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सम्पादकीय कविता के क्षितिज- –  कृष्ण किशोर

सम्पादकीय कविता के क्षितिज- –  कृष्ण किशोर

                                              

 लिखी जाने से पहले, पढ़ी जाने से पहले, अपनी अनंतता में बहती हुई कविता हमेशा से थी, वातावरण में ही थी। उस वातावरण में जिस ने भी प्रवेश किया, वह भीतर ही भीतर कवितामय हो गया। न भाषा, न विषय, न वस्तु। बस एक वातावरण और एक लय। भाषा, शब्द इत्यादि सब बाद की बनावटें हैं। केवल अर्थ- जो गूंजता है भीतर , सुनाई देता है सिर्फ स्वयं को। अर्थ को मिलता है एक अस्तित्व का माध्यम और व्यक्त होता है  हमारे भीतर के अंधेरों, उजालों,  परिवर्तनों, उल्लासों, उदासियों, जिज्ञासाओं, और अंतिम निरर्थकताओं में। जीवन समाप्त हो जाता है। अपनी समस्तता में कविता मौजूद रहती है वहीं, उसी वातावरण में।

 

हमारे भीतर यह स्थिति हमेशा थी और आज भी है। केवल इतना है कि निशब्द कविता को शब्द मिल गए हैं। यह एक पद्य मनस्थिति है। इसी पद्य मनस्थिति में कविता होती है। कविता लिखने, कहने- सुनने के लिए इसी पद्य मनस्थिति की जरूरत होती है। इसी के समानांतर एक गद्य मनस्थिति है, वह भी अपनी निशब्द यात्रा में लगभग उतनी ही आदिम है। और गद्यमय कुछ भी रचने , सुनने , पढ़ने के लिए उसी गद्य- मनस्थिति में आना पड़ता है। अच्छा पद्य और गद्य अपनी अनुरूप स्थिति में ही पैदा होता है। उद्यम काम नहीं करता। कोशिश की जबरदस्ती नहीं चलती।

 

कविता लिखने, सुनने के लिए अप्रयासता ही सृजन स्थिति रही है अधिकतर। लेकिन कविता सिर्फ़ मन के उदगार ही नहीं होते कि एक अनुकूल वातावरण मिलते ही कुछ भी कविता के रूप में प्रस्फुटित हो जाए। एक पूर्वाभास,  पूर्व चिन्तन और भावसिक्तता बनी रहती है कुछ देर , शब्द रूप मिलने से पहले। अपनी प्राचीनता में कविता ही हमारे सभी दर्शनों , जीवन मूल्यों, दैनिक विधानों और संस्कृतियों का आधार बनी। और कोई माध्यम था ही नहीं। बहुत बाद में गद्य आया।

 

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कविता का शरीर यानी शब्द संयोजन सिर्फ दिखने में कविता लगे, यह बिल्कुल काफी नहीं। उस  के भीतर एक संयोजन है जो  अर्थ की दृढ़ता और  एक -आयामिता  से मुक्त करता है ,एक तरलता प्रदान करता है ,वही  उसे कविता बनाता है। वहां अनुभव करने का अर्थ सिर्फ छू कर देखना नहीं रह जाता।  छूकर जो देखा, वास्तव में वह तो है ही नहीं।  एक दृष्टि है ,जो उस वस्तु को इस संसार से जोड़ती है । लेकिन ठीक उस तरह नहीं जैसे हम अपनी गद्य मनस्थिति में जोड़ते हैं।  इसका अर्थ यह नहीं कि गद्य में कल्पना ,कला, संवेदना, उपमा, प्रतीक ,अनुभव की वायविक प्रवृत्ति या प्रकृति नहीं है।  बल्कि गद्य में किसी विचार या तर्क या भाव को तमाम कोणों से देखने के लिए, वास्तविकता को ढूंढने, परखने ,स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए यह तत्व सबसे अधिक सहायक बनते हैं।  विशेषकर उपन्यास के फैलाव का समुद्र इन मोतियों, सीपियों से भरा पड़ा है। विचार साहित्य का भीतर बाहर भी इन्हीं उपकरणों से निर्मित होता है।

