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कृष्ण किशोर जी से कुछ प्रश्न

कृष्ण किशोर जी से कुछ प्रश्न

आपने एक अलग तरह की पत्रिका अन्यथानिकाली। लघु पत्रिकाओं का आज क्या महत्व है?

अन्यथाअपने स्वभाव और प्रयत्न में एक साधारण पाठक की पत्रिका के रूप में चर्चित हुई। विशिष्ट कुछ भी नहीं। विशिष्ट लेखक नहीं, पाठक नहीं ,विषय नहीं।  समाज और साहित्य का तारतम्य केंद्र में रहा। विषय कोई भी हो , भाषा पाठक अनुकूल, पाठककेंद्रित रही। सभी विषय अनुभवों की आंतरिकता में पाठक मानस के निकट और समानांतर बने रहने की कोशिश में रहे। सहजता और अनायासता भी उसी प्रयत्न का हिस्सा रही। कठिनता कहीं नहीं। अपरिचय कहीं नहीं , दुरूहता बिल्कुल नहीं।  साहित्य एक सामाजिक कर्म हैयही केंद्र में रहा।

इसके अतिरिक्त एक और आयाम अन्यथा पत्रिकाके फ़लक को थोड़ा अधिक विस्तार देता है और वह है विदेश को भी देश की धरती से जोड़ने का सहज प्रयास। जानेमाने विदेशी लेखकोंचिंतकों और अन्य क्षेत्रों के मनीषियों को इस तरह प्रकाशित प्रसारित करना जैसे वे सामूहिक विस्तार का अनिवार्य हिस्सा हों। उन भू भागों का संघर्ष, साहस, सोच आसानी से हमारी मानसिक धरती पर उतर सकता है। हमारा हिस्सा बन सकता है। विश्व साहित्य अपने रूप रंग में, अपनी समस्तता में इतना अलग भी नहीं कि हम अपने मन का दरवाजा खोल कर उसे भीतर न बुला सकें। अन्यथाअपने इन सब प्रयासों के कारण लोकमानस में अपनी जगह बना पाई ,तो मैं उसे अलग ढंग कीपत्रिका न कह कर एक सरलपत्रिका कहना अधिक उपयुक्त समझूंगा।

पीछे मुड़कर देखना जरूरी है आज की बात कहने के लिए। तभी हमें एहसास होगा कि अंतर कितना है और आज की स्थिति क्या है। लघुशब्द को हम किस अर्थ में देखें? पत्रिका के आकार या उसकी प्रकाशन संख्या ,या उसके पाठकों की संख्या? प्रकाशन संख्या कम होने पर भी पाठकों की संख्या ज्यादा हो सकती है। आकार छोटा होने पर भी पत्रिका का कद बड़ा हो सकता है। पहले की पत्रिकाएं ऐसी थी जिनके लिए लघुशब्द प्रयोग ही नहीं किया जा सकता था। अधिकतर साहित्य ,समाज, संस्कृति और कुछ हद तक राजनीति को साथ लेकर चलती थी ,जैसे धर्मयुग। और भी पत्रिकाएं थी उस जमाने में ,बड़ी संख्या में पाठकों की शरणस्थली। हिंदी के बड़े लेखक एक बड़ी भूमिका निभाते थे वहां। घरघर में पढ़ी जाती थी वे पत्रिकाएं। लेखक नायक जैसी स्थिति में थेसम्मानित और अनुकरणीय। तब थी पत्रिकाओं की समाज में भूमिका। एक ठोस जिम्मेवार, समय से लोहा लेती, मानसिकता को आकार देती पत्रिकाएं।  लोकप्रिय , सब जगह उपलब्ध। साहित्य का अर्थ भी इतना सीमित नहीं था। अंतर नहीं कर पाते थे कि किसी सामाजिक समस्या पर लिखा हुआ लेख साहित्य नहीं है। आज स्थिति ऐसी है की भूमिका की बात करना एक छिद्र से बाहर देखने जैसा लगता है। कौन पाठक है, ढूंढने निकलना पड़ता है। लोक प्रयास, मानसिकता ,लोक संघर्ष और अंततः समय की आवाज हमारी आज की लघु पत्रिकाओं के पन्नों से निकलकर हवाओं में शामिल होकर शरीर और मन को नहीं छूते।  लघु पत्रिका का अर्थ लघु प्रयास नहीं है। प्रयास बड़ा हो सकता है, अपने लघु आकार में भी। 

आपने इतने साल अंग्रेजी पढ़ाई, भारत में और अमेरिका में भी।  हिंदी साहित्य की वहां क्या दशा है?

