अशोक के समय तक यानी बुद्घ के चार सौ साल बाद ब्राह्मणीय कर्मकाण्ड और प्रभुत्व बहुत ढीला पड़ता जा रहा था। मनुस्मृति में प्रतिपादित कड़ी व्यवस्था की ज़रूरत उस समय के धर्म प्रमुखों को महसूस हुई। मनुस्मृति की रचना, वर्णव्यवस्था का कड़ा विधान, धीरे धीरे शूद्रों के लिए अस्पृश्यता में बदलता चला गया। लेकिन यह निश्चित है कि यह एकदम, एक ही समय में, किसी राजाज्ञा जैसी चीज द्वारा घटित होने वाली घटना नहीं रही। एक ही ग्रन्थ से लिखे जाने के तुरन्त बाद यह सामाजिक परिवर्तन हो गया हो, ऐसा भी संभव नहीं लगता। एक भयानक वैमनस्य, कट्टरता, घृणा, ग्लानि समाज के एक हिस्से में प्रतिपादित होकर ब्राह्मण समुदाय द्वारा प्रचारित-प्रसारित होकर राजाओं की छत्र-छाया में धीरे धीरे स्थापित हुई। ब्राह्मणवाद को और कड़ा होने का स्वर्ण अवसर मिल गया जब ग्यारहवीं सदी तक आते आते मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इस देश के धर्म को विशेष रूप से निशाना बनाया। धर्म की रक्षा एक बड़ा प्रश्न बन गया। धर्म में जो कुछ भी है, उस की रक्षा। रीति रिवाज़ों की रक्षा। सामन्ती निज़ाम, राजाओं-रजवाड़ों का ईश्वरीय स्वरूप, उनकी प्रजा के लिए बेखबरी और मदमस्तता ने धार्मिक शक्तियों को अपनी मनमानी करने की खुली छूट भी दी। पूरी क्रूरता के साथ शक्तिसम्पन्न लोगों ने शक्तिहीनों का शोषण दमन किया। हमारे शूद्रों से अधिक शक्तिहीन दूसरा कौन? बड़े पैमाने पर शूद्र अस्पृश्य बना दिए गए। जितनी अस्पृश्यता, उतनी अधिक ब्राह्मणी पवित्रता। अपनी पवित्रता को प्रदर्शित करने का साधन बन गई अस्पृश्यता। शरीर छूने से अपवित्र हो जाने में जब कोई प्रर्दशनकारी महत्व नज़र नहीं आया तो छाया के छू जाने से भी अपवित्र होने का विधान रचा गया।
पवित्रता की एक मात्र कसौटी बन गई अस्पृश्यता। इसी का तरह तरह की क्रूरताओं में विकास होता गया। हवा, पानी, मिट्टी सब कुछ अपवित्र हो जाता था। सभी लोगों को जिन कामों की हर रोज ज़रूर पड़ती है लेकिन स्वयं कर सकना कठिन है, वे काम अस्पृश्यता के हिस्से में आते चले गए।
मलमूत्र साफ करना, मृत ढोरों-जानवरों को ठिकाने लगाना, उन का चमड़ा उतारना इत्यादि अत्यन्त अस्पृश्य, बाकी दूसरे कुछ काम कम अस्पृश्य। सो, अस्प, श्यता के भी स्तर बनते चले गए। इन्सान इन्सानों से अलग होते चले गए। गांवों बस्तियों से बाहर होते चले गए। तालाबों, पोखरों, कुंओं, नदियों से अलग होते चले गए। पेड़ों, पौधों, छायाओं तक से अलग कर दिए गए। अस्पृश्यता की कोई सीमा नहीं रही। उधर पवित्रता की कोई सीमा नहीं रही।
पहली बार इन्सानी इतिहास में, धरती पर कहीं भी, इन्सानों को इस तरह अलग किया गया, इस तरह छोटा किया गया, अपमानित किया गया, किसी भी गिनती से बाहर कर दिया गया। पूरी तरह आत्महीन होकर, शरीर को कमान की तरह दोहरा झुका कर, स्मृतिहीनता और शरीरहीनता की स्थिति में आकर कम से कम डेढ़ हज़ार वर्ष बने रहने का दूसरा उदाहरण धरती के किसी और हिस्से में नहीं मिलता।
