जो अभी प्रजनन में भाग लेने के लिए शारीरिक रूप से तैयार नहीं हुआ,ऐसे छोटे बच्चे के साथ यौन क्रिया कर सकने वाला जानवर सिर्फ इन्सान ही है। पशुओं,पक्षियों,कीड़ों-मकौड़ों के यौनाचारों की श्रृंखला में किसी स्तर पर जीवन इतना कामुक और हन्ता नहीं होता कि प्राकृतिक रूप से असमर्थ स्त्री बालक या पुरुष बालक को यौन प्रक्रिया में शामिल करे,बाधित करे,उत्पीड़ित करे,शोषित करे। इस शारीरिक क्रूरता और दंभ को हम सब से अधिक अपनी यौन निरंकुशता में घटित होते हुए देखते हैं। प्रकृति में जितनी भी यौन संसर्ग की विधाएं-प्रथाएं या क्रियाएं हैं,सभी लगभग मानव समाज,पशु-पक्षी या कीट पतंगों में किसी न किसी स्तर पर सांझ रखती हैं। अलग-अलग विकास चरणों और स्तरों पर,जिस तरह से विभिन्न यौन क्रिया-स्वरूप या संभावनाएं सभी जगह,सारे जगत में हर समय मौजूद रही हैं,वैज्ञानिकों को आश्चर्य चकित करती हैं। समूहगत एकल यौन सहवास (Social Monogamy) या केवल एक के साथ ही सहवास (Social Monogamy) या एक से अधिक नरों का कई मादाओं के साथ सहवास ( Polygamy) एक मादा का कई नरों से सहवास तथा एक समूह में किसी का किसी के साथ भी सहवास (Promiscuity) इत्यादि विस्तृत रूप में जीवन के सभी स्वरूपों (पशु-पक्षियों,कीट पतंगों,जलचरों) में देखा गया है। स्वमैथुन की प्रक्रिया भी जानवरों,पशु पक्षियों में देखी गई है। वैज्ञानिकों ने कई जानवरों को दूसरे जानवरों का बलात्कार करते भी देखा है। एक विशेष डालफिन (Dolphin) और बतख़ों में मादाओं का बलात्कार होते देखा गया है। दक्षिण अफ्रीका के जंगल में युवा हाथियों ने बहुत से गेंडों को बलात्कार करके मार डाला। चार्ल्स सीबर्ट ने यह रिपोर्ट न्यूयार्क टाईम्स में प्रकाशित की थी। लेकिन एक बात जो प्रकृति में कहीं दिखाई नहीं देती,वह है -अपनी ही जाति के बच्चों के साथ बलात्कार या किसी भी प्रकार का यौनाचार। इन्सान ने इस विषय में प्रकृति के सभी नियमों का निर्मम उल्लंघन किया है। सिर्फ वीज़ल (Weasel) एक छोटा सा जानवर है जो अपने अंखमुंदे नन्हों के साथ यौनक्रिया कर लेता है। लेकिन वहां भी एक शारीरिक,प्राकृतिक बनावट के अन्तर्गत वे नन्हें प्रजनन की प्रक्रिया को लगभग आठ दस माह तक स्थगित रख सकते हैं। शुरू में हुई यौनक्रिया के फलस्वरूप दस माह बाद बच्चे पैदा कर सकते हैं। लेकिन फिर भी इसे एकमात्र अपवाद ही गिना जाएगा। संमलैगिक यौनाचार भी जीवशास्त्रियों ने जीव जगत में देखा है। मानव की तरह ही केवल प्रजनन के लिए ही नहीं, शारीरिक आनंद के लिए भी जीव-जन्तु,पशु-पक्षी,कीट पतंगे ये क्रियाएं करते हैं। समलैंगिकता में भी बच्चों के साथ यह क्रिया अन्य जीवों में होती नहीं देखी गई। यहां भी पहल आदम की जात ने ही की है।
संभोग सुख जैसा गहन और अंतरंग सुख किसी दूसरे के दुख पर आधारित हो,यह बात मनोवैज्ञानिक के तरकश में एक और तीर तो बन सकती है,लेकिन सुख-दुख का यह विज्ञान छोटा बच्चा नहीं समझता जो इसके बाद हमेशा के लिए निर्वस्त्र और निरास्त्र हो जाता है। बिल्कुल नंगा और निहत्था।
2.