अंग्रेज़ी पढ़ाना मुख्यत: आजीविका से संबंधित था। भारत में भी, और यहां अमेरिका में भी। भाषा और साहित्य पढ़ना एक अलग अनुभव होता है। विश्वविद्यालयी माहौल में जब हम अंग्रेजी साहित्य के छात्र थे, तब लगता थाधरती से आकाश तक ,कणकण में शब्दों ,ध्वनि और उनके अर्थों की गूंज ही जीवन का सार है। तब भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में ही मन अधिक रमता था, हालांकि अंग्रेजी भाषा में पढ़ा जाने वाला साहित्य  ही प्रमुख था। 

भाषा कोई भी हो, उसके मन प्राण ,उसकी धरती की गंध में ,हवा में, वहां की सांस्कृतिक संपदा में ,इतिहास में ,लोक कथाओं में ,लोक संगीत में ,मुहावरों कहावतों , चुहलबाजियों, भोग विलास मेंदुख दर्द में ,हास्य और रुदन में, यानी जीवन के प्रत्येक श्वास से किसी भाषा का अंतः करण भी और बाहरी स्वरूप भी निर्मित होता है ।और जब तक हम इस अंतःकरण का हिस्सा नहीं बनते, किसी भाषा को सृजनात्मक रूप में प्रयोग नहीं कर सकते। शायद यही कारण है कि हिंदी का अंग्रेजी में अनूदित साहित्य बहुत ही कम पढ़ा जाता है बाहर। 

भारत के बाहर हिंदीभाषी लोगों की संख्या बहुत है लेकिन हिंदी पढ़ने वालों की संख्या बहुत कम खास तौर पर हिंदी साहित्य पढ़ने वालों की। हिंदी के लेखक काफी है। लेकिन पाठक नहीं है। अमेरिका में केवल दो हिंदी की पत्रिकाएं हैं। कितनी पढ़ी जाती होंगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं। ऐसा ही अधिकतर देशों में होगा। हां आयातित कविता बहुत है। हर सोशल मीडिया पर हिंदी कविता पढ़ने को मिल जाएगी। फेसबुक, यूट्यूब टि्वटर इत्यादि पर बहुत हिंदी कविता है , पूरे चैनल कविता के हैं। हिंदी से इंग्लिश में अनुवाद करने वाली ऑर्गेनाइजेशंस भी है Translation.com जैसी। लेकिन इन सब से विदेश में हिंदी की स्थिति का कोई खास संबंध नहीं है । यहां लगभग सभी यूनिवर्सिटीज में फॉरेन लैंग्वेजेस डिपार्टमेंट में हिंदी भाषा और साहित्य पढ़ाया जाता है। सभी जगह कुछ विद्यार्थी हैं। हिंदी में लिखने वाले भी हैं। लेकिन हिंदी साहित्य की भारत के बाहर वैसी ही स्थिति है ,जैसे किसी भी ऐसी विदेशी भाषा की स्थिति होती है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर की भाषा न हो। व्यवसायिक, राजनीतिक रूप में जिसकी भूमिका काफी संपन्न न हो। लेकिन निराशा तब होती है, जब हम देखते हैं कि जिन की मातृभाषा हिंदी है ,उन्हें भी यह  मोह नहीं जागता कि अपनी भाषा की समृद्धता से  कुछ शक्ति बटोर लें।  उसकी सुनहरी धूप कुछ देर त्ताप लें,अपने ही अंतस में कुछ देर भ्रमण कर लें। 

आप एक कवि और चिंतक हैं , हिंदी कविता के बारे में आप क्या सोचते हैं?

