संवेदना और दृष्टि दो तरफ़ा आवाजाही है। दोनों एक दूसरे की जनक भी हैं और निर्देशक भी। हमारी संवेदनाएं और दृष्टि यथार्थ के स्वरूप को ठीक वैसा ही नहीं रहने देतीं। प्रतिक्रियाएं भी इसलिए भिन्न होती हैं। लेकिन स्थूल रूप में स्वीकृत बृहत सामाजिक यथार्थ का स्वरूप, जो एक समयांश की रचना है उसे पूरी तरह अस्वीकृत करने के लिए एक विशेष परिस्थिति की आवश्यकता होती है। उस विशेष परिस्थिति में एक दार्शनिक यथार्थ की रचना होती है, ऐसे दार्शनिक यथार्थ की जो अपनी अमूर्तता में ही सक्रिय होता है। एक सशक्त कलाकार के हाथों व्यक्त होकर वह एक विश्वसनीयता भी प्राप्त करता है। ऐसा ही दार्शनिक यथार्थ हमारे अपूर्व कलाकार चेखव की कहानी ‘शर्त‘ (The Bet) में व्यक्त हुआ है। एक मामूली सी सांसारिक परिस्थिति एकदम अस्वाभाविक बन उठती है। वास्तविकताएं फैंटेसी का रूप धारण करती हैं और फैंटेसी एक ऐसा मायावी यथार्थ रचती है जो हमारे आसपास के आभास को पूरी तरह निलम्बित करके एक दार्शनिक यथार्थ की रचना करती है। चेखव की सशक्त कहानियां अनपढ़ी तो कम ही होंगी, लेकिन इस कहानी को एक बार से ज़्यादा पढ़ना ही अधिक स्वाभाविक है। इसकी कठिनाई की वजह से बिल्कुल नहीं, बल्कि इस के विपरीत आसानी से अपने अंधेरों में झांकने का अवसर देती हुई यह कहानी हर बार बहुत कुछ प्रकाशित कर जाती है। इन अन्धेरों को भी हम प्यार कर उठते हैं और उसके बाद होने वाले प्रकाश को भी अपनी बन्द आंखों पर महसूस होने देते हैं।
एक पतझड़ की अंधेरी रात में एक बैंकर व्यापारी अपने अध्ययन कक्ष में बेचैनी से घूमता हुआ 15 वर्ष पहले का दिन याद करता है। उस के घर एक पार्टी थी। जिस में ऐसे ही एक बहस छिड़ गई कि सज़ाए मौत बेहतर है या उम्र कैद। बैंकर (व्यापारी) मौत की सज़ा को बेहतर मानता है। रोज–रोज मरने से एक दिन मरना बेहतर। एक युवा वकील जैसे कैसे भी जिन्दा रहते चले जाने को ही बेहतर मानता है। दो मिलियन (बीस लाख) की शर्त जोश में आकर व्यापारी लगा बैठा। युवा वकील ने कहा बीस लाख के लिए मैं पांच नहीं, पन्द्रह साल कैद में रहूंगा। शर्तें लिख ली गईं। युवा वकील एक अन्धेरी कोठरी में रहेगा। सिर्फ एक खिड़की से उसे खाना, किताबें, शराब, संगीत का सामान या जो भी वह चाहे, दिया जायेगा। व्यापारी सोच रहा था कि कल सुबह पन्द्रह वर्ष पूरे हो जाएंगे। वह अब अमीर नहीं रहा था। कर्ज में डूबा हुआ था। उसे याद आने लगा किस तरह वकील ने जेल में 15 वर्ष बिताए। पहला साल युवा कैदी ने भयानक अकेलेपन और डिप्रेशन में गुजारा। दिन रात उस की कोठरी से पियानो की आवाज़ आती थी। शराब और तम्बाकू वह नहीं लेता था। शराब पीकर किसी से न मिलना बड़ा