कैसे निश्चित करें कि कहां से शुरू करना चाहिए। कौन सा ऐसा अत्याचारी यौनाचार है जिसे आंख ओझल कर दिया जाए, झूठ मान लिया जाए, कल्पना या दमित स्वेच्छायें कहकर दरकिनार कर दिया जाए। मनुष्यों का संसार दिखने में अच्छा लगे, सिर्फ इस वजह से बहुत सी बातें न कहना ही सज्जनता है। खुले आंगनों में जो सब के सामने नहीं हुआ -उसे न हुआ ही मान लेना चाहिए। अपनी ही जाति को इतना कलंकित करके देखने से क्या लाभ। साहस की भी एक सीमा होती है। सांस रोक कर वीभत्स बातें कब तक भले लोग सुन सकते हैं। ऊपर से इतनी सरल और सीधी जिन्दगी के नीचे झांकने की क्या ज़रूरत है। यह शरीफ लोगों के गली-मुहल्ले हैं,बाज़ार-कूचे हैं। कुछ सिरफिरे दिन-दहाड़े आईने लिए घूमते हैं कि देखो इन आईनों में देखो। उन आईनों पर पड़ने वाला सूरज उछल कर घर के अन्धेरे कोनों को चुंधिया रहा है। यह हरकतें बन्द होनी चाहिएं, हम जैसे भी हैं – ठीक हैं। यही हमारे समाजों का तौर-तरीका अब तक रहा है। आँखें बन्द।
अलग-अलग समाजों के आंकड़े देखकर हैरानी होती है कि इतने व्यापक स्तर पर बाल यौन शोषण मौजूद है – खासकर घरों में। जो अपराध दूसरे लोगों द्वारा, परायों द्वारा किए जाते हैं, उन से बचने के उपाय अपेक्षाकृत आसान हैं। पर यौन शोषण के ज्यादा अपराध घरों में अपनों द्वारा किए जाते हैं। कौन नज़र रखे हर वक्त पिताओं, भाईयों, सम्बन्धियों पर। चाचा-ताया कह कर हर वक्त घर में घुसे रहने वालों पर, अध्यापकों पर, खेल सिखाने वाले कोचों पर, हर समय बच्चों के सम्पर्क में आने वाले तमाम वयस्कों पर। यहां तक कि अध्यापिकाओं, आयाओं पर,और हां कुछ माँओं पर भी। यौनगन्ध घरों की बैठकों, कुर्सी मेजों, पर्दों, खिड़कियों पर चिपकी हुई है। बच्चों को बहुत बचपन से ही यह यौनाभास और गन्ध अबूझी अपरिचित नहीं लगती। सिर्फ आहत करती है। इतना क्रूर अनुभव उन्हें किसी अपने से मिलेगा, यह उन्हें सोचने का अवसर ही नहीं दिया जाता। उन का मन एक आतातायी मौन से कुंठित हो जाता है, उन्हें एक ऐसी असमर्थ स्थिति में डाल देता है जैसे किसी चमकते पौधे को ज़हरीली ज़मीन में रोप दिया जाए। निठारी काण्ड की घटना पर इक्कीसवीं सदी की मोहर दर्ज़ हो जाएगी। ऐसी घटनाएं जाने कब से धरती के नीचे गड़ी हुई हैं। बहुत प्राचीन समय में बच्चों के मृतांगों को एकत्रित करके एक जगह इक्ट्ठे करने की कथा समय संगत थी। अपनी पूर्ण शुद्घि समृद्घि में ये में ये अमानवीय कृत्य तब भी हुए थे। एक संस्थागत ढंग से हुए थे, जिनमें अपराध बोध या कर्म का कुत्स भी शामिल नहीं था। कुछ समय पहले Carthage में एक कब्र समूह मिला है जो आज से ढाई हज़ार साल पुराना है। कारथेज -मेडिटरेनियन सागर क्षेत्र में स्थित ट्यूनिशिया का एक शहर है जो प्राचीन काल में रोमन और ग्रीक संस्कृति और शक्ति का केंद्र था। वहां करीब बीस हज़ार बच्चों के कंकाल