कुछ देर मौन और स्थिर रहे
वह मौन मुझे सुन रहा था
एक अंधड़ के आने से पहले का सन्नाटा
जैसे सुना जा सकता है
मैं उसे देख रहा था, वह मुझे नहीं।
अचानक पत्थर पर टिका हुआ सिर उठा
शरीर ने करवट बदली
एक बेचैन सी मुद्रा में घुटने धरती में गड़ा
कंटीले मन से बोलना शुरू किया
मैंने उसके असंयत से प्रवाह के रास्ते में
अपनी आवाज के छोटे-छोटे सेतुयों से
उस प्रवाह को संयत करने का प्रयास सा किया
लेकिन मेरा उद्यम उसके निर्मम प्रभाव में टिका नहीं
मैं भी उकडूं बैठ गया
एक डरे हुए जानवर जैसा चौकस
उसके शब्दों का आक्रोश मुझे बींध नहीं रहा था
उत्तेजित कर रहा था
सब कुछ नष्ट करके सब कुछ पाने वाले
प्रगति के भेड़िए कहां छिप जाते हैं
संहार के बाद
खुली सड़कों पर क्यों नहीं घूमते गर्दन उठाकर
मेरी तरफ पहली बार देखा उसने
उनके हाथों ,दांतों, पैरों से नष्ट हुई सृष्टि से
कोई प्रेत उठकर दबोच ले उन्हें शायद
यह डर भी उन्हें नहीं
वे व्यवस्था की दुर्ग दीवारों के भीतर
सुरक्षित थे तब भी , अब भी हैं
कुछ भी अनैतिक दिखने सुनने जैसा
उनके हाथों नहीं हुआ
विधि-विधान का पूर्ण कवच है
उनकी पीठ और छाती पर
क्रूरताओं का रूप
उस पत्थर जैसा होता है क्या
जो पहाड़ से लुड़का
और कई शरीर कुचल गया
पत्थर का दोष कैसा
पत्थर लुढ़कते रहेंगे
दोषी कोई नहीं होगा
अदृश्य बनी रहेगी यह नृप स्थिति
अदृश्य बना रहेगा
मृत्यु और हवा का अंतर।
अपने बदन से ज्यादा भारी बोझ के नीचे
कोई होगा ढेर किसी पुल तले
या बदन नुचवा कर किसी गन्ने के खेत में
पड़ी रहेगी कोई देह देर तक
या अपने ही खेत की मिट्टी की तरह
बिना बीज पानी के हो जाएगा बंजर
पूरा परिवार साहूकारी दीमक से
इस हिंसा में दोषी वही है जो मरा
पथरीली धरती पर
उकडू बैठा हुआ मैं
आतंकित हो उठा उसके आवेश से
वह कहीं न देख कर भी
सब कुछ देख रहा था जैसे
उसकी आवाज एक तीखे अस्त्र की तरह
हवा में लहरा रही थी
उस हिंसा की चपेट में सब कुछ था
मैं आसपास के झाड़ झंखाड़
और वह स्वयं
पत्थर लुढ़कने की प्रतीक्षा किए बगैर
मैंने उठकर पीछे से उसके कंधों को
अपने श्वास की गर्मी से सहलाया
कुछ क्षण बाद उसे छूते हुए कहा
अपने यातना शिखर तक चलो मेरे साथ
जहां से तुम्हारा यात्रा पथ
मैं इसी तरह देख सकूं
जैसे तुम्हें देख रहा हूं
जिस पर कुछ दूर चल भी सकूं मन के पांवों से
तुम्हारे पथरीले अंतस की
कठोरता से टकरा भी सकूं
उस पीड़ा की त्वचा को छू सकूं
जिससे तुम्हारा भीतर बाहर
अतीत की तरह वेगहीन हो गया।
5.