कष्टदायक है। दूसरे साल वह सिर्फ क्लासिक्स पढ़ता रहा। चार साल तक। पांचवें साल फिर संगीत सुनाई दिया। और उसने शराब भी मांगनी शुरू की। जो लोग छोटी खिड़की से उसे देखते, उन्होंने बताया वह सारा दिन शराब पीता, बिस्तर पर पड़ा रहता, अपने आप से गुस्से में बतियाता, पढ़ता नहीं, रात भर कुछ लिखता रहता और सुबह उसे फाड़ देता। बहुत बार उसके रोने की आवाज़ भी सुनाई देती। छठे साल बाद उस ने भाषाएं पढ़नी शुरू की। चार वर्ष बाद व्यापारी को छः भाषाओं में लिखा हुआ खत मिला। दसवें वर्ष के बाद उसने धर्म की, इतिहास की, और अन्य किताबें पढ़ीं। आखिरी दो सालों में गणित, विज्ञान के इलावा बहुत से विषयों पर बहुत सी किताबें पढ़ीं। लेकिन कल सुबह पन्द्रह वर्ष पूरे हो जाएंगे। व्यापारी बरबाद हो जाएगा। उसने सोचा उस की कोठरी में जाकर उसे समाप्त कर दिया जाये। किसी को कानों कान खबर भी नहीं होगी। कोठरी में वह चुपचाप घुसा। उसने देखी एक कृशकाय मानव आकृति, जिसे पहचाना भी नहीं जा सकता। वह मेज पर सिर रखे सो रहा था। एक लिखा हुआ कागज़ मेज पर खुला पड़ा था। व्यापारी ने वह कागज उठाया, लिखा था ‘कल 12 बजे मैं आज़ाद हो जाऊंगा। लेकिन अब मुझे आज़ादी नहीं चाहिए, ज़िन्दगी नहीं चाहिए, वह सब कुछ जिन्हें तुम अच्छी चीजें कहते हो, मुझे नहीं चाहिए। पन्द्रह साल तक मैंने इस धरती की ज़िन्दगी को देखा परखा है। किताबों में मैंने मदिरा पी, गीत गाये, जंगलों में घूमा, शिकार किये, सुन्दर औरतों से प्यार किया। पहाड़ों की ऊंचाई छुई। आंधी तूफान देखे, शहर, दरिया, झीलें और समुद्र देखे। चरवाहों का मधुर संगीत सुना। शैतान और भगवान से बातें की। मैं अन्तहीन अंधेरे गड्ढों में गया, चमत्कार किये, हत्याएं कीं, शहर जलाए, नये धर्मों का प्रचार किया, प्रदेश जीते और राज्य स्थापित किये। सारे युगों का विचार तत्व मेरे मस्तिष्क में समाहित है। मैं तुम सबसे अधिक जानता हूं। तुम सब कल नहीं रहोगे। रहने लायक, पाने लायक कुछ है ही नहीं। कल समय से पहले ही मैं यहां से निकल जाऊंगा। मैं तुम्हें शर्त से आज़ाद करता हूं। ‘ व्यापारी ने उस कागज़ को चुपचाप मेज़ पर रख दिया और बाहर चला आया। और सुबह नौकर दौड़ता हुआ आया। कैदी गायब था। छोटी सी सुराखनुमा खिड़की से वह बाहर फांद गया था। व्यापारी कोठरी में गया। वही लिखा हुआ कागज़ मेज़ पर पड़ा था। उसने उठा कर उसे अपनी तिजोरी में बन्द कर दिया।
यह दार्शनिक यथार्थ इस कहानी में अपनी असामान्यता को एक विस्तृत स्तर पर स्थापित करता है। आज के बाज़ारवादी यथार्थ के बराबर इसे रख कर देखना ज़रूरी हो गया लगता है। आज के यथार्थ को बदलने के लिए नहीं, सिर्फ उसे आईना दिखाने के लिए।