नदी घरबहिष्कृत

बहिष्कृत

बहिष्कृत

   
 
 
 
 बहिष्कृत
 (खंड 9)
  
 मुझे कुछ भी प्रताड़ित नहीं करता
 इन गुफाओं से बाहर
 धकेल दिए जाने से पहले
 मैं यही का वासी था
 मैं भी थोड़ा-थोड़ा जीवित शव था।
 केवल यही विद्रोह इन काली गुफाओं में
 मुझसे हुआ था
 मैं थोड़ा बहुत जीवित था।
 पूर्ण मृत क्यों नहीं हूं?
 इन्हीं के कंदराज्ञान से अंधा क्यों नहीं हूं?
 इस अपराध पर इन गुफाधिकारियों ने
 गर्दन पकड़ कर निकाल दिया था मुझे
 फेंक दिया था खुले आसमान के नीचे 
 धकेल दिया था जंगल की तरफ। 
 इसके बाद आकर्षण जगा
 आकाश की तरफ मुंह उठाकर
 सितारों से बतियाने का
 किसी भी पेड़ से पीठ टिका कर
 पत्थरों के चिकने वक्ष सहलाने का,
 उन्हें गीत सुनाने का
 उनकी छाती पर सर रखकर सो जाने का। 
 सब की वासनाओं को स्वीकार करने का
 घास फूस की तरह
 सब को समर्पित हो जाने का। 
 चढ़ते सूरज की तरह
 सुख से गुलाबी हो जाने का
 अहसास जागा तभी से
 और तभी से जाना कि
 मेरी उदासी – पानियों में डूबते
 तांबई सूरज जैसी क्यों है।
 लेकिन इसी तांबई उदासी से,
 इसी गुलाबी सुख से मैंने जाना
 कि मेरे चारों ओर फ़ैली हुई
 सीलन भरी गुफाएं
 एक विशाल प्रश्न चिन्ह है
 मेरी आज़ादी के सामने लटके हुए,
 खुले आसमान के नीचे आकर
 जीने की सार्थकता को निरर्थक करते हुए। 
 मुझे अपनी आज़ादी
 क्या पेड़ों के साथ, चिकने पत्थरों के साथ
 चांद सितारों के साथ भोगनी है?
 बांटनी है?
 मैं अपनी आज़ादी, अकेले मानव का ऐश्वर्य
 अपनी झोली में भर कर बैठा रहूंगा
 किसी नदी के किनारे तमाम उम्र
 या उससे पहले ही कोई सैलाब आएगा
 और बहा ले जाएगा,
 मेरी झोली में दुबके ऐश्वर्य-सर्प को
 शायद यही कारण है कि
 अब बहुत दिनों से तारे मुझसे बोलते नहीं। 
 पेड़ पौधे मुंह फेर खड़े हो गए हैं
 पत्थरों के चिकने वक्ष पर कांटे उग आए हैं
 मेरे भीतर कोई प्रदेश नहीं जहां
 झिलमिलाती आकाश गंगा
 उतरकर समाहित हो सके। 
 कोई रास्ता नहीं जिस पर चलते हुए मैं
 अपने महा विलय बिंदु तक पहुंच सकूं।
 एक नए प्रकार का भय मुझे ग्रस रहा है
 शायद जंगल में अकेले होने का भय
 कितनी जल्दी बुझ गया ऐश्वर्य जनित विद्रोह
 कितनी जल्दी चुक गई
 सितारों से बतियाने की हवस
 मुड़कर देखता हूं
 उन्हीं अंधेरी गुफाओं की तरफ़
 और उनके भीतर देवताओं से प्रार्थना रत
 सौ साल जीने की भीख मांगते हुए
 कायरों की तरफ़
 उन्हीं कायरों की तरफ़
 जिनके साथ मुझे अपनी आजादी बांटनी है
 उन्हीं गुफाओं की तरफ़ –
 जिनकी पथरीली पीठों में
 सुराख करने हैं मुझे
 शिला वक्ष भेदने हैं जिनके
 और देखता हूं उन कन्दराधिकारियों को
 ये कितने कायर हैं, ये मुझसे लड़े नहीं 
 बस मुझे जीवित समझ कर
 अपनी गुफाओं से बाहर फेंक दिया था
 मेरे स्पर्श से और शव जी उठे शायद!
 इन्हें पता है
 जीवन कितनी जल्दी फैलने वाला रोग है 
 हवा का एक झोंका ही बहुत है
 एक जोड़ा पक्षियों की फड़फड़ाहट
 या पत्थरों पर उछलती हुई पानी की धार
 बस काफ़ी है
 इन्हें पता है –
 सूरज की एक किरण भी
 घातक हो सकती है
 किसी भी शिला के उदर में
 एक नन्हा सा छिद्र,
 वायु और प्रकाश का षड्यंत्र।
 जो ज़रा भी मुक्त है
 उसे पूरा मुक्त करना होगा – ये जानते हैं 
 उसे बहिष्कृत करना होगा
 पूर्ण मुक्त – पूर्ण बहिष्कृत!
 अकेला होकर जीने के लिए पूर्ण मुक्त!
 मुझे भी ऐसे ही मुक्त किया था इन्होंने
 मैं जानता हूं, 
मुझे फिर से भीतर जाना है –
इन गुफाओं में अकेले-अकेले ही सही लेकिन मुक्त करना है सब को। आकाशोन्मुख होकर सोचता हूं इन कायरों से जूझना नहीं है मुझे केवल उजागर होना है इन पर नन्ही सी प्रकाश किरण की तरह छूना है इनकी शिराओं को एक हल्की सी हवा की लकीर से एक नन्हा सा छिद्र बनाना है इनकी किसी भी शिला के उदर में इनकी कंदरांओं में फ़िर से प्रवेश करने के लिए इन्हें थोड़ा सा आक्रांत करने के लिए जीवन का इतना ही स्पर्श काफ़ी है।  
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