यह सब औजार हैं बाहरी स्वरूप गढ़ने के लिए।  पद्य या  गद्य हमारे भीतर का बाहरी स्वरूप है । एक ओर अर्थ की  संज्ञात्मकता  है, वस्तुकरण है ।  दूसरी ओर अर्थ की अनेकात्मकता है, बहुआयामिता  है, भाव की निरंतरता, , अगोचरता है। कल्पना का दूरस्थ लेकिन संबद्ध वस्तुकरण है। संवेदना का दिशाहीन चतुर्दिक फैलाव है।  आकृति का असंयम है। विचार की कारुणिकता  है, तरलता है। केवल एक मनस्थिति है , जिसमें सब कुछ हमारे अस्तित्व को अनस्तित्व में बदले हुए है। भाव, कल्पना विचार, संवेदना, प्रकृति ,आदि अनादि एक समुचित मानस की रचना करते हैं।  उसी मानस के क्षितिज में कविता का उदय होता है   सूर्योदय, सूर्यास्त की तरह । वास्तव में क्षितिज एक तथ्य नहीं है । लेकिन हमारा कवि -सत्य अवश्य है।

                  

स्थितियों की फोटो कापियां कविता के अंत:सदन में नहीं होती। हालांकि कक्ष  स्थितियों से भरा रहता है। एक स्थिति केवल एक स्थिति नहीं रहती। उसका संदर्भ व्यापक हो जाता है। अपनी आसपास की सभी स्थितियों का रंग रूप उस स्थिति के दर्पण में दिखाई देता है। उसे प्रमाणित करने के लिए कोई स्थानीय  तर्क हमारे पास नहीं होता। हो भी तो , काम नहीं करता।  बस एक स्वीकृति है और वही स्वीकृति हमें आगे ले जाती है। Wasteland (T.S.Eliot)  की पहली पंक्ति , ‘April is the cruelest month’ कैसे साबित की जा सकती है। John Keats की  Grecian Urn  की अंतिम पंक्तियां ‘Truth is beauty and beauty is truth. That’s all you know on earth and that’s all you need to know.’  कैसा तर्क है।

जयशंकर प्रसाद की कामायनी की, हृदय की अनुकृति बाह्य उदार, एक लंबी काया उन्मुक्त‘’। कौन सा तर्क या भावुकता है जिसे हम गद्य में लिख कर उसी तरह का अशरीरी वातावरण पैदा कर सकते हैं। इन सब का उत्तर आज के प्रसिद्ध गायक कवि Bob Dylan के एक गीत की पंक्ति में है;

The answer is blowing in the wind..

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  गद्य का तर्क कविता के तर्क से बिल्कुल अलग महसूस होता है। कविता की आंतरिकता और शक्ति हमेशा तर्कातीत रही है।  सपाट बयानियां, साफगोइयां, जमीनी तर्क भी कविता में आए हैं। और हमेशा आयेंगे। लेकिन उनका संप्रेषण, संबोधन, शब्द चयन, और वातावरण ऐसा रहा कि कल्पना और संवेदना  की संवाहन शक्ति ने उन सपाट बयानियों के लिए हमारे मन के सारे दरवाज़े खोल दिए । जहां शब्द -चयन अर्थ सिक्त न हो, वहां संप्रेषण कोई रास्ता नहीं खोलता, बल्कि रास्ते पर एक दरवाज़ा लगा देता है।  भीतर को भीतर , बाहर को बाहर रहने देता है।

