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इतिहास के पन्नों से:

इतिहास के पन्नों से:

 

युद्घोत्तर दक्षिण-पूर्वी एशिया

-कृष्ण किशोर

कम्बोडिया, वियतनाम और लाओस 1940 से 1975 तक साम्राज्यवाद और समाजवादी विचारधारा की टक्कर में सब से अधिक लहूलुहान होने वाला धरती का टुकड़ा रहा। संसार के बहुत से हिस्सों में इस रक्तपात का इतना शोर नहीं सुनाई दिया । इतने छोटे क्षेत्र में इतनी लम्बी जंग एक बड़े नरसंहार का कारण बनी । ये तीनों देश फ्रांस के उपनिवेश थे। पहले फ्रांस से मुक्ति का युद्घ और फिर दूसरे विश्वयुद्घ के बाद ही समाजवादी क्राँति, अमेरिका से लम्बी लड़ाई और फिर कम्बोडिया का गृहयुद्घ/ लाखों लोगों की निर्मम हत्याएं – ऐसी त्रासदी है जिसने इन देशों के ढाई तीन हज़ार साल के इतिहास को धूमिल कर दिया है।

प्रणेता : वियतनाम

अब तक वियतनाम के बारह नाम इतिहास में प्रचलित हैं। सन्‌ 1802 में इसे पहली बार वियतनाम पुकारा गया, उससे पहले इस भूभाग का नाम वॉन लांग था। अंग्रेजी के ‘S’ अक्षर के आकार का यह देश 13,000 वर्गमील में फैला हुआ है।

वियतनामी सभ्यता अत्यन्त प्राचीन है। शायद पाषाण युग से भी पहले दक्षिणी चीन और पूर्वी हिन्देशिया से लोग आकर यहाँ ब्लैक रिवर की घाटी में बस गए थे त्रंगसान की पर्वत श्रृंखला उत्तर से दक्षिण तक वियतनाम को लाओस से अलग करती है। उत्तरपूर्व में चीन और दक्षिण में मीकाँग नदी के पार कम्बोडिया है।

ईसा पूर्व सन्‌ 111 से सन्‌ 939 तक चीन का आधिपत्य वियतनाम पर रहा। लम्बी लड़ाईयों के बाद चीन से आजा़दी तो मिली लेकिन पारिवारिक न्यूएन शासकों का दौर शुरू हो गया। सन्‌ 1600 में फ्रांसीसी व्यापारी और मिशनरी वियतनामी तटों पर आ पहुँचे। वियतनाम के न्यूएन शासकों ने फ्रांसीसी मिशनरियों को मारना शुरू कर दिया। इस प्रकार फ्रांस को वियतनाम के विरुद्घ फौजी कार्यवाही करने का बहाना मिल गया। धीरे-धीरे 1883 तक पूरे वियतनाम पर फ्रांस ने कब्ज़ा कर लिया जो 1954 तक रहा।