यात्रा पथ इतना ही संक्षिप्त है
जितना मेरे और तुम्हारे बीच का अंतर
यातना शिखर सिर पर सधे बोझ जैसा ही है
बांचने ,बताने योग्य कोई कथा नहीं
होने और न होने में अंतर ही कितना है।
मैं ,मां और बाबा
इंधन पानी की तरह ही
कभी होने
कभी न होने जैसे तरल, सरल थे
डेढ़ बीघा जमीन जैसा ही जीवन था
मां और बाबा का
खेत की मिट्टी जैसा रंग रूप, भेस
अपने और दूसरों के खेतों में मजूरी उनकी आंखों और देह में
चूल्हे की आग सी लपकती थी।
किसी जूते चप्पल ने कभी
उनके पैर नहीं छुए
मिट्टी के दो खुले बर्तनों में रखे
उनके कपड़ों ने कभी मुंह नहीं छुपाया एक चूल्हा और तीन बर्तन
कोठरी की दीवार से सटे सुरक्षित थे बारिश का पानी कुछ भिगो जाए
एक नीली लकीर जैसा दिखता था आकाश, सिर के ऊपर का
इतना प्रकाश काफी था ,उनके जीवित होने का प्रमाण।
वैसे भी दिनभर कस्सी कुदाली और टोकरी
गर्मी सर्दी कहां रोकती उन अधनंगों की
मैं तब था भी, और नहीं भी
एक पेड़ याद है तालाब के किनारे
चल फिर सकने से पहले तक
उसकी दूर तक फैली जड़ों से खेलता
बीच में मां कभी आती, कुछ दे जाती।
सभी को रोज मजूरी कहां मिलती थी,
ऐसे ही किसी दिन मां साथ होती
पेड़ की जड़ों से उखाड़ कर मुझे साथ रखती
कुछ बड़ा होने पर दिखा
मां का चेहरा धोए बर्तन जैसा नहीं चमकता
तिड़की हांडी जैसी मटियाली सी मां
मुझे बहुत अच्छी लगती, धरती जैसी।
और कुछ बड़ा होने पर दिखा
गांव में जीवन था ही कितना
बचपन था या बुढ़ापा
बीच की स्थिति निष्कासित थी
युवा होना अपराधी होने जैसा था
कमर सीधी होना विश्वासघात हो जैसे
विधाताओं के प्रति
तालाब में घड़ा भिगोते समय औरतें मुंह फेर लेती
दूसरी तरफ
अपनी छवि देखने से डरती थी
एक प्रेत छवि जो सारा दिन
उन्हें डराएगी
बच्चे थे जो पानी में कूदते
मेंढक पकड़ते ,कछुओं से खेलते
भूख प्यास का कोई रंग रूप आकार नहीं
जो किसी को दिखे पता चले
मां बाप ही खाने को कुछ दें-
बच्चों का मन ऐसा कभी बना ही नहीं
चारों तरफ बिखरे झाड़ खंखाड़
पर उगा
सभी कुछ अगर भेड़ बकरियों का है
तो उनका भी है
भोजन जैसी विशिष्ट वस्तु बारे वही सोचें जो विधि-विधान पूर्वक इंसान हैं
पानी में उमंग भरी छलांग
गिलहरी की तरह पेड़ की सवारी
और हर तरफ फैली खाद्य सामग्री
पूरी तरह विकृत होने से बचाए रखती है,
विधिवत इंसान होने से बचाए रखती है।
इनकी खुशी तब तक सुरक्षित है
जब तक ये थोड़े शरीर से बड़े नहीं हो जाते
बोझ ढोने मजूरी करने
लायक नहीं हो जाते
भूखा रहने लायक नहीं हो जाते
युवा होकर स्वप्न देखने जैसी
अनहोनी से ये सब बचे रहते हैं
प्रकृति का वरदहस्त इन्हें निर्विघ्न
बचपन से सीधे बुढ़ापे की आश्वस्तता प्रदान करता है
युवा होने के संघर्षों से मुक्त रखता है
मौसमों के बदरंगी अनर्थ से बचाए रखता है
शरीर की अगन को देर तक ताप सकें
इतना इंधन कहां से बटोरें
बुझना भड़कना साथ चलते हैं जैसी भूख प्यास
किसी का हाथ हाथ में लेकर बतिया सकें
दूसरे हाथ में टोकरी थामें
कुछ देर साथ चलें या बैठ लें किसी पत्थर पर
ऐसा इंद्रधनुषी आकाश कभी खिलता है
तो सूरज निकलने में भी देर नहीं लगती
बुलावा आ जाता है
किसी पेड़ की जड़ पर कुल्हाड़ी चलाने का
उसी हाथ से माथे का पसीना पोंछने का
समय के कुछ टुकड़े मिलकर
कोई स्मृति की कोई कड़ी नहीं बनते अनुभव की धरती नहीं रचते
मन खुला पड़ा रहता है
खाली बर्तन जैसा
उसमें झांक कर देखने जैसा कुछ नहीं। To be continued