पद्य और गद्य को उनकी अंतिम परिणिति यानी  प्रभाव, शब्द- संयोजन , विषय  या भाव की एकात्मता से महसूस किया जा सकता है। यह महसूस किया जा सकता है कि किसी पद्य -पथ से गुजरे हैं या किसी गद्य यात्रा से होकर आए हैं। गद्य और पद्य अपने स्वभाव में विरल हैं।  किसी गद्य की शैली पद्यात्मक हो सकती है लेकिन ऐसे गद्य की अपनी सीमाएं हैं। और लिखने – पढ़ने की एक मिलीजुली स्वभाविकता है जिसका हर साहित्य में खूब प्रयोग हुआ है। गद्य गीत की बात यहां नहीं कर रहे।  एक लंबी रचना भी उस शैली में घटित हो सकती है।

असली बात है कि जो भी स्थिति हो उसे हाथ पकड़ कर दिखाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए । पाठक स्वयं उस स्थिति में आएगा और वही प्रभाव ग्रहण करेगा जो रचना रचती है

अगर हम कविता पढ़ रहे हैं तो लगे कि कविता ही पढ़ रहे हैं। उसका आदि, मध्य और अंत कविता में ही होना चाहिए।  बहुत सी कविताओं की पंक्तियों को अगर आप गद्य रूप में लिखकर फैला दो और पाठक को अंतर पता ही न चले , वह उसे साधारण गद्य समझकर पढ़ जाए तो वह कविता नहीं है। किस बात ने यह अंतर पैदा किया कि कविता को गद्य भाव से पढ़ गए और वह मनस्थिति पैदा नहीं हुई जो कविता करती या कर सकती थी। इसमें पाठक की मानसिकता या समझ का दोष नहीं है।  वह किस स्थिति से होकर आया था जब उसने कविता पढ़ी, इसका भी अंतर नहीं है । उस पाठक के पास कविता के लिए कोई मन ही नहीं है, ऐसी बात भी नहीं। लेकिन कविता पढ़ने के बाद पाठक का अनुभव गद्य पढ़ने के अनुभव से अलग अगर नहीं है, तो उसे कविता कहने से झिझक  होगी, असमंजस होगा। वरना कविता लिखी ही क्यों जाए। शब्दों को वह आकृति दी ही क्यों  जाए और उसे जबरन कविता कहा ही क्यों जाए।  उस  कविता और कवि की आत्मीयता,  सृजन मानसिकता, अतीन्द्रिय अनुभवशीलता में कुछ कमी है । और यह कमी उस क्रम की नहीं जिसमें शब्द रख दिए जाते हैं कि देखने से वह शब्द प्रबंधन कविता जैसा दिखे। बल्कि उस मानसिकता की है जिसमें कविता लिखी गई, रची गई । लेखक उस समय कवि नहीं था, जब वह कविता लिखी गई। वह अपनी पद्य मानसिकता में था ही नहीं ।

 महान कवियों की पंक्तियों का व्याकरण अधिकतर गद्य में है, लेकिन कुछ भी इधर उधर करने से अनर्थ हो सकता है। वह केवल व्याकरण में गद्य है। केवल शब्दों के क्रम में गद्य है, अर्थ की समग्रता में सम्पूर्ण कविता । टीएस एलियट का The Love song of J Alfred Prufrock ऐसे शुरू होता है;

Let us go then, you and I

When the evening is spread out against the sky

Like a patient etherized upon a table

 

और हमारे नागार्जुन :

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है,

वह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है,

उस में मेरी भी आभा है

 

और केदार नाथ सिंह:

बिजली चमकी पानी गिरने का डर है

वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर हैं 

                          –केदार नाथ सिंह

 

और फैज़ अहमद फैज़:

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक

बोल जो कुछ कहना है कह ले

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल जुबां अब तक तेरी है

                       