दूसरे विश्वयुद्घ के दौरान ही एक और ख़तरनाक दौर शुरू हो गया था। अमरीकी साम्राज्यवाद अपनी सैनिक शक्ति द्वारा साम्यवादी विचारधारा को फैलने से रोकने में जुट गया। वियतनाम और कम्बोडिया उस समय इस आक्रमण का शिकार हुए -जब एक तरफ देशों की अपनी उपनिवेशिक स्थिति से आज़ादी का संघर्ष निश्चयात्मक तीव्रता तक पहुँच चुका था, दूसरी ओर विचारधाराओं का फैलाव जनमानस को अपनी तात्विक ( Theoretical ) और प्रयोगधर्मी ( Experimental ) स्थिति से निकाल कर एक वस्तुपरक ( Objective/Practical ) आकार देने में लगा हुआ था। 1940 में हो ची मिन्ह वियतनाम लौटे थे – तीस वर्ष तक विदेशों में रहने, तपने और निर्णायक युद्घ की मनस्थिति ले कर। इण्डोचाईना साम्यवादी दल का गठन वे पहले ही कर चुके थे। उस वक्त सारे इण्डोचाईना पर जापान का एक युद्घ विजेता के रूप में कब्ज़ा था। हो ची मिन्ह ने वियतनाम वापिस आते ही एक गुप्त स्थान पर वियतमिन (VietMinh) साम्यवादी संगठन बनाया। फ्रांस और जापान के विरूद्घ गुरिल्ला अभियान भी तभी शुरू कर दिया। विश्वयुद्घ में जापान की हार के दो दिन बाद ही – 15 अगस्त 1945 को साम्यवादी क्राँति सेना ने पूरी आक्रामक तैयारी के साथ फ्रांस के खिलाफ आजा़दी का युद्घ छेड़ दिया। विश्वयुद्घ की समाप्ति, जापानी शक्ति का हास और फ्रांस का इन उपनिवेशों पर दोबारा कब्ज़ा – यह सब इतनी तरल और नाटकीय स्थिति में था कि क्राँति सेना को सिर्फ दो सप्ताह लगे वियतनाम पर अधिकार करने में। 2 सितम्बर 1945 को डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ वियतनाम की स्थापना कर दी गई। पर किसी भी साम्राज्यवादी सरकार ने इस प्रजातन्त्र को स्वीकृति नहीं दी – हालांकि विश्वयुद्घ के दौरान अमेरिका ने ही इस क्राँति सेना को जापान के खिलाफ युद्घ का प्रशिक्षण दिया था।

अमरीकी मेजर आर्कीमीडीज़ एल.ए.पैटी (Patti) ने वियतनाम की स्वतन्त्रता का घोषणापत्र तैयार करने में हो ची मिन्ह की सहायता भी की थी। लेकिन वह जापान के खिलाफ एक षड़यन्त्रकारी मोर्चा था जिसे अपने अपने ढंग से सब इस्तेमाल करने में लगे हुए थे।

फ्रांस वियतनाम पर अपना कब्ज़ा नहीं छोड़ना चाहता था इसलिए विश्वयुद्घ के बाद नवम्बर 1946 में फ्रांस और वियतनाम फिर से एक लम्बे युद्घ की स्थिति में आ गए। इस असली इंडोचाईना युद्घ का 85 प्रतिशत व्यय अमेरिका ने वहन किया। 1954 तक यह युद्घ चला। उत्तरी वियतनाम के शहर दिएन बिएन फू में निर्णायक युद्घ हुआ जिसमें फ्रांस को पूर्ण पराजय का मुँह देखना पड़ा। इस हार के बाद जैनेवा में हुई एक शांतिवार्ता में 21 जुलाई 1954 को वियतनाम को उत्तर और दक्षिण में बाँट दिया गया। उत्तरी हिस्सा हो ची मिन्ह की क्राँतिकारी सेना को और दक्षिणी वियतनाम फ्रांस के समर्थकों को दे दिया गया। एक वर्ष के भीतर चुनाव कराने का निर्णय भी लिया गया। ताकि लोग जिस स्थिति में रहना चाहें, स्वयं चुन लें। लेकिन फ्रांस ने समर्थकों ने इस निर्णय को लागू नहीं किया, चुनाव नहीं होने दिए।

अमेरिका और फ्रांस जानते थे कि लोग क्या चाहते हैं। इस स्थिति के विरुद्घ साम्यवादी उत्तरी वियतनाम ने दक्षिणी वियतनाम में घुसपैठ शुरू कर दी और 1958 में एक लम्बा गृहयुद्घ शुरू हुआ। तीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों के समयकाल इस युद्घ की छाया में गुज़रे। जान एफ. कैनेडी, लिन्डन जॉनसन और रिचर्ड निक्सन ने अरबों-खरबों डॉलर और आठ लाख अमरीकी सैनिक इस युद्घ में दक्षिण वियतनाम की मदद के लिए झोंक दिए।

