वापसी
प्रकृति के इस विशाल रमणीय कक्ष में
उकड़ूँ बैठा हुआ मैं - हठात ही
स्मृति के एक उन्मत्त झकोरे से
इस विस्तार की ढलान पर फिसलने लगता हूँ।
एक निष्ठुर कगार पर आ टिकता हूँ
स्थिर हो जाता है सब कुछ
एक कसाव और जकड़न के साथ
स्मृति वास्तविक हो उठती है
इस हिम प्रदेश मेंयह निशब्दता
उकेर गई उनींदी स्मृतियां।
स्मृतियां जैसे अधखुली आंखें हों
अपने भीतर झांकती हुई
एक एक पोर सहलाती हुई,
अपने बिखरे अस्तित्व धागों को खोलकर
खुली धूप में फैलाती हुई, समेटती हुई
आज और अतीत को जोड़ती हुई।