कविता का शब्द चयन और शब्द संयोजन जब तक एक ऐसा वातावरण नहीं रचते जो  पाठक को स्वीकार और अस्वीकार की स्थिति से ऊपर उठाकर विश्वास की स्थिति में नहीं ले आते,  एक आंतरिक लय और बहाव पैदा नहीं करते  जिसमें पाठक हाथ पैर मारना छोड़ दे – तब तक सच यही रहेगा कि पाठक ने ऊपर से नीचे जाती हुई कुछ पंक्तियां पढ़ी और आगे निकल गए । उस शब्द क्रम को हम कविता नहीं कह सकते । हम यहां किसी Meter  या Rhyme Scheme  की बात नहीं कर रहे, अर्थ की आतंरिक संवेदनशीलता से पैदा होने वाली लय की बात कर रहे हैं ।                       

हमारे महत्वपूर्ण लोकप्रिय कवि अरुण कमल की कविता है, ‘सेवक ‘। उस कविता की भावात्मकता और संवेदनशीलता एक अटल उदाहरण के तौर पर जहन में टिक जाती है । उसे चाहे जितनी बार पढ़ लो, उसी मनस्थिति में पहुँच जाते हैं । यहां  पद्य और अर्थ की लय एक दूसरे में समाहित है । एक स्थिति है, एक वातावरण और संवेदना की संवाहन शक्ति है जो पाठक को एक भावात्मक आर्द्रता से भिगो जाती है। इस कविता की कुछ पंक्तियां:

 

लगता है अभी भी वह सांस मेरे भीतर घूम रही है

 वही डूबती आंख मुझे पीछे से ताक रही है 

और मेरे कदम तेज़ हो जाते हैं

………………….

जिसके माथे पर हाथ धरे तुम रात भर जागते हो 

उसके लिए तुम्ही हो सबसे करीबी जिसकी देह तुमने धोई पोंछी

 रक्त के सबसे नजदीक,

 पुराने अखबारी कागज सी देह

 सुबह जब उठकर जाने लगता

 तब वे इस तरह देखते

 जैसे उनका जहाज छूट रहा हो

 

कविता लंबी है, उस कविता की कुछ ही पंक्तियां हैं ये। सभी पंक्तियों का सारा वातावरण पद्यसिक्त है। स्थिति का बहाव है।  वातावरण ऐसे संवेदनासिक्त है कि स्वयं अपना आप अशरीरी सा लगने लगता है। उड़ कर स्वयं वहीं ,उसी कक्ष में  पहुंच जाते हैं,जहां  की यह स्थिति है।

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कविता का सत्य कभी-कभी सत्य न होकर भी सत्य होने का आभास रचता है।  जैसे क्षितिज सत्य होने का आभास देता है ,लेकिन सत्य है नहीं। हम स्वीकार करके उसे आत्मसात करते हैं ।यह केवल कविता का प्रसाधन मात्र नहीं है। ऐसे कितने ही क्षितिज- सत्यों का सहारा लेना पड़ता है ,कविता को अपनी बात कहने के लिए । लेकिन इन सब अनुभवों के पीछे अगर कोई ठोस मानवीय संदर्भ नहीं है तो मात्र प्रसाधन को हम स्वीकार नहीं करते । जीवन का सत्य अगर कंटीले झाड़ -खंखाड़ के जंगल जैसा होता है, तो कविता का रूप भी उसी तरह कटीले झाड़ खंखाड़  के बन की तरह हो जाता है। हमारी हिंदी कविता में एक ऐसा समय रहा है जब किसी विशेष विचार मानसिकता के तहत  झाड़ खंखाड़ वनों की  सिर्फ कागजी पेंटिंग की गई। वहां सिर्फ रंग थे ,लहू की एक बूंद भी नहीं थी। इसीलिए उस तरह का विचार आलाप ज्यादा देर टिका नहीं। कविता अपनी  मानवीय संवेदना और  जीवनार्थ में लौट आई,  जहां संभावनाएं ही संभावनाएं हैं । जहां सृजन और विनाश एक दूसरे के विरोधी नहीं है, बस स्थितियां हैं एक अनंत तक पहुँचने की  ।

                 