हिंदी एक बहुत समृद्ध भाषा है। संस्कृत की नाभि से जन्मी हिंदी सहस्त्रों वर्षों का इतिहास ,संस्कृति ,दर्शन और अभिव्यक्ति का सौंदर्य आत्मसात किए हुए है।  समय के साथ साथ सभी परिवर्तनों को अपने भीतर समेटती हुई अलगअलग रूप में एक बृहत् समाज की भाषा रही । लोक भाषाओं के रूप रंग को अपने भीतरी धारा में शामिल करती रही।  उर्दूजो एक लंबे समय तक हिंदी ,भाषी क्षेत्र का हर तरह से हिस्सा रही, उसका प्रभाव भी, उसके शब्द, तौर तरीका, सब कुछ स्वभाविक रुप में आत्मसात करती रही।

इन सब बातों का प्रभाव हिंदी कविता पर साफसाफ देखा जा सकता है। यहां हम आज की कविता की बात कर रहे हैं। वरना दर्शन ,भाषा ,कल्पना और काव्यसौंदर्य जो हमारे पहले के कवियों में मिलता है वह आज दुर्लभ है, उसकी उम्मीद भी नहीं। मैं अपने भक्ति कालीन कवियों की सत्ता और शक्ति की बात नहीं कर रहा हूं , वे सब किसी ना किसी रूप में हमारी जिंदगी का हिस्सा बने ही रहते हैं।  हमारी छायावादी कविता भी हमारे अंत: सदन का हिस्सा है कहीं ना कहीं। कामायनी की बात होती ही रहेगी। बहुत बाद में शुरू हुई हमारी धरती से जुड़ी हुई जिंदगी की कहानी ,विषय, अभिव्यक्ति और संप्रेषण। बिना स्वयं को स्थगित किए हुए हमारे दैनिक जीवन से जुड़ी हुई कविता। अत्यधिक कल्पनाशीलता से मुक्ति। 

चाहे किसी भी तरह की कविता हो अपना भीतरी अर्थ उजागर करने के लिए उसे कल्पना का सहारा लेना ही पड़ता है। केवल यथार्थ नाम की कोई कृतिविशेष तौर पर कविता बहुत कुछ खोए बिना संभव नहीं है। अन्यथापत्रिका के लिए कविताएं खोजते हुए मुझे बहुत तरह के अनुभव हुए।  10 -12 वर्ष पहले तक की बात है। एक से एक अच्छी कविताएं हमें प्राप्त होती रहीं। हम खोजते भी रहे। सिर्फ यथार्थ पर हमारा जोर नहीं रहा। अच्छी कविता पर जोर रहा। यथार्थ हमेशा अच्छी कविता का हिस्सा बना ही रहता है ।

कविता के पाठकों की कमी नहीं है। लेकिन आज पाठकों की मनस्थिति कविता के प्रति बदल गई है। कविता उन्हें अपनी संगी साथी जैसी नहीं लगती। कविता में छिपे अनुभव और भाषा एक अपरिचय की स्थिति पैदा करते हैं। इसलिए साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं से अधिक दूसरे माध्यमों द्वारा प्रचारितप्रसारित कविता शायद अधिक पढ़ी जाती है।  पाठकों की मनस्थिति अब एक अस्थाई से मूड परिवर्तन की अधिक रहती है। मानसिकता को प्रभावित करने वाली कविताओं की साहित्यिक पत्रिकाओं में कमी नहीं है। मन और मस्तिष्क को जोड़ देने वाली कविताएं खूब हैं। लेकिन उनका प्रसारण इतना नहीं है। साधारण पाठकों तक उन कविताओं को पहुँचाना भी हमारी जिम्मेवारी का हिस्सा है। केवल छपने तक सीमित रह जाना काफी नहीं है । पहले बहुत बड़े स्तर पर कवि सम्मेलन होते थे , आज शायद यह संभव नहीं है। लेकिन जगहजगह परलाइब्रेरियों, स्कूलों ,कालेजों में तथा अन्य बहुत सी सामाजिक संस्थाओं में बड़े पैमाने पर कविता पाठ आयोजित किए जा सकते हैं।  यहां अमेरिका में ऐसा बहुत होता है। बहुत आम लोग उनमें शामिल होते हैं। लेखकों और संस्थानों का सांझा प्रयत्न इसमें शामिल रहता है। केवल लिखने तक सीमित रह जाना काफी नहीं है। बड़े शहरों तक सीमित रह जाना भी काफी नहीं है। छोटे शहरों और कस्बों तक पहुंचना जरूरी है।

इस सब के बावजूद अच्छी कविता की अपनी एक शक्ति और वर्चस्व हमेशा था, अब भी है और हमेशा बना रहेगा। 

पिछले कुछ समय में भारत और दुनिया में बहुत बदलाव आया है। कविता पैदा होने के लिए अच्छी स्थितियाँ क्या हैं ?