हर प्रकार के खतरनाक बमों और गैसों का प्रयोग इस युद्घ में किया गया। वहाँ सालों-साल पड़े रहे अमरीकी सैनिकों ने हज़ारों वियतनामी स्त्रियों से अवैध सम्बन्ध स्थापित किए, बच्चे पैदा किए और 1976 में युद्घ की समाप्ति पर इन्हें एक अनिश्चित अनहोने प्रेत समय के हवाले करके अमेरिका लौट गए। इन अवैध संतानों को Amreasians कहा जाता है। बेशुमार तादाद में ये युवक-युवतियाँ अपने पिताओं की तलाश में अमेरिका पहुँचे। उन्हें सामाजिक स्वीकृति देने का और उन के पिताओं का नैतिक संकट एक लम्बे समय तक अमरीकी परिवारों के गले की फांस बना रहा। हो ची मिन्ह उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम की एकता देखने के पहले ही 2 सितम्बर 1969 को इस युद्घ क्षेत्र से विदा ले गए थे। उनकी हृदय रोग से मृत्यु हो गई थी। लेकिन युद्घ चलता रहा। अमरीकी नागरिक भी युद्घ से तंग आ गए थे, तब तक लगभग एक लाख अमरीकी सैनिक इस युद्घ में मारे जा चुके थे।

अमरीकी नागरिकों ने अपनी सरकार के खिलाफ एक व्यापक अभियान छेड़ा जिसमें हर स्तर के लोग, बुद्घिजीवी, कलाकार, अभिनेता, कामगर, अध्यापक सभी शामिल थे। इतने विस्तृत स्तर पर नरसंहार और संसाधनों की क्षति बहुत ही कम युद्घों में हुई होगी। दस लाख उत्तरी वियतनामी क्राँतिकारी और करीब ढाई लाख दक्षिणी वियतनामी सैनिक इस युद्घ में मारे गए। प्राकृतिक संपदा बमों की भेंट चढ़ गई। शहर, जंगल, खेत, पहाड़ सबने इस युद्घ में अपना आप खोया। मार्च 1975 में दक्षिणी वियतनाम और अमेरिका की अंतिम पराजय हुई।

वहां का राष्ट्रपति न्यूएन वेन थियो देश छोड़ कर ताईवान भाग गया। अमेरिका की इस पराजय का साया आज भी अमेरिका की धरती को काला किए रखता है। यह एक ऐसा दंश है सारी अमरीकी जाति के लिए जिस की पीड़ा को याद रखने के लिए उन्हें किसी अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती।

 

कम्बोडिया :रक्तपात का महासागर

कम्बोडिया इन्डोचाईना के दक्षिण पश्चिम भाग में स्थित है। यह मुख्य रूप से खमे जाति ( Khmer) के लोगों का देश है। यहां के लोग दिखने में बिल्कुल भारतीयों जैसे लगते हैं। उन के नामों में भी भारतीय ध्वनि और अर्थ का अद्‌भुत सामंजस्य है। खमे ही वहाँ की भाषा का नाम है जिस पर भारतीय प्राचीन भाषाओं का बहुत अधिक प्रभाव है। दो हज़ार से भी अधिक वर्षों का इतिहास कम्बोडिया को उन सभी सांस्कृतिक प्रभावों से जोड़ता है जो भारत में विकसित हुए और लगभग सारे दक्षिण-पूर्वी एशिया में अपनाए गए।

विदेशी साम्राज्यों के अधीन रहने के पहले सन्‌ 802 से 1432 तक कम्बोडिया का नाम अंगकार राज्य था। इस दौरान उन्होंने स्याम (अब थाईलैंड), लाओस और दक्षिणी वियतनाम पर भी कई बार अपना आधिपत्य स्थापित किया, एक विस्तृत और शक्तिशाली अंगकार राज्य ने शानदार भवनों और मंदिरों का निर्माण किया। अंगकार वाट नामक मंदिर संसार के प्रसिद्घतम्‌ और विशाल मंदिरों में गिना जाता है। बाद में बौद्घ धर्म के प्रभाव से राज्य की शक्ति क्षीण होने लगी। सैनिक शक्ति का हास होने लगा और पड़ोसी देशों, खासकर स्याम (थाईलैंड) के आक्रमण होने लगे। सन्‌ 1432 में स्याम की फौजों ने राजधानी अंगकार को बरबाद कर दिया। हालांकि स्याम और कम्बोडिया (अंगकार) का एक ही धर्म था, फिर भी आक्रमणकारियों ने विजयोन्माद में अंगकार के प्राचीन स्थलों को विस्तृत क्षति पहुँचाई। अगले चार सौ वर्ष वियतनाम, थाईलैंड और अंगकार के बीच संघर्ष और राज्यों की विजय-पराजय की गाथाओं का इतिहास रहा।

