कविता

मैं हूँ एक बूढ़ा परदेसी और तू है नन्ही सी गुड़िया- कृष्ण किशोर

मैं हूँ एक बूढ़ा परदेसी और तू है नन्ही सी गुड़िया
कब तक बंद रहेगी मेरे झोले में , अपने घर जा
तू मेरे सीने से लग कर कितनी देर खामोश रही है
अब तो आँख उठा कर कह दे कौन देस तेरे प्रीतम का

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जो कुछ साथ चला आया था

..जो घटा ही नहीं
बाहर  खड़ा पीटता रहेगा आत्मा का द्वार
या किसी तेज घूमते वृत्त के केंद्र में
एक बड़े गोल सुराख की तरह
उगलता रहेगा आग
धरती का सूरज से छिटक कर अलग होना भी
क्या ऐसे ही हुआ था।

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यात्रा भाग १ और २ – कृष्ण किशोर

आधी सी आवाज में मैंने पूछा
 कब से यहां हो, इसी तरह
पेड़ के भीतर उगा हुआ पेड़ जैसे
जन्म के बाद पहली बार
कुछ बोला तो उस मटियाली आकृति ने जैसे
आवाज में हरे पत्तों की महक ने
मुझे इस तरह से सहलाया
जैसे पानी को छू कर आई हो
गर्म दिनों की उमसाई हवा

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ग़ज़ल

कोई तो देख कर कह दे कि तू वही सा है
कोई तो आँख हो नम देखकर तेरा दामन

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बगावत

जब तेरे शोख झरोखों पे नज़र उठती है
उठने लगता है धुआं दिल की स्याह बस्ती से
और पसे पर्दाए-तस्वीरे जफा उस वक्त 
कांप उठाती है हवा तेरी सितम दस्ती से

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यात्रा-1

निस्पंद और आहत होने के लिए
एक विशेष दिन चुना था क्या उसने
या बस यूं ही दमकते सूरज से गरमाए आकाश की तरफ देखते हुए
घर से निकलना
और सांझ ढले वापस न आना

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