कविता पैदा होने के लिए या किसी भी ऐसी कला के लिए जो भीतरी हलचलों को एक आकार देने को प्रेरित रहती हैकोई स्पष्ट , समतल ,धरती और आकाश ज़रूरी नहीं । ज़रूरी हैकोई संक्रमण या कोई विस्फोटन , जो भीतर बाहर को आंदोलित करता रहे। कोई एकदम से घटने वाली हलचल नहीं, बल्कि एक परिस्थिति जो आशंकाओं, संभावनाओं और विशेष प्रकार के अदृश्य आश्वासनों से वातावरण को भरा रखे। ऐसे समय बहुत आए हैं। पुरानी बात नहीं है। हमारी स्मृति के ऊपरी कक्ष में सुरक्षित हैं। उस समय रचा जाने वाला शक्तिशाली साहित्य अभी तक हमें आंदोलित किए हुए हैं।

दोनों विश्व युद्धों के बीच का और उसके बाद का युग अच्छी कविता का युग था। यूरोप में युद्ध की स्थिति और उसके बाद औद्योगीकरण की तेज रफ्तार ने वहां संक्रमण की स्थिति पैदा कर दी थी। एक विभ्रमअपनी पहचान लुप्त होने और व्यर्थता बोध ने वहां एक विशाल सांस्कृतिक लोक त्रासदी को जन्म दिया जिससे अच्छी कविता पैदा हुई। अफ्रीका में गुलामी, भुखमरी और धर्म आक्रोश की स्थितियां अपनी चरम सीमा पर थी और साथ ही राजनीतिक स्वतंत्रता की लड़ाई पूरी जोर से लड़ी जा रही थी । ऐसी स्थितियां अच्छी कविता और अच्छे साहित्य को जन्म देती रही। दक्षिण अमेरिका का राजनैतिक और आर्थिक शोषण उस उपनिवेशित महाद्वीप की व्यथा कथा का समय था, जिसने हर प्रकार की ओजस्वी, विचार पूर्ण और विद्रोह से भरी कविता को जन्म दिया।

इसी के समानांतर एक और सत्य भी है कि कालातीत और चर्चा में बनी रहने वाली बहुत सी कविता समृद्ध परिस्थितियों में पैदा हुई । जैसे कालिदास ,शेक्सपियर और ग्रीक महाकाव्य। इसके अतिरिक्त तुलसीदास, कबीर, सूर, रहीम का समय भी कोई उथल पुथल वाला समय नहीं था। दोनों तरह की परिस्थितियां ही सृजनात्मक हो सकती हैं। 

पिछले कुछ दशकों में मुख्य तौर पर Technology का बहुत विस्तार हुआ।  बाकी परिवर्तन भी अधिकतर उसी का परिणाम रहे। जिंदगी चीजों से भर गई। पांव फ़ैला कर सुस्ताने के समय की तलाश और इच्छा भी लोगों को नहीं रही। व्यस्तता ने एक तरह की व्यर्थता भी पैदा की। जो सचमुच जीवन के लिए व्यर्थ है, उस पर अधिक समय और दिमाग लगने लगा, इसी कारण जिंदगी के मूलभूत सरोकार बदले। उन सरोकारों में ऐसा कुछ नहीं था कि रिक्तता को अपने भीतर उमड़ते –घुमड़ते उच्छवासों, प्रेरणाओं और आकारहीनअनंत दिशाओं  से परिचित ही करा सकें। रिक्तता केवल हर तरह के प्रदूषण से भरती रही। ऐसे माहौल में, विशेषकर कविता अपना आकर्षण खोती रही। दूसरे साहित्यिक प्रयत्नों का रूपरंग भी बदला। लेकिन फिर भी बाज़ार उन्हें पूरी तरह खारिज नहीं कर सका। सब से अधिक क्षति अच्छी कविता की हुई। 

अरुण कमल जी ने यह प्रश्न भेजे थे

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