तरह-तरह के बर्तनों में दफनाए हुए मिले हैं। ये बच्चे अनेक माता-पिता द्वारा बलि चढ़ाए गए थे जाने किस-किस देवता को किस-किस समृद्घि की प्राप्ति के लिए। बच्चों की बलि दिया जाना जिस मानव समाज में सामान्य या नियोजित हो, वहाँ यौन शोषण उस समय का या आज का कितना धुंधला पड़ जाता है। इन बलि आयोजनों-समारोहों में गीत-संगीत, मंदाधता और कच्ची कन्याओं का शरीरहरण विधिवत शामिल था। छोटी उम्र की कन्याओं का अपने आत्मीयों द्वारा सामूहिक बलात्कार। ये दो हज़ार साल अपनी दीर्घकालीन पिशाचावस्था में आज भी बहुत जगह जीवित है – एण्डीज की पहाड़ियों में इस तरह की बाल हत्याएं और यौन शोषण अपनी अपराध भावना को शमित करने के लिए,अपने कोकेन के व्यापार से उत्पन्न अन्ध आर्थिक कूप में मुँह छिपाने के लिए वह ईसा पूर्व का समय आज भी जीवित है। विश्व के अन्य बेशुमार क्षेत्रों में अपने ही आत्मीयों द्वारा व्यक्तिगत या समूहगत बाल यौन उत्पीड़न तरह तरह के आकारों, व्यवहारों में मौजूद है।
अजीब-अजीब तरह के बाल अत्याचारों से हमारी स्मृति दहक रही है। जो हुआ उस से भी- और जो हो रहा है, उस से भी। बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार किसी भी समय में अपवाद की स्थिति में नहीं रहा। सामान्य सामाजिक स्तर पर इसे चीन्ह कर अलग किए जाने वाले अनुसन्धनात्मक तरीके भी नहीं थे। किसी स्थान की स्थितियां वहां के ऐतिहासिक चरित्र, धर्मों और लोक-कथाओं के माध्यम से ही जानी जा सकती हैं। यह बात खुल कर सामने आती है कि भाई बहनों के यौन सम्बध और अपने माता पिता के अपने बच्चों के साथ शारीरिक सम्बन्ध कोई ‘मिथ’ नहीं हैं, एक घातक (आज की मानसिकता के अनुसार) वास्तविकता हैं। रानी एलिज़ाबेथ प्रथम को बचपन में अपने अभिभावकों द्वारा यौन शोषित किया गया था। मिश्र की रानी क्लीयोपेट्रा एक भाई-बहन माता पिता की सन्तान थी और उसने खुद बाद में अपने भाई टोलेमी से विवाह किया। मिस्र के इतिहास में ऐसा समय भी रहा जब भाई बहन के आपसी सम्बन्धों को राजसी इतिहास की जरूरत मात्र समझा जाता था। सत्ता अपने ही घराने में केन्द्रित रहे,इस लोलुपता के परिणाम भी इस तरह के सम्बन्ध थे। दूर-दराज के क्षेत्रों में इस तरह की प्रथाओं का जिक्र भी मानव शास्त्री करते हैं। इन्का लोगों में भी विशेषकर उच्च भूमिधरों या नील वर्णों (राजसी) में रक्तसांझ (विशेषकर भाई-बहनों में) के उदाहरण मिलते हैं।
‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ वाली बात शायद यह नहीं थी। व्यापक तौर पर उन सत्ताधारियों का आचरण सामान्य धरातल पर आकर विशिष्ट भी नहीं रह जाता। धर्मों ने, लगभग सभी धर्मों ने अपनी कथाओं में इस तरह के स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को ढील दी है। किसी कारणवश नहीं, अनायास ही धर्म-कथाओं में निकटतम रक्तसांझ की बात आती