तुमने तन को सौ आवाजें दीं लेकिन
मेरे साधु मन को नहीं पुकार सके।
तुमने मेरे रोम-रोम को परखा है
पर अन्तस की आंखें नहीं निहार सके।
बोलो किन पेड़ों की छाया में बैठूं
और पुकारूं ऐसा कि तुम आ जाओ
बोलो किस तपती दोपहरी में रोऊं
जिससे तुम बादल बनकर गहरा जाओ
तुमने मेरे रोम रोम को उमसाया
पर अंतस का मौसम नहीं संवार सके।
तुम क्या जानो मैं भीतर के पांवों से
कितनी बार तुम्हारे देश भटक आया
तन की दूरी भी क्या कोई दूरी है
मन की झोली खाली थी, सो भर लाया
तुमने भी कोशिश की खुद को भरमाया
दूर खड़े सच को तुम नहीं पुकार सके।
ये जग तो तन की आंखों को बाधा है
मन से देखोगे तो राह न रोकेगा
संभव है जीने वालों को बांध सके
लेकिन मरने वालों को न टोकेगा
तुमने जिस्म रंगा है गेरू के रंग में
पर व्यसनों का चोला नहीं उतार सके।
प्रेम दूसरों से मिलने का ढोंग नहीं
प्रेम स्वयं से मिलने की मजबूरी है
इतनी बात समझ लोगे तो जानोगे
मन और आंखों में नन्ही सी दूरी है
जो आंखों के अंधकार को हर लेता
तुम मन में वो सूरज नहीं उभार सके।
रोम रोम में ध्वनि है मेरे अंतस की
अपने मन पर कान धरो तो जानोगे
जीने का दुख सहज समझ आ जाएगा
मरने वालों के सुख को पहचानोगे
तुमने गंगा तट पर उमर गुजारी है
पर मटमैला आंचल नहीं निखार सके।