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वेदना से विमर्श तक–कृष्ण किशोर

वेदना से विमर्श तक–कृष्ण किशोर

वेदना क्या सचमुच ऐसी मनस्थिति है जिसे किसी कहानी, उपन्यास का लबादा पहनाया जा सकता हैउसी रंग रूप का ओढ़न, जो उस जैसा ही लगे। कला की सीमाएं हैं। कितनी दूर से, कितनी पास से उसे देखा छुआ जाए कि अपने आप को छूने जैसा कुछ लगे। किसी को भी, पाठक हो या दृष्टा, वह वेदना अपने ही मन से भी, अपने ही शरीर से झांकती हुई लगे। कुछ भी बाहर का ना लगे। इतनी शक्ति कलाकार कहां से पैदा करे अपने भीतर कि बहुत दूर की चीज बहुत पास की बन जाए। ऐसा मन ऐसी कला संचित करने में, जो दृष्टि साहस चाहिए, वही सृष्टा  को जन्म देता है । वहां दृष्टा और सृष्टा का अंतर समाप्त हो जाता है।

T.S. Eliot ने कहा था, ”the more perfect the artist, the more completely separate in him will be the man who suffers and the mind which creates; the more perfectly will the mind digest and transmute the passions which are its material.”

वेदना और विमर्श के अंत:सदन में झांकने से पहले एक सहज आत्मकथन।  यहां के पतझर के मौसम में,  यहां यानि यूएसए के मिनिसोटा प्रांत में ,मौसम लोग दूर दूर से देखने आते हैं। पत्ते गिरने से पहले पीले होकर इतने रंग बदलते हैं जैसे कितने ही रंगों की आग जंगल में लगी हो। गुलाबी, भूरी ,गहरी, पीली, सुनहरी ,लाल गहरी लाल रंगों की आग चारों तरफ एक ऐसा दृश्य रचाती  है जैसे मरण ही प्रिय हो और जैसे मरण से ही जीवन का अंकुर फूटेगा। पेड़ ही पेड़ है चारों तरफ ,आग ही आग यह पतझरी आग। मृत्यु से पहले का यह अंतिम चमकदार क्षण।

बुझने से पहले शम्म भड़कती जरूर है, किस शायर की पंक्ति है याद नहीं। बात जहन में है। मैं  पढ़ रहा था , अपने शीशे के बने हुए कमरे से बाहर देखता हुआ।  पेड़ों के पत्ते लगभग गिर चुके थे । टहनियाँ  निहत्थी होकर हवा में झूल रही थी। मुझे याद है वह सुबह।  एक बड़ा पेड़ मेरे ठीक सामने खड़ा है।  पता नहीं वो मुझे देख रहा है इस वक्त या नहीं।  लेकिन मैं उसे भर्राए गले से धुंधलाई आंखों से एकटक  देख रहा हूं। सारे पत्ते टूट  चुके हैं। जैसे  सारी उम्मीदें टूट गई हों। सिर्फ तीन पत्ते पासपास टहनियों पर अभी भी झूल रहे हैं। किसी क्षण भी गिर सकते हैं ,यह तीनों पत्ते। देखना चाहता हूं भारी मन से कि एक दूसरे के कितने देर बाद गिरेंगे यह तीनों। मैं कुछ भी न करते हुए अपलक उधर ही देखता हूं ।कुछ देर में हवा का एक झोंका आया ।शीशे के इस तरफ बैठा हुआ मैं नहीं देख  पाया, कितना तेज। यही तो हवा की शक्ति है, वह दिखती नहीं। एक दूसरे से कुछ ही पल की दूरी परमैंने देखा, दो पत्ते टूट कर हरी धरती पर ढेर हो गए। थोड़ी सी बर्फ एक दिन पहले पड़ी थी, अब पिघल चुकी थी। इसलिए मैं दोनों पत्तों को घास पर पड़े देख सकता था। तीसरा  पता भी गिरेगा किसी भी क्षण। नहीं देखना चाहता था वह क्षण। मैं उठ कर वहां से चला गया। 

एक कहानी the Last Leaf लिखी गई थी 1905 में। लेखक O’ Henry अमेरिकन कथाकार। कहानी में एक बूढ़ा पेंटर बरहमन कड़ाके की सर्दी में सारी रात सीढ़ी पर खड़ा हो कर ,एक पत्ता पेंट करता है दीवार पर लिपटी Ivy  की बेल के पत्ते जैसा। एक कलाकार  लड़की  जॉन्सी की  जान बचाने के लिए। जॉन्सी निमोनिया से मृत्यु के करीब है। उस ने अपने बचने को बेल के पत्ते से जोड़़ रखा  था। पत्ता गिर गया तो वह नहीं बचेगी। बूढ़े कलाकार ने उम्मीद  का पत्ता दीवार पर पेंट कर दिया रात भर सर्दी से जूझ कर। लड़़की बच गई। बूढ़ा कलाकार सुबह मरा हुआ उस खिड़की के नीचे पड़ा मिला।  उस बूढे  की यातना जिस जीवनदाई उम्मीद को जगा गई ,बस वही सृजन है । कला की उपलब्धि इसी में है कि वह एक वातावरण निर्मितसंचित करती है । जहां समय केवल एक दृष्टा बन जाता है, और वातावरण सर्जक।  इस तरह के वातावरण का सृजन जिन कृतियों ने किया है ,उनमें  स्मृति  में देर तक बनी रहने वाली गूंज है । यह गूंजसंगीत घनी उदासी पैदा भी करता है और उसी उदासी की काव्यत्मकता  एक आत्मवाहक निर्णय भी जन्मती है।  निर्णयस्थिति को विचलित करने का, झकझोर देने का।

 

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