कविता

Song of Hiawatha – Krishan Kishore

हिआवाथा को चिंता थी कि किस प्रकार कबीलों को अपने शरीर से युद्ध के प्रतीक रंगों को धो देने की प्रेरणा मिले। उनमें अपने हथियारों को धरती में दबाकर शांति का गीत गाने की उत्सुकता जगे।हिआवाथा और मिनीहाहा की प्रण्यात्मक संधि के बाद इस तरह की स्वर्णिम स्थिति का उदय हुआ। यह महा काव्यात्मक रचना अत्यंत लोकप्रिय हुई। 1855 में यह कृति प्रकाशित हुई थी।

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अब नहीं इतना समय

जिन के सामने- तुमसे
जुड़ी कोई पुरानी और सुहानी
बात अधरों तक बुलाना
प्यार झुटलाने सरीखी वेदना है
और चुप रहना तुम्हारी बात न करना
निरंतर यातना है।

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साकार झूठ–कृष्ण किशोर

मुझको उल्लू और कोयल की आवाज़ों में कोई फर्क नहीं लगता है
मेरे कानों को सूंघ गया है सांप।
मुझको चूहा और हंस एक से सुंदर
 या भद्दे लगते हैं
मेरी आंखों को लकुआ मार गया है।
मुझे किसी के होठों का रस

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प्रेत जून

भांप लेती थीं उसकी आंखें
आंधी से पहले की स्तब्धता
पत्तों का टूट कर गिरना
पेड़ों में हवाओं की बेचैनी
देख लेती वह उसका 
स्मृतियों से काठ होता शरीर
पहुंच जाती वह भी उसके गांव
और शांत मन से प्रतीक्षा करती

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..कब मुझे ऐसा लगेगा मैं सुरक्षित हूं
कि अब कोई नहीं आवाज देगा मुझे कहीं से भी
और मैं दूर तक आकाश  जैसा फैल जाऊंगा रिक्त हो कर
, बिखर जाऊंगा अपने ही चारों तरफ
या कहीं भी..

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नयन भर कर देखता हूं मैं किसी की ओर-कृष्ण किशोर

नयन भर कर देखता हूं मैं किसी की ओर
और कोई कह रहा है-
सुन मुसाफिर ,मैं तुझे पहचानता तो हूं
मगर इतना नहीं कि
 दर्द की पूंजी लुटा दूं सब तुम्हारे द्वार...

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