alsoreadकविताविचार

यात्रा-1

यात्रा-1

यात्रा-1

निस्पंद और आहत होने के लिए

एक विशेष दिन चुना था क्या उसने

या बस यूं ही दमकते सूरज से गरमाए आकाश की तरफ देखते हुए

घर से निकलना

और सांझ ढले वापस न आना

निर्जन में खड़े पेड़ के एक हिस्से जैसा कर गया था उसे

एक पेड़ जिस का आखिरी पत्ता

कुछ देर पहले ही टूट कर गिरा हो पतझर  में

या फिर जैसे पेड़ का सूखा तना एक वस्त्र की तरह

पहन लिया हो उसने

दूर से देखा तो यही लगा था

पास जाकर देखा

तो पेड़ में इंसान की आकृति जैसा उभरा कुछ लगा

निश्चल आकृति- छूकर देखा

मांस मज्जा की पूर्ण उभरी हुई आकृति! छूने पर भरपूर निर्मल आंखें खुली

इतनी धीरे जैसे शिला द्वार खुलते हैं

भीतर आने का निमंत्रण देते हुए

दो जीवित इंसानों का इतने पास होकर इतनी देर मौन बने रहना

हवा के बिल्कुल रुक जाने जैसा लगा कभी-कभी होता है जैसे

उमस भरे दिन बारिश के बाद

लेकिन हवा का ज्यादा देर रुके रहना आतंक जैसा  सरसराता है शिराओं में

मेरे मुंह से कोई भी  अस्फुट सी  ध्वनि उस तक पहुंची या नहीं

लेकिन मुझे लगा

कुछ अस्थिर, कुछ बेचैन घटा है

मेरे आस-पास ।

कुछ पहुंचा है मुझ तक

मुझे छूता हुआ

क्यों नहीं देख पाया मैं

उसका वह अशरीरी सा मेरी ओर बढ़ता हुआ हाथ

पेड़ की मुरझाई टहनी जैसा नहीं था वह स्पर्श

शिराओं में बहते रक्त की तरह

जीवनदाई था उसका मेरी त्वचा से संपर्क

मैं शांत खड़ा रहा उस स्पर्श को

अपने भीतर सहेजता

जैसे प्रात के सूर्य को आत्मसात करता

किस अंधकार से जन्मा उसका यह गुलाबी स्पर्श

और किस वेदना ने कर दिया

उसे एक पेड़ की तरह अचल

पतझरी पेड़ की तरह निराश

लेकिन आश्वस्त करता

उसका स्पर्श एक संदेश की तरह

छू  गया था मुझे

नई कोंपलें फूटने में  ज्यादा देर नहीं  ऐसा एहसास भीतर उगा था मेरे।

N/A