इसी बीच अठारहवीं सदी के अन्त तक फ्रांस अपने राजनीतिक और व्यापारी पांव इस क्षेत्र में फैला चुका था। सन्‌ 1863 में कम्बोडिया के नाम-मात्र के राजा को थाईलैंड के आक्रमणों से बचने के लिए फ्रांस के साथ संधि करनी पड़ी जिसके तहत वहां की सुरक्षा का भार फ्रांस के हाथों में आ गया। लगभग 90 वर्ष फ्रांस का राज्य कम्बोडिया पर रहा। 1954 में जिनेवा में हुई एक संधि के अनुसार कम्बोडिया को आज़ादी दे दी गई। हो ची मिन्ह के समाजवादी क्राँतिकारी अपने हथियार और गोरिल्ला सैनिक कम्बोडिया के पूर्वी हिस्सों में (जो दक्षिण वियतनाम के साथ लगता है ) छिपा कर रखते रहे ताकि वे अमेरिकी आक्रमणों से सुरक्षित रहें। राजा नोरोदम यह जानते हुए भी स्थिति को अनदेखा करता रहा। चीन और रूस के साथ वह विरोध नहीं ले सकता था। अमेरिका की चेतावनी को वह अनदेखा़ करता रहा। 1970 में अमेरिका ने कम्बोडिया के जनरल लोन नोल (Lon Nol) के साथ मिलकर राजा के विरुद्घ विद्रोह करा दिया। राजा नोरोदम को देश छोड़ कर भागना पड़ा।

कम्बोडिया में साम्यवादी क्राँतिकारी नेता पॉल पॉट (सालोथ सार)

क्राँतिकारी नेता ‘पॉल पॉट’ (PolPot) और उसकी सेना खमे रूज के नेतृत्व में लाखों कम्बोडियन अमरीकन एजेन्ट लोन नोल के शासन के खिलाफ लड़ते रहे। पांच साल में लाखों कम्बोडियन मारे गए। पूर्वी कम्बोडिया में अमरीकी बमबारी के कारण वहाँ के ग्रामीण किसान पॉल पॉट की खमे रूज सेना में शामिल होते चले गए। वे अमेरिका द्वारा थोपी गई सरकार के विरुद्घ ग्रामीण कम्बोडिया को संगठित करने में और एक हथियारबंद क्राँति में अद्‌भुत रूप से सफल रहे। आखिर में 30 अप्रैल 1975 में राजधानी फनोम पैन पर ख़मे रूज ने एक निर्णायक आक्रमण करके कम्बोडिया पर कब्ज़ा कर लिया। खमे रूज ने देश का नाम बदल कर कम्पूचिया रख दिया। राजा नोरोदम को नाममात्र का अधिपति बनाया गया, पर सारी शक्ति पॉल पॉट के हाथ में थी। वह देश का प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया।