अभी कुछ पहले तक कविता को एक लय से गा कर या पढ़ कर सुनाने का रिवाज था।  छंदबद्धता ज़रूरी नहीं थी । बेशुमार गीतकार थे उन दिनों। हर छोटे-बड़े शहर में कवि सम्मेलन होते थे। जिन्हें कविता का कोई शौक भी नहीं था , वे भी वहां मौजूद होते थे । हर वर्ष लाल किला पर हिंदी कवि सम्मेलन और मुशायरा हुआ करता था । पचासियों हजार लोग वहां मौजूद रहते थे। इतनी कविता उन मंचों से बरसती थी कि श्रोता उस बारिश में भीगते रहना चाहते थे। समय रुक जाता था । ऐसी बात नहीं  कि  सिर्फ गाकर ही पढ़ी जाती थी कविता उन मंचों से । लेकिन लयबद्धता अवश्य रहती थी। पद्यात्मकता अवश्य रहती थी । उन सभी कविताओं को अच्छी कविता कहकर  हम महिमामंडित नहीं करना चाहते। अच्छी कविता, ऊंची कविता के और भी आयाम होते हैं।

 

कविता में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों -हर विषय पर समृद्ध तर्कशीलता का वातावरण रहा है । दैनिक जीवन भी उसी विमर्श का हिस्सा रहा है। प्रकृति का सौंदर्य और मानव स्वभाव का भी  संगम रही है  कविता। जीवन दर्शन तो केंद्र में था ही । वैदिक साहित्य जीवन दर्शन से भरा पड़ा है । धार्मिक कट्टरता वहां नहीं है । सिर्फ  उस समय के विश्वास दर्ज हुए हैं वहां।  आकाशी संगीतात्मकता में उनका ऊंचे स्वर में पाठ हमें अपनी भौतिकता से काटकर कहीं और स्थापित कर देता है । उनमें विचार भी है, जीवन दर्शन भी है, संगीत भी है और किसी बात की कट्टरता नहीं है।  विषय वस्तु तो अपने समय का ही होता है । उस समाज को आज से जोड़कर तो देखा नहीं जा सकता। लेकिन कबीर, तुलसी, सूर तो ज्यादा पुराने नहीं है। कविता के अर्थ का बहाव उन्होंने किसी भी कारण से नहीं छोड़ा।  उनके तर्क समय संगत भी हैं और समयातीत भी, जैसे साहित्य के सत्य होते हैं । तुलसी ने राम कथा के माध्यम से जिस अतुलनीय साहित्य की रचना की है, वह अद्वितीय है।  तर्क देखिए:

 

दामिनी दमक रही घन माही

 खल की प्रीत यथा थिर नाही

 

कविता में मानव और प्रकृति मिल कर कैसे एक जीवनसत्य रचते हैं , उस का यह एक सहज और सरल उदाहरण है  ।  मन चलते चलते रास्ते पर ठहर जाता है । एक पंक्ति में चित्रण, दूसरी पंक्ति में ऐसा तर्क जिसे स्वीकार करने के लिए आगे पीछे नहीं देखना पड़ता।

 

ग्रीक, लैटिन भाषा में उसी तरह अर्थ की लयात्मकता थी, जैसे हमारी प्राचीनता में थी। Homer का The Odyssey (नवीं या आठवीं सदी B.C)  :

 Of all creatues that breathe

 and  move upon the earth

Nothing is bred

That is weaker than man

 

लगभग 3000 साल पहले वही गूंज सुनाई देती है, वही कथन की संक्षिप्त अर्थपूर्णता यहां भी है, वहां भी। इधर भी है, उधर भी।

 

2700 साल पहले Sappho ( सातवीं सदी B.C) का एक प्रेमगीत । कहां अंतर है सिर से पैर तक अदैहिक हो जाने का, रक्तिम हो जाने का प्रेम में-

 

If I meet you suddenly

 I can’t speak

 My tongue is broken 

A thin flame runs under my skin seeing nothing

 

