वापसी
प्रकृति के इस विशाल रमणीय कक्ष में
उकड़ूँ बैठा हुआ मैं – हठात ही
स्मृति के एक उन्मत्त झकोरे से
इस विस्तार की ढलान पर फिसलने लगता हूँ।
एक निष्ठुर कगार पर आ टिकता हूँ
स्थिर हो जाता है सब कुछ
एक कसाव और जकड़न के साथ
स्मृति वास्तविक हो उठती है
इस हिम प्रदेश में यह निशब्दता
उकेर गई उनींदी स्मृतियां।
स्मृतियां जैसे अधखुली आंखें हों
अपने भीतर झांकती हुई
एक एक पोर सहलाती हुई,
अपने बिखरे अस्तित्व धागों को खोलकर
खुली धूप में फैलाती हुई, समेटती हुई
आज और अतीत को जोड़ती हुई।
एक-एक पड़ाव पर रुक रुक कर
याद करता हूं – आत्म विभोर स्वयं को
अपना जिया-अनजिया हर पल बटोरता हूं।
अपने रिक्त मन की झोली में
प्रकृति सानिध्य के उजास में
यह प्रकाश पुंज – यह सूर्य
जो देख रहा हूं इतने निकट
स्मरण करता हूं।
कितनी ही बार उदय हुआ
केवल कुछ देर बाद ही
अस्त हो जाने के लिए।
इस पूर्ण रिक्त अन्तराल से पहले,
प्रकृति के विस्तार में
यात्रा से पहले का अनुभव जीवंत हो उठा।
अब केवल निस्तेज स्मृतियां है पीछे
और आगे है
उतरने के लिए रोमांचक ढलान।
नीचे उतरती पगडंडियों को
अपने हाथों की लकीरों की तरह देखता हूं
दूर तक मेरे अहं की तरह फैली हुई
उबड़-खाबड़ ढलान को
नीचे उतरते हुए
झांक-झांक कर देखता हूं।
अपार वैभवशाली पर्वत ढलान से
नीचे उतरना ऐसे लगा
जैसे आकाश में धीरे-धीरे
सूर्य ऊपर उठ रहा है।
चलते-चलते ऐसे ही
मुझे लगा कि
अंतर है केवल ऊपर जाने का
और नीचे उतरने का।
एक अंतर और भी है
स्थिति के पूर्ण अस्वीकार का
नीचे उतर कर ऐसा नहीं लगा कि
सब कुछ ऊपर रह गया है।
एक उदार, असंयत, अनिश्चित प्रकृति में
जीवन मरण की नियम-हीनता
सभी मेरे साथ उतर आए थे।
आगे बढ़ने, पीछे हटने को कुछ था ही नहीं
ऐसी ही पर्वतीय मनस्थिति में
नीचे उतर कर अपनी
आत्मीय कठोर धरती पर
सिर रखकर लंबी निद्रा में उतर जाता हूं।
जैसे धरती पर नए प्रवेश के लिए
पूरी तरह अशरीरी होना आवश्यक हो,
नई यात्रा पर निकलने के लिए
नए पांव,थकान मुक्त पांव
उगाने आवश्यक हो।