कम्बोडिया के इतिहास में पॉल पॉट का नाम रोंगटे खड़े कर देने वाला नाम है। उस व्यक्ति का एक सम्पूर्ण क्राँतिकारी स्वप्न था जिसे वह हर कीमत पर वास्तविकता का रूप देने में जुट गया। वह खेतीहर व्यवस्था वाले ऐसे समाज का निर्माण करना चाहता था जिसमें किसी सामन्ती परम्परा का चिन्ह भी न बचे। ऐसे पुननिर्माण के लिए पॉल पॉट और खमे रूज ने एक व्यापक नरसंहार किया। सम्पति का स्वामित्व समाप्त, निजी धन-पूंजी समाप्त, धार्मिक संस्थान बंद, स्कूल-कालिज बंद, हस्पताल बंद – सब कुछ के लिए नई साम्यवादी ग्रामीण व्यवस्था। यह संकल्प इतना निरंकुश और तीव्र था कि बाहरी या पुराने या विरोधी-सभी तत्वों को समाप्त करना ज़रूरी था। तीन-चार लाख वियतनामियों को देश से बाहर खदेड़ दिया गया। दो लाख से अधिक चीनी लोगों की जातीय स्वच्छता के नाम पर खमे रूज ने हत्या कर दी। कम्बोडिया के सारे शिक्षित समुदाय को भागना पड़ा या मरना पड़ा – अपने पुराने संस्कारों की वजह से और देहाती इलाकों में जाकर काम न कर सकने की वजह से। उच्च वर्ग को और मध्य वर्ग को शहर छोड़ कर गाँवों में जाकर शारीरिक श्रम करना पड़ा या मरना पड़ा। सारा देश एक सामूहिक खेती – श्रमिक कैंप के रूप में बदल दिया गया। Yale University के एक अनुमान के अनुसार 15 से 17 लाख लोग भागते-भागते (कम्बोडिया की आबादी का 20 प्रतिशत) मर गए या पकड़-पकड़  कर मार दिए गए। लगभग 50,000 लोग सीमा पार करने में सफल हुए और थाईलैंड के शरणार्थी कैम्पों में पहुँच गए। आखिर यह स्वपन और नरसंहार समाप्त हुआ जब 25 दिसम्बर 1978 को वियतनाम ने कम्बोडिया पर आक्रमण कर दिया। स्थानीय लोगों की सहायता से वियतनाम को कुछ ही दिन लगे – खमे रूज को परास्त करने में। उसके बाद भी डेढ़ लाख लोग भागकर थाईलैंड के शरणार्थी कैम्पों में चले गए।

वियतनामियों द्वारा स्थापित सरकार, खमे रूज के पराजित सैनिकों और राजा नोरोदम के समर्थकों की तीन तरफा लड़ाई फिर भी जारी रही। आख़िरकार मई 1993 में विश्वसंघ की सहायता से एक संयुक्त सरकार बनाकर उसमें तीनों दल शामिल किए गए। पॉल पॉट का अपने ही साथियों से संघर्ष शुरू हुआ। अन्ततः पॉल पॉट को बन्दी बना लिया गया। बन्दीगृह में ही इस स्वप्न द्रष्टा, क्राँतिकारी लेकिन निर्मम संहारक पॉल पॉट की अप्रैल 1998 में मृत्यु हो गई। आज भी कम्बोडिया के नागरिक सुरक्षित, स्थिर राजनीतिक जीवन से वंचित हैं। Killing Fields  नामक प्रसिद्घ फ़िल्म आखिर इस त्रासदी को कितना चित्रित करती! यह त्रासदी किसी भी माध्यम की पकड़ में आने वाली पिशाचिन नहीं है।

 

लाओस – पक्ष और विपक्ष का आहत चितेरा

लाओस चारों तरफ से बर्मा, चीन, वियतनाम, थाईलैंड और कम्बोडिया से घिरा हुआ देश है। उत्तरी लाओस में मंग (Hmong) लोग रहते हैं जो किसी समय चीन के सीमावर्ती इलाकों से यहां आ कर बस गये थे। नीचे मैदानों में लाओ जाति के लोग रहते है। इस देश में भी बुद्घ धर्म और उस से जुड़ी सस्कृति का विस्तृत प्रभाव देखा जा सकता है। उत्तरी क्षेत्रों में चीन का प्रभाव अधिक रहा। सन्‌ 1353 में पहली बार एक समृद्घ और स्वतन्त्र राज्य लाओस में फा गूम नामक शासक ने स्थपित किया। उसके बाद सत्रहवीं और अठहारवीं सदी में लाओस फिर पड़ोसी देशों के कब्जे़ में रहा अधिकतर स्याम (थाईलैण्ड) के। आखिरकार, 1893 में लाओस पर भी फ्रांसीसियों ने कब्ज़ा कर लिया जिससे एक और कड़ी यूरोपीय साम्राज्यवाद में जुड़ गई।

