अफ्रीकी समाज चौदहवीं पन्द्रहवी सदी में सिर्फ एक कबीलाई समाज जैसा ही था। अलग अलग क्षेत्रों में कबीलों के शासक थे, आस पास के क्षेत्रों से कर वसूल करते थे। ये कबीलाई राजा आपस में लड़ते रहते थे। हारी हुई फौजों को गुलाम बना लिया जाता था। अपराधियों को भी गुलाम बना लिया जाता था। इन गुलामों को वे अरब और यूरोप के व्यापारियों को बेच देते थे। बदले में उन्हें मिलती थीं – बन्दूकें, कपड़े, मोती और खाने की चीजें । ये सब कुछ इन राजाओं को बहुत प्रिय था। यूरोपियनों से पहले भी अरबी व्यापारी थे जो गुलाम खरीद कर अपने देश में और यूरोप के व्यापारियों को बेचते थे। कुछ अफ्रीकी कबीलाई क्षेत्र ऐसे भी थे जो किसी के अधिकार में नहीं थे। छोटे छोटे समूहों में रहने वाले ये अशासित लोग सब से ज़्यादा शिकार होते थे, इन व्यापारियों के। इन क्षेत्रों में जाकर ये व्यापारी लोग बन्दूक के जोर से जो मिले, जितने मिले – पकड़-बाँध कर अपने अड्डों में ले आते थे। वहां जब काफी मात्रा में वे इक्ट्ठे हो जाते थे, तो इनके हाथ पैर जंजीरों से बांध कर, गर्दनों पर जुए रख कर, पैदल घसीटते उन्हें समुद्र तक ले जाया जाता। रास्ते में बहुतेरे लोग मर जाते थे। उनके नरपिंजर उन्हीं रास्तों पर पड़े मिलते। इन लगभग नंगे गुलामों को दो फीट चौड़े पट्टों से बांधकर लिटा दिया जाता था। इन में औरतें और बच्चे भी बिल्कुल नंगे इसी तरह बंधे होते थे। मई 20, 1860 में Harper मैगज़ीन में एक पकड़ लिए जहाज पर पांच सौ बन्दी गुलामों के वर्णन और चित्र प्रकाशित हुए थे। इस जहाज़ को पश्चिमी क्यूबा के पास फ़्लोरिडा के तट पर पकड़ा गया था। कांगो नदी में इन गुलामों को जहाज में भरा गया था। प्रेस ने इन की भीतर की स्थितियों का वर्णन किया और चित्र प्रकाशित किये। यह इसलिए संभव हो सका कि 1807 में कानूनी तौर पर गुलामों को बाहर से आयात करना अवैध हो गया था। 1860 का यह जहाज़ था। ये क्रूरताएं ऐसी हैं जो शायद कहीं अन्य जगह पढ़ने, देखने, सुनने को नहीं मिलतीं। इतने बड़े पैमाने पर इतनी अधिक क्रूरता बिल्कुल अविश्वसनीय हिस्सा है मानव इतिहास का।
दो सौ सालों तक ये अश्वेत इन्सान अफ्रीकी देशों – प्रमुखतः माली, सिनेगल, गाम्बिया, गिनी, आईवरी कोस्ट, लाईबीरिया, घाना, टोगो, नाईजीरिया, कैमरून, अंगोला और कांगो इत्यादि से लाकर अमेरिका की मंड़ियों में बेचे जाते रहे। अलग अलग शर्तें थीं बेचने, खरीदने की। ज़्यादातर को उम्र भर के लिए खरीदा जाता था। वे इन का कुछ भी कर सकते थे। हत्या तक हो सकती थी। न्यायालय उन हत्याओं को दण्डनीय अपराध ही नहीं मानते थे। ऐसे फैसले दर्ज़ मिलते हैं जहां जजों ने साफ कहा कि यह एक दुखद बात है, लेकिन दण्डनीय नहीं है। पहले 50-60 वर्षों तक कुछ निश्चित समय के लिए गुलाम खरीदे जाते थे। उस के बाद चाहे तो किसी और के पास बेच दिए जाएं या आज़ाद कर दिए जाएं।
