विचार

मार्केस -कहानी – ‘बैल्थाज़ार की शानदार सांझ’

....उसने महसूस किया कि वह बहुत थक गया है, एक भी कदम और नहीं उठा सकता। उसका मन किया - एक ही बिस्तर पर दो सुन्दर औरतों के साथ सोने के लिए। वह अब खाली हाथ, खाली जेब था। अपनी घड़ी तक वह दे चुका था, उधार के लिए। अगली सुबह, वह गली में पसरा पड़ा था। उसे लगा था जैसे कोई उसके जूते उतार कर ले जा रहा था लेकिन वह अपने जीवन के सब से सुन्दर सपने को बर्बाद नहीं करना चाहता था...

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मैं हूँ एक बूढ़ा परदेसी और तू है नन्ही सी गुड़िया- कृष्ण किशोर

मैं हूँ एक बूढ़ा परदेसी और तू है नन्ही सी गुड़िया
कब तक बंद रहेगी मेरे झोले में , अपने घर जा
तू मेरे सीने से लग कर कितनी देर खामोश रही है
अब तो आँख उठा कर कह दे कौन देस तेरे प्रीतम का

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भारत में अस्पृश्यता की स्थिति

अशोक के समय तक यानी बुद्घ के चार सौ साल बाद ब्राह्मणीय कर्मकाण्ड और प्रभुत्व बहुत ढीला पड़ता जा रहा था। मनुस्मृति में प्रतिपादित कड़ी व्यवस्था की ज़रूरत उस समय के धर्म प्रमुखों को महसूस हुई। मनुस्मृति की रचना, वर्णव्यवस्था का कड़ा विधान, धीरे धीरे शूद्रों के लिए अस्पृश्यता में बदलता चला गया। लेकिन यह निश्चित है कि यह एकदम, एक ही समय में, किसी राजाज्ञा जैसी चीज द्वारा घटित होने वाली घटना नहीं रही। एक ही ग्रन्थ से लिखे जाने के तुरन्त बाद यह सामाजिक परिवर्तन हो गया हो, ऐसा भी संभव नहीं लगता।

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लोकतांत्रिक समानता की अवधारणा

...शासनिक प्रबन्धन अंग्रेज़ों ने सिर्फ भय और रौब रुतबा बनाए रखने के लिए स्थापित किया था। वही भय और रौब रुतबा हमारी सभी सरकारों ने जानबूझ कर बनाए रखा है, तोड़ा नहीं। आखिर ये लोग भी सिर्फ शासन ही करना चाहते हैं। भ्रष्टाचार साथ जुड़ जाने से रौब रुतबे में सम्पन्नता की चमक भी आई है। अंग्रेज़ दूर से ही अलग पहचाने जाते थे। इन्हें भी दूर से अलग पहचाने जाने लायक कुछ चाहिए था जो लोगों से इन्हें अलग थलग रख सके। इस पद्घति में आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता थी। अफसर सभी देशों में होते हैं। अफसरशाही सिर्फ हमारे यहां है। वे अपनी गोपनीयता और अदृश्यता में दुनिया के सभी ब्यूरोक्रेटस को लज्जित कर सकते हैं।

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Periodical : Being Neutral: Krishan Kishore

Even four legged denizens of our planet or winged life Criss crossing our skies fight each other sometimes, but not without a reason . But a perpetual dislike or hatred among the members of the same species is not the norm.  The reasons that create a wedge between groups and individuals can be as simple as different skin color over which you don't have control and is no fault of yours. Fortunately, our society is almost color blind to this. We are discussing here only those reasons for which we can be faulted, may not be punished. Unfortunately, most evident or non-evident reasons of disharmony are not punishable in any Court of law. Just as we are free to love, so are we free to hate! But this is not even a Love or hate situation. This is rooted in our notion that a group or individual is different..

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वेदना से विमर्श तक–कृष्ण किशोर

बुझने से पहले शम्म भड़कती जरूर है, किस शायर की पंक्ति है याद नहीं। बात जहन में है। मैं  पढ़ रहा था , अपने शीशे के बने हुए कमरे से बाहर देखता हुआ।  पेड़ों के पत्ते लगभग गिर चुके थे । टहनियाँ  निहत्थी होकर हवा में झूल रही थी। मुझे याद है वह सुबह।  एक बड़ा पेड़ मेरे ठीक सामने खड़ा है।  पता नहीं वो मुझे देख रहा है इस वक्त या नहीं।  लेकिन मैं उसे भर्राए गले से धुंधलाई आंखों से एकटक  देख रहा हूं। सारे पत्ते टूट  चुके हैं। जैसे  सारी उम्मीदें टूट गई हों। सिर्फ तीन पत्ते पास-पास टहनियों पर अभी भी झूल रहे हैं। किसी क्षण भी गिर सकते हैं ,यह तीनों पत्ते। देखना चाहता हूं भारी मन से कि एक दूसरे के कितने देर बाद गिरेंगे यह तीनों। मैं कुछ भी न करते हुए अपलक उधर ही देखता हूं ।कुछ देर में हवा का एक झोंका आया ।शीशे के इस तरफ बैठा हुआ मैं नहीं देख  पाया, कितना तेज। यही तो हवा की शक्ति है, वह दिखती नहीं। एक दूसरे से कुछ ही पल की दूरी पर,  मैंने देखा, दो पत्ते टूट कर हरी धरती पर ढेर हो गए। थोड़ी सी बर्फ एक दिन पहले पड़ी थी, अब पिघल चुकी थी। इसलिए मैं दोनों पत्तों को घास पर पड़े देख सकता था। तीसरा  पता भी गिरेगा किसी भी क्षण। नहीं देखना चाहता था वह क्षण। मैं उठ कर वहां से चला गया। ..

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यात्रा भाग 4-5 कृष्ण किशोर

 कुछ देर मौन और स्थिर रहे
वह मौन मुझे सुन रहा था
एक  अंधड़ के आने से पहले का सन्नाटा
जैसे सुना जा सकता है 
मैं उसे देख रहा था, वह मुझे नहीं

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यात्रा भाग १ और २ – कृष्ण किशोर

आधी सी आवाज में मैंने पूछा
 कब से यहां हो, इसी तरह
पेड़ के भीतर उगा हुआ पेड़ जैसे
जन्म के बाद पहली बार
कुछ बोला तो उस मटियाली आकृति ने जैसे
आवाज में हरे पत्तों की महक ने
मुझे इस तरह से सहलाया
जैसे पानी को छू कर आई हो
गर्म दिनों की उमसाई हवा

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बगावत

जब तेरे शोख झरोखों पे नज़र उठती है
उठने लगता है धुआं दिल की स्याह बस्ती से
और पसे पर्दाए-तस्वीरे जफा उस वक्त 
कांप उठाती है हवा तेरी सितम दस्ती से

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