दूसरे विश्वयुद्घ के दौरान जापान के अधिकार में सारा इन्डोचाईना रहा। युद्घ समाप्त होते ही स्थिति फिर बदल गई। ये सारे क्षेत्र फ्रांस को लौटा दिये गए। लेकिन उन्हीं दिनों वियतनामी क्रान्तिकारियों की सहायता से पाथेट लाओ नामक क्राँति सेना लाओस में भी स्थापित हो चुकी थी।

लाओस के शासकों के विरुद्घ पाथेट लाओ का लम्बा संघर्ष जारी रहा। अमेरिका ने उत्तरी लाओस में मंग (Hmong) लोगों के साथ मिल कर एक गुप्त सेना स्थापित की हुई थी। केवल अमरीकी नागरिकों से ही यह गुप्त रखी गई थी। लाओस में और वियतनाम में अमरीकी सहायता इसी क्षेत्र से पहुंचती थी। इस के विरुद्घ हो ची मिन्ह ट्रेल की राह से वियतनामी और लाओशियन क्राँति सेनाएं एक दूसरे की सहायता करती थीं।

अन्ततः 1975 में एक तरफ वियतनाम और कम्बोडिया साम्यवादियों के अधिकार में आ गये, और पाथेट लाओ ने सम्पूर्ण लाओस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। छः सदियों पुराना राजकीय शासन समाप्त हुआ और लाओ पीप्लज़ डैमोक्रेटिक रिपब्लिक की स्थापना हुई। 1991 तक लाओस ने सख्ती से साम्यवादी नीतियों को लागू किया लेकिन उस के बाद संविधान में विस्तृत संशोधन किये गये। उदारवादी नीतियां अपनाई गईं और यूरोपीय देशों से पुनः व्यापारिक और राजनीतिक सांझ का दौर शुरू हुआ।

इस तमाम उथल-पुथल में उत्तरी लाओस से एक लाख से भी अधिक संख्या में अमरीकी समर्थक मंग (Hmong) लोगों को वहां से भागना पड़ा। वर्षों तक शरणार्थी कैंपों में थाईलैण्ड में रहकर अमेरिका और फ्रांस में शरण लेनी पड़ी। बेशुमार लोगों की हत्याएं हुईं या उन्हें देश छोड़ कर जाना पड़ा। यह सब अमरीका का साम्यवाद को उस क्षेत्र में फैलने से रोकने के प्रयासों का सीधा परिणाम था। साम्राज्यवादी सैनिक शक्ति से विचारधाराओं की लड़ाई में अमरीकी पराजय क्राँतिकारियों के लिए हमेशा शक्ति का स्त्रोत बन कर रहेगी। भविष्य में भी लड़ाईयां जितनी भी लम्बी क्यों न हों, इन्डोचाईना का यह संघर्ष हमेशा एक मिसाल बन कर रहेगा। निर्ममता और दृढ़ निश्चय की एक ज्वलन्त मशाल इन्डोचाईना – दक्षिणी पूर्वी एशिया हमेशा हमारे सामने रहेगी।

 

थाईलैंड – इंडोचाईना युद्घ की विश्रामस्थली

दक्षिणपूर्वी एशिया के बाकी देशों की तरह ही थाईलैंड की भी हजा़रों साल पुरानी संस्कृति और सभ्यता है। इस देश के पश्चिम में बर्मा (मायान्मार), पूर्व में लाओस और वियतनाम तथा उत्तर पूर्व में चीन है। लेकिन सब से अधिक इस देश की संस्कृति को भारत और भारतीय धर्मग्रथों ने प्रभावित किया। यहां का सब से महत्वपूर्ण ग्रंथ आज भी रामायण महाकाव्य है। महाभारत को कोई खास मान्यता इस संस्कृति में नहीं मिली। सब से महत्वपूर्ण बात थाईलैंड के बारे में यह है कि बाकी दक्षिणपूर्वी एशिया के देशों की तरह यह देश कभी भी किसी यूरोपीय शक्ति का उपनिवेश नहीं रहा। इन्डोचाईना में चलने वाले विस्तृत नरसंहार का शिकार बनने से भी थाईलैंड बचा रहा। फ्रांस की एक मात्र उपनिवेशक शक्ति जो इस क्षेत्र में थी, थाईलैंड को सैनिक शक्ति या कूट नीति से अपना गुलाम नहीं बना सकी। विश्वयुद्घ के दौरान थोड़े समय के लिए इस देश पर जापान का दूरगामी प्रभुत्व अवश्य रहा वह भी मात्र इतना कि जापान की फौजें थाईलैंड से होकर मलय देशों की तरफ जा सकें। थाईलैंड की इस संधि के कारण ही युद्घ की समाप्ति पर इसे भी हारे हुए देशों में मान लिया गया था। लेकिन इस का प्रभाव थाईलैंड की क्षेत्रीय स्वायत्तत्ता पर बिल्कुल नहीं पड़ा। कुछ इलाके जो फ्रांसीसी उपनिवेश थे और थाईलैंड़ के अधिकार में आ गए थे, केवल वह इलाके इन्हें फ्रांस को लौटाने पड़े।

