बुझने से पहले शम्म भड़कती जरूर है, किस शायर की पंक्ति है याद नहीं। बात जहन में है। मैं पढ़ रहा था , अपने शीशे के बने हुए कमरे से बाहर देखता हुआ। पेड़ों के पत्ते लगभग गिर चुके थे । टहनियाँ निहत्थी होकर हवा में झूल रही थी। मुझे याद है वह सुबह। एक बड़ा पेड़ मेरे ठीक सामने खड़ा है। पता नहीं वो मुझे देख रहा है इस वक्त या नहीं। लेकिन मैं उसे भर्राए गले से धुंधलाई आंखों से एकटक देख रहा हूं। सारे पत्ते टूट चुके हैं। जैसे सारी उम्मीदें टूट गई हों। सिर्फ तीन पत्ते पास-पास टहनियों पर अभी भी झूल रहे हैं। किसी क्षण भी गिर सकते हैं ,यह तीनों पत्ते। देखना चाहता हूं भारी मन से कि एक दूसरे के कितने देर बाद गिरेंगे यह तीनों। मैं कुछ भी न करते हुए अपलक उधर ही देखता हूं ।कुछ देर में हवा का एक झोंका आया ।शीशे के इस तरफ बैठा हुआ मैं नहीं देख पाया, कितना तेज। यही तो हवा की शक्ति है, वह दिखती नहीं। एक दूसरे से कुछ ही पल की दूरी पर, मैंने देखा, दो पत्ते टूट कर हरी धरती पर ढेर हो गए। थोड़ी सी बर्फ एक दिन पहले पड़ी थी, अब पिघल चुकी थी। इसलिए मैं दोनों पत्तों को घास पर पड़े देख सकता था। तीसरा पता भी गिरेगा किसी भी क्षण। नहीं देखना चाहता था वह क्षण। मैं उठ कर वहां से चला गया। ..