हालांकि कोरिया, जापान, बर्मा, थाईलैण्ड में भी अस्पृश्यता के क्रूर उदाहरण मिलते हैं। लेकिन इतनी लम्बी देर और इतनी घनी और सारे अस्तित्व को विषाक्त करती हुई अस्पृश्यता शायद वह नहीं थी। फिर भी, उन पर क्रूरता और अन्याय के वर्णन भी अपनी असह्यता में कम द्रवित करने वाले नहीं हैं। वेकजियॉन, कोरिया में और बुराकुमीन, जापान में पेशों से वही काम करते थे, रहते भी बस्तियों के बाहर थे और उसी तरह उच्च जातियों के समक्ष झुकी कमर, प्रणामी वंदना सरीखा अभिवादन, रास्ता छोड़ कर नीचे कच्चे में उतर जाना, जुल्म सहना, काफी कुछ वैसा ही था जैसा हमारे यहां था। बौद्घ धर्म अपनी गहनता के समय में भी इन कुरीतियों को प्रश्रय दिए रहा। वैसे भी बुद्घ धर्म हर स्थान पर परिवर्तित स्वरूप में मौजूद रहा। कोरिया इत्यादि में मांसाहार बौद्घ वर्जनाओं के बावजूद भी प्रचलित था।
भारत में अस्पृश्यता की स्थिति मुस्लिम आक्रमणों से सदियों पहले ही पक्की हो चुकी थी। लेकिन उस के बाद मुगल शासकों ने इन कमजोर वर्गों के ब्राह्मणीय/धार्मिक शोषण के खिलाफ कुछ नहीं किया। धर्म परिवर्तन एक मात्र रास्ता था उस स्थिति से बाहर आने का जिसे मुगलों के कारिन्दों ने खूब प्रोत्साहित किया। मुगल काल के कुछ साधु सन्तों ने धर्म की कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। लेकिन हिन्दू-मुसलमानों की आपसी साम्प्रदायिक ईष्या-घृणा और धर्मों की आंतरिक संकीर्णता के नर्क को उन की आवाज़ कहां तक धोती। अंग्रेजी उपनिवेशकों का अपना तरीका रहा। उनकी कूटनीति एक तो यही रही कि बांटो और राज करो। दूसरी यह कि समाज की कमज़ोरियों पर इतनी उंगली मत रखो कि लेने के देने पड़ जाएं। थोड़ी बहुत उदारता, सहृदयता से काम चल जाता है। वरना कानून बनाए जा सकते थे, उनका सख्ती से पालन किया जा सकता था। अंग्रेज़ों ने वहीं थोड़ी उदारता दिखाई, जहां हमारे समाज के कुछ दूरदर्शी लोगों ने कड़े विरोधों के बाद भी अपने प्रयत्न जारी रखे।
इतनी पुरानी व्याधि को शुद्घिवादी या सुधारवादी आत्मशक्ति या आत्मशुद्घि से दूर नहीं किया जा सकता। यह बात वे साफ साफ देखते थे। सारे भारतीय समाज की आत्मशुद्घि बड़ा सीमित तरीका है दलितों की सभी समस्याओं से टकराने का। उन की अवमाननाओं, अपमानों को दूर करने का और उन के सामान्य नागरिक अधिकारों के साथ साथ उन्हें कुछ विशेष अवसर दिलाए जाने का। लेकिन एक बात स्पष्ट है, उन दोनों के संघर्ष के तरीके अलग अलग भले ही हों, एक दूसरे के विरोधी तो नहीं ही थे। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात इस विरोधी परिदृश्य की यह रही कि – हमारे गांधी, तुम्हारे आम्बेडकर – जैसी बालहठ वाली स्थिति बनी, जिसे आज तक भी दूर नहीं किया जा सका।