यह सब ग्रीक या लैट्रिन से अनुवाद हैं। कुछ काव्य गरिमा तो अनुवाद में बिखर जाती है । अर्थ भी वैसा संप्रेषित नहीं होता। अनुवाद भी बेशुमार लोगों के हैं। कौन अच्छा, कौन कम अच्छा- कौन जाने। दूसरी बात यह कि दो-तीन पंक्तियां अधिक बोल नहीं सकती। इससे अधिक देना यहां सार्थक नहीं होगा ।

 

इन कवियों का समय हमारे वैदिक  काल से कुछ ही बाद का है।  उन सब समयों की साहित्यिक समृद्धि, बौद्धिकता, सहृदयता , जीवन दर्शन के हम ऋणी हैं । हमारे अचेतन में और कहीं-कहीं चेतन में उनका प्रभाव अनायास ही प्रकट हो जाता है । अगर वह इस स्मरणशील विधा में न होता, तो आज वह हजारों साल पुराना काव्य  हमारे साथ न होता । हमारा संस्कार न बनता । प्रयत्नहीन पठनीयता ( Effortless reading)पद्य और गद्य , दोनों की  शक्ति बनती है । एक पूर्वाभास और पूर्व चिंतन की स्वाभाविकता से यह प्रयत्नहीनता पैदा होती है जहां शब्द -प्रपात एक जल- प्रपात जैसे महसूस होते हैं।

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हर क्षेत्र के विचार हमेशा ही कविता के केंद्र में रहे हैं और रहेंगे ।लेकिन एकांगिकता अपांगता बन जाती है । प्रखर वैचारिकता और समय सत्यों की करुण और तीव्र धाराएं छायावाद के बाद हिंदी कविता में देर तक बहीं।  कुछ अंतराल के बाद मुक्तिबोध सरीखे कवियों की संवेदनात्मक विचारशीलता और एक तीव्र धाराप्रवाह शक्ति ने हिंदी कविता को केवल तरल मानसिकता की फिसलन से बाहर निकाल कर एक ऐसी जमीन पर खड़ा किया ,जिसकी शक्ति चुभे भी और हमारा आधार भी बने ।  विचार दृश्यों की तरह साकार घूमते हैं जिंदगी की धधकती लपटों में या फिर उन अंधेरों में, जिन्हें काटने के लिए स्वयं आग लगानी पड़ती है। लेकिन उससे पहले की असहाय स्थिति का एक दृश्य जो आधार बनता है उससे लड़ने का।

 

दिखता है सामने ही अंधकार स्तूप सा

भयंकर बरगद

सभी उपेक्षितों, समस्त वंचितों

गरीबों का वही घर, वही छत

………………..

हां वहीं रहता है, सिरफिरा एक जन

—–अंधेरे में, भाग ४

मुक्तिबोध ने जैसे कविता को एक संबोधन बना दिया जिसे चाहे लोगों की भीड़ चौराहों पर इकट्ठे होकर सुने। मुक्तिबोध के समकालीन और बाद के कवियों ने समय की नब्ज़ पर हाथ रखा और कविता को उन मानसिक सरोकारों से जोड़ा जिन की अत्यंत आवश्यकता थी । हमारे पैरों के नीचे एक विश्वास की धरती और सिरों पर उम्मीद का आकाश भी रचा।  पंजाबी के प्रमुख आधुनिक कवि सुरजीत पातर की पंक्तियां :

 

जे आई पतझड़ तां फिर की

तू अगली रुत ते यकीन रखीं

मैं लभ के ल्योणा कितों कलमां

तू फुलां जोगी ज़मीन रखीं

 

 

