंखें खोले नहीं खुलती
अपनी ही सांस ढूंढे नहीं मिलती
वह भी जा बैठता हर रात स्मृतियों के ताल
जहां दिखते मां, पूरवा, और गांव का छोर
२
स्मृतियां किसी क्रम में नहीं थी
घटनाएं जैसे दो ही थीं
एक गांव में रहने की
दूसरी गांव छोड़ने की
एक झीने टाट से ढकी
मिट्टी के ढेर सी जिंदगी
मजूरी करती मां के पीछे घूमते कब शुरू हुई -याद नहीं
गोहर पर गोहा पाथी बीनते
वह बख्त बीत गया जिसे बचपन कह लो
इतना बड़ा भी नहीं हुआ था कि
शरीर के उतार-चढ़ाव किसी आंख में पानी से चुभें
या पांव में झांझर से बजें
जो अबेर सवेर साथ खेली , बेरी पर चढ़ी कूदी
घुटने कोहनी छिले साथ बढ़ी हुई पुरवा
उपले जैसे मां थापती थी
गोल भूरे चोंच दार
पुरवा के वैसे ही वक्ष पर टिका अपना माथा
और गांव का पोखर
उसी के साथ एक बार देखने की सूरज कहां डूबता है
दूर निकल गए
तो गांव छुड़वा दिया पंचायत ने
धरती धान पाथी पोखर मां और पुरवा
इस बाढ़ में कच्ची मिट्टी से धुल गए
यह कोई वेदना जैसी वेदना नहीं थी
जिसके दर्द से आंखें मूंद जाएं दांत भींच जाएं
बिना लाठी गठरी गांव के छोर पर पहुंचकर लगा था
इस विसर्जन के आगे क्या है
महासमुद्र आकाश या पाताल
या सब कुछ यहीं तक था
गांव के शिवालय में गरुड़ पुराण कई बार सुना था
मां के साथ
३.
सचमुच सब कुछ यहीं तक था
आगे था उसका प्रेत जो ठेला खींचता बीड़ी फूंकता
एक धुंधली शाम खोली में
एक औरत आई और वहीं रह गई
बच्चों का आना औरत के आने से अलग था
लगने लगा था शहर
में भीड़ के इलावा बहुत कुछ है
जो उसे दिखता नहीं
एक बड़ी पंचायत कोर्ट कचहरी दफ्तर
महकमे काम धंधे कारखाने बच्चों के स्कूल
और सपने
इन सब का डर उसे ठेला खींचते बना ही रहता
खटिया पर गिरते ही आसमान
टूटे कांच सा बिखरा हुआ लगता
सब कुछ आड़ा तिरछा दिखता
दिखते दोनों बच्चे
एक सूखे पत्ते पर दो चमकती बूंदे
सूरज निकलते ही उनका सूखना भी उसे दिखता
खाली झोले लिए पढ़ने जाते
जैसे दिहाड़ी पर जा रहे हों
उनके बड़ा होने के भय से
गला सूख कर चुभने लगता
एक रात तारों की तरफ देखते हुए
उठ कर बैठ गया पशु की तरह चौकस
बीड़ी के कश से मन पक्का हुआ
पोखर में तैरते तिनके आखिर कहां जाएंगे
आठ तक पढ़ कर
वही ठेला रिक्शा मजूरी जूठे बर्तन या दरबानी
कल दियासलाई बनाने वालों की पट्टी में
छोड़ आएगा बिटवा और बिटिया को
टाई कमीज पैंट वाले काम का भारी सपना
ठेले पर लादकर नहीं ढोया जा सकता
इस प्रेत जून में सपने कैसे
कृष्ण किशोर