Uncategorized

हमारी जिज्ञासाएं और धर्म -कृष्ण किशोर

हमारी जिज्ञासाएं और धर्म -कृष्ण किशोर

कुछ जिज्ञासाएं अभी तक अनुतरित हैं। विज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र सभी ईमानदारी से स्वीकार करते हैं उन विषयों पर अपनी सीमाओं को। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड निस्सीम है। उत्पत्ति, समय काल, सभी धुंध में या उस से भी परे। ज्ञान के जितने भी साधन या वाहक हैं सिर्फ आँखें मिचमिचाकर रह जाते हैं। ज्ञान का साहस, दम्भ, पाखण्ड कुछ भी नहीं चलता। विवशता भी नहीं है, साधनहीनता भी नहीं। सिर्फ स्वीकारोक्ति है कि हम नहीं जानते। अभी तक नहीं जानते। ऐसे में एक मानव इस विश्व में अपने स्थान, अपनी अल्पकालता, अपनी क्षणभंगुरता के प्रति प्रश्नकुलता से आगे नहीं जाता। एक तटस्थता, अहंकारहीनता और निर्मम उत्सुकता ही मनुष्य को संवेदित और प्रबुद्घ रखती है। यही है धर्म का वह वैज्ञानिक अध्यात्म पक्ष जहां ईश्वर, अनीश्वर की स्थिति स्थगित रहती है। इस के बाद दर्शन और व्याख्या शुरू होती है। रहस्य का भेद खोलने की कोशिशें। ईमानदार दर्शन की प्रारम्भिक स्थिति जो बहुत शुद्घ और लम्बी जिज्ञासा से प्रेरित होती है। ईश्वर का जन्म भी इसी स्थिति में होता है। इसी रास्ते पर थोड़ा आगे अध्यात्म का एक भिन्न रूप शुरू होता है। आत्मा, परमात्मा और विलय के सिद्घाँत और प्राप्ति के साधन।

आगे फिर इसी दर्शन और अध्यात्म की व्याख्याएं हैं, अनेकानेक श्रुतियां और स्मृतियां हैं। पण्डितों, विद्वानों, गुरुओं की पाठशालाएं, ग्रन्थावलियां, वादसंवाद श्रृंखलाएं हैं। धार्मिकता की होड़ है, रीतिनीति है, अधिक से अधिक धार्मिक ज्ञान होने का अहंकार है। अधिक से अधिक धर्मपालन का पाखण्ड है, अधिक से अधिक आंख मूंदकर, मूकबधिर होकर धर्म को समर्पित होने की सामाजिक प्रतिष्ठा है। अपना सब कुछ किसी के हाथों सौंप देने की गुरू शरणागतता है। समधार्मिक के प्रति सहिष्णुतता है। अनुयायियों की असंख्यता की सत्ता है, शक्ति है। अपनीअपनी धार्मिक पवित्रता है, कर्मकाण्ड है, दण्ड विधान है, धर्मसत्ता, राज्य सत्ता का महामिलन है। क्षणभंगुरता, अल्पकालता की अहंकारहीन वैज्ञानिकता का पूर्ण अन्त! फिर एक लम्बा अन्तराल सा! वैज्ञानिक वस्तुपरकता और औद्योगीकरण के अपने मोह और मोह भंग का अन्तराल।

कुछ पहले तक जीवन के और आयाम भी थे। एक इन्सान दूसरे का तरहतरह से पूरक होता था। आपस के सौ तरह के संपर्कों, उत्सवस्थितियों से दैनिक जीवन भरापूरा सा था। आज इन्सान की जिन्दगी हर तरफ से खाली और खोखली हो कर बाज़ार में खड़ी है। आज लगता है, इस अकेलेपन में, बाज़ार और धर्म की भीड़ में ही सुरक्षा और प्रतिष्ठा है। सम्पन्नता की नुमाईश है। बगैर किसी सच्चे विश्वास के आंखें मूंद कर पाखण्ड की तृप्ति है। बाज़ार और धर्म दोनों ही बिल्कुल खाली और अकेले, सम्बन्धहीन इन्सानों की शरणस्थली हैं। यहां तक कि आज के लगभग सारे गोरिल्ला या सैनिक युद्घों के पीछे धनलोलुपता और धार्मिक आक्रमकता की ऐसी दलदल है जिस में कौन ऊपर और कौन नीचे का अतापता नहीं। समय के इस छोर से उस छोर तक एक बन्दर छलांग ही लगाई जा सकती है।

N/A