है। ग्रीक माईथॉलोजी (धर्मकथाओं) में जूस (मुख्य देवता) और हेरा भाई बहन हैं और पति-पत्नी भी। वे क्रोनस और रीया की सन्तान थे जो भाई-बहन भी थे। टाईटन महामानवों में यह प्रथा विस्तृत पैमाने पर मौजूद थी। नोर्स धर्म-कथाओं में भी वनीर लोगों में यह प्रचलित थी। बाईबल में भी, विशेषकर जैनेसिस (Genesis) में इस तरह की कथाएं आतीं हैं जिन में परिवारिक यौन-परस्परता के उदाहरण हैं। अब्राहम की कथा इन्हीं पारिवारिक यौन सम्बन्धों की कथा है। दसियों कथाएं हैं जिनका जिक्र यहां करना असंगत होगा। हिन्दु धर्म में यद्यपि वर्ण व्यवस्था इतनी संकुचित है कि किसी प्रकार के अन्तः यौन सम्बन्धों को स्वतः ही वर्जित कर दिया जाता है। लेकिन हमारे वेदों में विशेषकर ऋगवेद में भाई बहन के प्रणय सम्बन्धों का जिक्र आता है। अग्नि और अश्विन अपनी बहनों के प्रेमी हैं। पिता-पुत्री का प्रणय सम्बन्ध प्रजापति की प्रसिद्घ कथा में आता है जिसमें प्रजापति को दण्डित भी किया जाता है इस अपराध के लिए। मान्यता प्राप्त और समाज संगत ये सम्बन्ध तब भी नहीं थे, लेकिन इन का संदर्भ ही समस्या की व्यापकता को बताता है। मध्ययुग के बहुत बाद तक प्रचलित देवदासियों की प्रथा कोई छिपाने की चीज भी नहीं थी। बात केवल इतनी है कि सुविधा और वासना ही मानव यौन सम्बन्धों के आधार में व्यापक रूप से मौजूद रहे हैं। हमारी मानसिकता का प्रतीक ये कथायें सभी धर्मों और लोककथाओं में प्रचुरता से मौजूद हैं।
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ऐसा लगता है जैसे धर्म और लोकसाहित्य हमारी सभी वासनाओं, कामनाओं, वर्जित-अवर्जित गहन आत्मकांक्षाओं को आश्रय देने वाला विश्राम-स्थल रहा है। इन स्रोत तालों में झांकते ही हमें अपनी छवि नज़र आने लगती है। आज तक इन स्मृति कक्षों से खोज-खोज कर हम अपने आप को ढूंढने में लगे हुए हैं। टुकड़ा-टुकड़ा अपनी छवियां बटोर कर एक आकृति गढ़ने में लगे हुए हैं। चाहे जिस तरह के सम्बन्धों और शारीरिक रोमांचों को हमने भोगा हो, यह सत्य है कि हमने अपने दुखते हुए मानस से ही मानव सम्बन्धों के औचित्य-अनौचित्य को निर्मित किया है। माँओं, बहनों, बेटियों, पिताओं और अन्य निकटतम सम्बन्धों द्वारा जनित यातनाओं और उनकी कटु स्मृति दंशों ने ही एक लम्बे अन्तराल के बाद व्यवहार रीतियों को जन्म दिया है। लेकिन फिर भी अतिक्रमणों को हम आज भी अपने चारों तरफ, सभी देशों, संस्कृतियों में बिखरा हुआ देखते हैं। हमारे पालन पोषण के तरीकों में हमारी वासनाएं मुखर होकर सामने आती हैं। शायद ये वासनायें भी नहीं होतीं। मौलिक प्रवृत्तियों के अलग-अलग स्वरूप हैं जो मानव विकास के साथ बनते-बदलते रहे। पालन पोषण की ऐसी अनेक दैनिक क्रियाएं हैं जो आज के अति उत्सुक वातावरण में शोषण की परिभाषा की परिधि में आ जायेंगी या बच्चों के प्रति कामुक व्यवहार