समन्वय और सामंजस्य कोई कमज़ोर समझौता नहीं होता, बल्कि वह ज़्यादा शक्तिशाली विचार बन कर इस व्यापक लड़ाई के खिलाफ सांझा मोर्चा बन सकता है। आज हम इस समस्या के बड़े नाजुक मोड़ पर आए हुए हैं। भारतीय प्रजातांत्रिक समाज की अपनी राजनीतिक सीमाएं हैं। जहां बहुमत ही सभी निर्णयों का आधार बनता हो, वहां कई ऐसे अन्याय बने रहते हैं जिन्हें सिर्फ बहुमत के आधार पर दूर नहीं किया जा सकता। बहुमत केवल अधिक संख्यकों के पक्ष में ही हर बात होने की काफी गुंजायश छोड़ देता है। बिना लड़ाई के अल्पसंख्यक लोगों को अपने अधिकार मिलने मुश्किल हो जाते हैं। हमारे सारे ज्ञान, विज्ञान धर्मों, दर्शनों, नीतियोंविचार प्रणालियों ने अभी भी इन्सान की भीतरी दुनिया को इतना प्रकाशित नहीं किया है कि वे अपनी संख्या और शक्ति को बिना देखे सिर्फ न्याय की बात सोचें। उदारता में कमज़ोरों के लिए कुछ करने में तुष्टि का गर्व अधिक है, न्याय कम। इस लिए उदारता का दंभी स्वरूप कभी कोई समस्या हल नहीं करता। केवल न्याय और उस का सख्ती से पालन ही एक राजनीतिक तरीका हो सकता है किसी समस्या को हल करने का। कई बार न्याय सिर्फ आज के जुल्मों के खिलाफ ही नहीं काम करता। पचास साल पहले के कुकृत्य की सज़ा भी आज के न्याय में शामिल है। पूरे व्यक्ति ने एक कमज़ोर समाज पर यानी एक कमज़ोर व्यक्ति पर लगातार जुल्म किये, तो क्या उसे बहुत पुरानी बात कह कर विस्मृत कर दिया जाए? उस से जो लगातार क्षति हुई है, उसे भी पूरा करना होगा। किस तरह पूरा करना होगा, उसे केवल एक न्याय प्रणाली ही सुझा सकती है। इस बात को सिर्फ बहुसंख्यक समाज या राजनीतिक रूप से अधिक शक्तिशाली वर्ग अपने बनाए तरीकों से हल नहीं कर सकते अगर उन में न्याय बुद्घि नहीं है। आज हमें उदारता की दया नहीं चाहिए, न्याय का कठोर विधान चाहिए, चाहे उसे जैसे भी लागू करना पड़े।
समान अवसरों की बात तभी की जा सकती है जब सभी वर्गों की स्थिति समान हो। असमान स्थिति वाले वर्गों में केवल समान अवसरों की बात न्यायसंगत नहीं है। स्थितियां समान बनने तक, कुछ असमान वर्गों को अधिक सुविधाएं देनी ही पड़ेंगी। इस के साथ साथ, स्थितियों को समान बनाने के उपाय भी जारी रखने पड़ेंगे। यह भी ध्यान रखने की बात है कि समानता और असमानता केवल आर्थिक ही नहीं होती। एक वर्ग में किसी की आर्थिक स्थिति बदलने में पांच वर्ष लग सकते हैं तो किसी दूसरे वर्ग में जिस का पूरा ढांचा ही कमज़ोर हो, वहां उसी स्थिति को दस वर्ष भी लग सकते हैं। और फिर समान अवसरों की बात भी बिल्कुल खोखली है। सभी बच्चे स्कूल जाकर पढ़ लिख सकते हैं कहने मात्र से समान अवसर नहीं मिल जाते। खाली हाथ स्कूल जाना और भरे बस्ते के साथ स्कूल जाना समान अवसर नहीं है। अलग अलग तरह के स्कूलों में जा सकने की समर्थता और असमर्थता भी समान अवसर नहीं है। स्कूल में बच्चों के साथ अलग अलग व्यवहार भी समान अवसर नहीं है। शुरू से ही, कहीं भी समान अवसर नहीं । सारा समाज मिल कर अगर सभी को समान अवसर दे सके तो इस से अच्छी और कोई बात नहीं – लेकिन समान अवसर एक झूठ की तरह ज़बान पर आता है जिसे बोलने वाला भी जानता है कि यह झूठ है और सुनने वाला भी बेबस होकर सोचता है कि एक शक्तिशाली के झूठ का मैं कैसे उत्तर दूं, कैसे सामना करूं?
तो पहली बात यही है कि समान अवसरों की वास्तविक और सच्ची स्थितियां पैदा करो। दूसरी बात यह कि समान अवसरों की पूरी उपयोगिता भी तभी होगी जब यह पिछली कमी किसी हद तक पूरी हो जाएगी।