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यात्रा – भाग ३ — कृष्ण किशोर

यात्रा – भाग ३ — कृष्ण किशोर

 

तुम्हारा नाम तो सावन है 

पता चल गया चट्टान के मुंह से

तुम्हारा सारा अतीत इतिहास के पन्नों जैसा नहीं

जो उलट पलट कर देख लो।

इतिहास के पन्ने कितना सच बोलते हैं,

सभी को पता है जो अतीत वासी हैं या त्रिकालदर्शी।

 इस पेड़ से बाहर निकलने का मन हो,

फिर से सावन हो जाने की उमड़ हो भीतर

तो उठो, इस अंतराल से बाहर आओ

जो भीतर जम सा गया है

किसी स्मृति की तरह नहीं

धुंधलका  सा बनकर जम गया है

अस्तित्व की सिलवटों में।

उठो आओ एक धूप की तलाश में

जहां स्मृति और विस्मृति

मानस के अनायास खुलते

 द्वीप में एक संगम की तरह विकल होकर एक रुप हो जाती है,

और उन्मुक्त बह निकलना

ऐसा मुखर हो उठता है

पीछे जो था ,

जो दूर तक दिखे अपना ही आकाशी विस्तार

और उसमें झकोरे खाती

नन्ही नन्ही नावों की कतार

हमारी स्मृतियों, विस्मृतियों की अनुकृतियां

जो बहती रहेंगी, एक आभास की तरह।

लेकिन हम किसी नाव में सवार नहीं है।

केवल एक ही यात्री मन से देख रहे हैं इधर उधर

और एक दूसरे को।

एक संभावना का वृत  उभर रहा है आकाश में

सूर्योदय से पहले के धुंधलके जैसा।

मैं और तुम उसी की दो कड़ियां

एक दूसरे के समीप लेकिन अलग

शायद किसी सांझ से जुड़ जाएं

परिचय की सांझ से।

इस पेड़ से और मन से

एक साथ बाहर निकलो

उन चट्टानों तक चलो जो तुम्हें सावन कहकर पुकारती हैं।

मैं उन्हीं के पथरीले अधरों से सुनूं

तुम्हारे पेड़ हो जाने की कथा

वहीं किसी एक चट्टान से लिपट कर

मेरा परिचय गीत भी फूट पड़े शायद

और नदी से आती हुई हवाएं

निश्चित कर सकें हमारी दिशा

एक साथ लंबी या संक्षिप्त यात्रा का आह्वान हम सुन सके बेआवाज।

चारों तरफ फैला हुआ अनसुना सुन सकें

अनदिखा देख सकें

सिर्फ रास्ते हों, मंजिले नहीं

चलते हुए लड़ते हुए जहां लड़ना हो

 मरते चलें जहां मरना हो

संघर्ष कहीं भी नहीं, प्रयास भी नहीं

अदृश्य रहकर ही शायद उजागर हो सकें

उन सब  स्थितियों पर

जिन्होंने तुम्हें पेड़ में बदल दिया अचल

और मुझे अनमना कर दिया

रिक्त कर दिया भीतर बाहर से

जहां कभी कुछ नहीं घटता

आस निरास, सुख दुख

तुम्हारी जड़ता और मेरी रिक्तता

शक्ति देंगी हमें उस यात्रा में

जिसका आभास मुझे है, तुम्हें

तुम पेड़ से बाहर आओ

मैं मन से बाहर आता हूं

उन्हीं चट्टानों के बीच बैठकर

अपनी अपनी कथा बांटते हैं

कोई सांझ अगर हो जाए हमारे बीच

तो अबोले होकर उठ खड़े हों।

 मेरे बोलने और उसके सुनने का सेतु

एकदम दरक गया सिर्फ एक आहट से

एक आहट उसके पेड़ से निकलने की

मुझे देखते हुए उसका उठ खड़ा होना

मौसम बदल जाने जैसा लगा

सारी बर्फ एकदम पिघल जाने जैसा लगा

रातोंरात पेड़ों के पत्तों से भर जाने जैसा

नदी का उछल कर

किनारों की चट्टानों से लिपट जाने जैसा

वस्त्रों से बाहर आकर

पूर्ण समर्पण जैसा

मौन जैसे था ही नहीं

मेरा हाथ थाम कर बोला

थोड़ी ही दूर है ,एक बड़ी चट्टान

उसी की तरह स्थिर होकर 

कह सुन लें जो कभी था

एक दीवार में छोटे से छिद्र से

जितना देखा जाना जा सकता है

उसी को सोचते हुए

दो लकीरों की तरह साथ साथ चलते 

पहुंच कर बैठ गए

जहां पीछे मुड़कर देखने से ही

अपनी तरफ आता हुआ सभी कुछ

देखा जा सकता था

दो साफसुथरी चट्टानों 

के बीच की रिक्तता  में

सब कुछ बाहर बह निकलने के लिए

इतना उपयुक्त खालीपन कहां मिलता।

 To be continued..

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