कहलायेंगी। । यौनांगों के नाम ले लेकर किसी छोटे बच्चे को आलोड़ित-लालायित करना अपने ही मातृत्व-पितृत्व के अहसास की किसी न किसी रूप में पुनरावृत्ति थी या अपनी ऊर्जा, शक्ति सम्पन्नता का बोध था। पुरुष बालकों को अपनी यौन शक्ति के अहसास से भरना बचपन से ही शुरू हो जाता था। उन की वासनाओं, उत्तेजनाओं को कुछ ज्यादा ही आक्रान्ता की स्थिति में रख कर देखा जाता था। और यह भी हुआ कि लड़कियों को अधिकतर संस्कृतियों में बहुत शीघ्र यौन ऊर्जित होने का दोषी माना जाता रहा और उन के दमन की नीति रीति निश्चित करने का लोक-प्रयास लगभग सभी जगह रहा। उन्हीं की कामुकता पर आँख गढ़ा कर रखी गई। उन्हीं के यौनांगों पर अंकुश लगाया गया, बिद्घ किया गया, काटा-पीटा गया। उन्हीं को केवल प्रजनन के माध्यम से ज्यादा नहीं रहने दिया गया। उन्हीं की वासनाओं को सर्वभक्षी माना गया। उन्हें ही नियन्त्रित करने का क्रूरतम संस्कृतिकरण हुआ। या फिर उन्हें दया का पात्र बनाकर पेश किया गया – कोमलांगी या अंकशायिनी से ऊपर नहीं उठने दिया गया। इन्हीं विपरीत दिशाओं में उन्हें आंका-परखा गया। पशु-पक्षियों की स्थिति हमारे लिए हमेशा ही स्पर्धा का विषय रहेगी।
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देखना यह है कि पुरानी संस्कृतियों में और आज भी व्यापक रूप से प्रचलित व्यवहारों में दोषपूर्ण क्या रहा और क्या ज़बरदस्ती अति उत्साह की स्थिति में हमने गलत मान लिया और असन्तुलन की स्थिति पैदा की। आसपास के वातावरण में अति कामुकता का प्रदूषण फैलाने वाले शारीरिक व्यवहार कौन से हैं और उन के विपरीत अन्य अकामुक व्यवहार क्या हैं, जिन्हें आज के मनौवैज्ञानिकों ने अति उत्साह में प्रदूषण-शोषण का दर्जा दे डाला है। उन व्यवहारों पर नज़र डालना जरूरी है। कई समाजों में बच्चों के सामने अपने को निर्वस्त्र करना साधारण बात रही। छोटे बड़े को लिंग भेद का ध्यान किए बगैर साथ सुलाने की प्रथा, इक्ट्ठे नहा लेने की बात, लेकिन इस के साथ ही बच्चों द्वारा बड़ों के यौनांगों को छूने और छुआने की प्रथायें। कई समाजों में मैथुन का प्रशिक्षण और यौनांगों को तरह तरह से सुव्यवस्थित करना आज नितान्त शोषण है। लेकिन कई जगहों पर ये क्रियाएं साधारण की सूची में ही आती हैं। प्रशान्त महासागर के द्वीपों और अफ्रीका की कई जातियों में प्रचलित कुवांरियों के प्रजनांगों को चूमचाट कर विशेष प्रयोजन के लिए तैयार करने की रीति उस समाज में एक साधारण सी बात है। जूल्ज़ हेनरी ने ब्राजी़ल, कोलम्बिया, वेनजुएला इत्यादि की जातियों की विस्तृत चर्चा की है जहाँ इतना अधिक अंग प्रदर्शन और पारस्परिक स्पर्श बच्चों के सामने किया जाता है कि बच्चे अन्य बच्चों के साथ खेलने के अनिच्छुक बन जाते हैं। वे अत्याधिक यौन उत्तोजना में ही रहने के आदी हो जाते हैं।
To be continued