साधारणजन की महत्वपूर्ण स्थिति सबसे पहले उपन्यास में ही उदय हुई    यानी पंद्रहवीं शताब्दी तक किसी भी साहित्य में साधारणजन केंद्र में नहीं रहा।  आधुनिक कविता ने आम जन को अपने अंतस में स्थापित किया। और उनकी हर स्थिति से एक आत्मिक परस्परता स्थापित की। उनकी प्रत्येक स्थिति,प्रेम, वेदना वासना, आकांक्षा, संघर्ष, द्वंद्व, प्रकृति यानि सब कुछ आधुनिक कविता के वृत्त का हिस्सा बना। कविता का प्रमुख सरोकार मानव की स्थितियों और उनके कारणों पर सिमट गया। कारणों से भी अधिक स्थितियों के वर्णन ने संवेदना अर्जित और प्रसारित की। उन्हीं स्थितियों पर चिंतन माध्यम बना कविता में राजनीतिक, सामाजिक विमर्शों का। यही सरोकार प्रमुख रहा लंबे समय से और आज भी है। लेकिन कविता को हम सिर्फ इन मुद्दों तक सीमित करके नहीं देख सकते। इस धरती , आकाश में और शायद उस से भी परे- हमारी कल्पना का सारा फैलाव, मानसिक और ऐन्द्रिक विस्तार , कविता में हमारे अस्तित्व के अर्थ- विस्तार की तरह हमेशा रहा है और हमेशा रहेगा।

 

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सरोकार केवल स्थितियों तक सीमित नहीं किए जा सकते। हमारा आंतरिक,मानसिक और अशरीरी अंतस भी हमें उसी तरह उद्वेलित करता है- जैसे बाहरी स्थितियां, बल्कि ज्यादा। और फिर कल के सरोकार आज नहीं है, आज के सरोकार कल बदल सकते हैं। स्थाई महत्व केवल इसी बात का है कि मानव किस रूप में कविता के फैलाव में अपना स्थान रखता है।

 

हम प्राचीन कविता से परिचित हैं ,मध्ययुगीन कविता से भी परिचित हैं। साधारण जन इनके केंद्र में नहीं था । लेकिन साधारण जन के केंद्र में होने के कुछ और आयाम भी हैं। केवल स्थितियों और उनकी परिणीति  से जुड़े होने के अतिरिक्त कुछ और भी है -जो इंसान की भौतिक परिधि के भीतर प्रवेश करता है, उसे अपने ही चेतन के आभास से भर देता है । ऐसी ही तृप्ति हमें  शेक्सपियर के नाटक देते हैं ,जो अधिकतर कविता में हैं ।

शेक्सपियर के नाटकों की कविता सिर्फ एक कहानी ही नहीं कहती, केवल हमारा मनोरंजन मात्र नहीं करती, राजाओं , विदूषकों  तथा उनकी महत्वाकांक्षाओं अहंकारों,  संघर्षों, आत्मतृप्तियों का वर्णन मात्र ही नहीं करती । साधारणजन के सरोकारों  की भरपूर उपेक्षा के बावजूद भी वे नाटक आज भी सबसे अधिक उद्धृत हैं। उन नाटकों की कविता सिर्फ मानव  स्वभाव को ही परिभाषित नहीं करती, बल्कि जीवन की सार्थकताओं, निरर्थकताओं, प्रेरणाओं और अंतिम परिणीतियों को इतने सहज ढंग से उदघाटित करती है कि बार-बार हम उन्हें उद्धृत करना चाहते हैं।  शेक्सपियर के और भी समकालीन Christopher Marlow, Ben Johnson इत्यादि उस समय उतने ही प्रभावशाली थे, लेकिन सबसे अधिक याद रहे शेक्सपियर । उनकी अभिव्यक्ति की शक्ति ही  पंक्तियों के अर्थ को लोगों की स्मृति में आरोपित करती है।  इंसान को इतनी मानसिक और आत्मिक तृप्ति देना, एक समय -आयोजित सरोकार नहीं है। बल्कि हमारे चेतन अवचेतन को हमारी हथेली पर रख देने जैसा है कि हम उसे देख भी सकें, छू भी सकें।                        To be continued

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