इस के अतिरिक्त सारी साम्यवादी क्राँति के दौरान यानी 1940 से 1976 तक थाईलैंड रक्तपात से बचा रहा। साम्राज्यवादियों की हार के बाद लाखों की संख्या में शरणार्थी लाओस कम्बोडिया और वियतनाम से भाग कर थाईलैंड आ गये। मीकाँग नदी और उस के साथ के घने जंगल ही इन भागने वालों का एकमात्र सहारा और साधन रहे। लकड़ी काट कर, छोटी-छोटी कश्तियां बना कर लोग इस चौड़ी गहरी और कहीं कहीं तूफानी नदी को पार करके थाईलैंड पहुंच जाते थे। कई वर्षों तक उन शरणार्थी कैंपों में रहने के बाद इन लोगों को दूसरे देशों, खास कर अमरीका, कैनेडा, और फ्रांस में बसाया गया।

तेरहवीं सदी में थाईलैंड (स्याम) के राजाओं ने मिल कर कम्बोडिया के हिन्दू राजाओं को अपनी धरती से बाहर निकाल कर एक थाई राज्य पहली बार व्यवस्थित ढंग से स्थापित किया था। सुखो थाई राजधानी से राजा राम खमेंग ने सन 1365 तक राज्य किया। फिर अयुथ्या नामक वंश के राजाओं ने सन 1700 तक थाईलैंड पर शासन किया। अयुथ्या वंश के प्रथम नरेश रामथिवोदी ने दो महत्वपूर्ण काम किए। बुद्घ धर्म को विधिवत राज्य धर्म बनाया और एक धर्मशास्त्र के नाम से कानून व्यवस्था संयोजित की जो उन्नीसवीं सदी तक लागू रही। सोलहवीं सदी तक थाईलैंड के जनमानस और सांस्कृतिक सम्पदा का स्त्रोत हमेशा भारत ही रहा। दूसरा दूरगामी प्रभाव चीन का रहा। अयुथ्या साम्राज्य का काफी विस्तृत क्षेत्र पर प्रभुत्व था। मलय पैनिन्सुला का इस्लामी भाग भी थाई कब्जे़  में रहा। इस राज्य का पतन हुआ 1767 में जब बर्मा ने आक्रमण किया। राज परिवार को भाग कर जंगलों में शरण लेनी पड़ी। लेकिन सन्‌ 1782 में जनरल चाकरी ने फिर से थाईलैंड का राज्य संभाला और अपने आप को राम प्रथम के नाम से स्थापित किया। बाद में उसी वंश के कई राजाओं ने राज्य किया। अन्ततः सन 1932 में सैनिक विद्रोह ने राज्य को अपने संरक्षण में ले लिया तब तक इस देश को स्याम कहा जाता था। थाईलैंड नाम इसके बाद अपनाया गया। राजा नाम मात्र का संवैधानिक प्रमुख बन कर रह गया। विश्वयुद्घ के दौरान कितने ही उतार चढ़ाव इस देश ने देखे। अन्ततः सन 1992 में सैनिक शासन का अन्त और प्रजातंत्र की स्थापना हुई। थाईलैंड एक बहुत महत्वपूर्ण और विकासशील देश है जो उस क्षेत्र में हमेशा निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में रहेगा।

 

 

 

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