एक तरह से बंधुआ। लेकिन 1760 में ही अमरीकी राज्यों ने कानून बनाने शुरू कर दिए जिन के तहत वे उम्र भर के लिए खरीद लिए जाते थे। उन के बच्चे हुए या जो होंगे, वे भी मालिक की जायदाद होंगे। कई राज्यों में गुलामों को शादी करने की अनुमति नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे इस कानून में ढील दी गई। क्योंकि बच्चे होंगे तो गुलामों की आबादी बढ़ेगी। वे अपनी कोई ज़मीन जायदाद नहीं खरीद सकते थे। कहने सुनने में ये बात बड़ी भली लगती है कि गुलाम अपनी आज़ादी खरीद सकते थे। दस हज़ार में से किसी एक गुलाम को किसी खास स्थिति में अगर उसके मालिक ने किसी और के पास उसे किराए पर दे दिया, क्योंकि उसे पैसे की ज़रूरत है या उस के पास ज़रूरत से ज़्यादा गुलाम हैं तो वह गुलाम अतिरिक्त मेहनत करके इतने पैसे जोड़ ले कि मालिक को अपनी कीमत चुका दे, तो वह आज़ाद हो सकता था। लेकिन उम्र भर के लिए खरीद लिए गए गुलाम उस स्थिति में आने के अधिकारी थे ही नहीं। आज़ाद होने वाले गुलामों को भी अक्सर अमरीकी गिरोह अगवा कर लिया करते थे। उन्हें यातनाएं देकर दोबारा किसी को बेच दिया करते थे। कानून उन का नहीं था। सरकार उनकी नहीं थी। क्या कानूनी है और क्या गैर कानूनी, इस बात का उस समाज में अश्वेत लोगों के लिए कोई अर्थ ही नहीं था।
1861 में आज़ादी के ऐलान के बाद भी बीसवीं सदी के छठे दशक तक, रंग के आधार पर अलग करने की नीति चलती रही। सौ साल बाद 1954 में कानून बना कि रंग के आधार पर बच्चों को स्कूलों में दाखिले से मना नहीं किया जा सकता, उन्हीं बसों में अश्वेतों को बैठने से मना नहीं किया जा सकता। रेस्तरां, शौचालय, पार्क इत्यादि सब के सांझे प्रयोग के लिए होंगे इत्यादि। 1954 के इस कानून के विरोध में कई राज्यों ने उन स्कूलों को धन देना बंद कर दिया, जो काले बच्चों को दाखिल करते थे। वर्जीनिया राज्य में पब्लिक स्कूल इसी लिए बंद कर दिए गए। 1969 तक वर्जीनिया की एक काऊंटी में स्कूल पांच साल तक बंद रहे। गोरे बच्चे प्राईवेट स्कूलों में जाते रहे। सारे अश्वेत बच्चे और कुछ बहुत गरीब गोरे बच्चे किसी स्कूल में नहीं जा सके 1963 में मार्टिन लूथर किंग ने राजधानी वाशिंगटन में दो लाख लोगों का जुलूस निकाला। वहीं उन्होंने अपना प्रसिद्घ भाषण दिया – ‘I Have a Dream’ जो आज अमरीकी इतिहास और मानस का हिस्सा बना हुआ है। लेकिन संघर्ष मात्र कानून बना देने से समाप्त नहीं होता और हर युग में मार्टिन लूथर जन्म नहीं ले सकते। इन्सान भीतर से कैसे बदले जा सकते हैं, इस बात के लिए हिंसा कभी कारगर नहीं हुई और अहिंसा को एक शक्तिशाली आंदोलन का रूप लेना पड़ता है प्रभावी होने के लिए। देश की सरकारें ही अपने कानूनों को ईमानदारी और सख्ती से लागू करती रहें और मानवीय मूल्यों का हर संवैधानिक तरीके से लगातार प्रचार प्रसार होता रहे तभी उम्मीद की जा सकती है कि लोगों के दैनिक आचरण का हिस्सा वे सब बातें बन जायें जो सरकारें लागू करना चाहती हैं। सब से सक्षम तरीका फिर शिक्षा की तरफ ही मुड़ता है। बालमनों को पूरी तरह संवेदित किया जा सकता है। बच्चे ऐसी स्थिति में आने चाहिए कि उन्हें अलगाव का आभास ही न हो। शिक्षा के माध्यम से इस ऊँचाई को छुआ जा सकता है।