अब नहीं इतना समय-कृष्ण किशोर
अब नहीं इतना समय कि
मैं तुम्हारी याद में
दो डगर भटकूं
दो पहर भटकूं
अब नहीं इतना समय कि
मैं तुम्हारी याद में
दो डगर भटकूं
दो पहर भटकूं
मैं सूने मंदिर का भगवान
मुझे न कोई पूजने आता
मेरे पाषाणों की भाषा
न कोई कभी पढ़ पाता
हिआवाथा को चिंता थी कि किस प्रकार कबीलों को अपने शरीर से युद्ध के प्रतीक रंगों को धो देने की प्रेरणा मिले। उनमें अपने हथियारों को धरती में दबाकर शांति का गीत गाने की उत्सुकता जगे।हिआवाथा और मिनीहाहा की प्रण्यात्मक संधि के बाद इस तरह की स्वर्णिम स्थिति का उदय हुआ। यह महा काव्यात्मक रचना अत्यंत लोकप्रिय हुई। 1855 में यह कृति प्रकाशित हुई थी।
जिन के सामने- तुमसे
जुड़ी कोई पुरानी और सुहानी
बात अधरों तक बुलाना
प्यार झुटलाने सरीखी वेदना है
और चुप रहना तुम्हारी बात न करना
निरंतर यातना है।
मुझको उल्लू और कोयल की आवाज़ों में कोई फर्क नहीं लगता है
मेरे कानों को सूंघ गया है सांप।
मुझको चूहा और हंस एक से सुंदर
या भद्दे लगते हैं
मेरी आंखों को लकुआ मार गया है।
मुझे किसी के होठों का रस
भांप लेती थीं उसकी आंखें
आंधी से पहले की स्तब्धता
पत्तों का टूट कर गिरना
पेड़ों में हवाओं की बेचैनी
देख लेती वह उसका
स्मृतियों से काठ होता शरीर
पहुंच जाती वह भी उसके गांव
और शांत मन से प्रतीक्षा करती
नयन भर कर देखता हूं मैं किसी की ओर
और कोई कह रहा है-
सुन मुसाफिर ,मैं तुझे पहचानता तो हूं
मगर इतना नहीं कि
दर्द की पूंजी लुटा दूं सब तुम्हारे द्वार...
तू मेरे लिए वो ख्याल है
मैं तेरे लिए वो ख्याल हूं
जिसे जानने के जुनून में