बीसवीं सदी के पहले दशक से ही एक संत्रास का वातावरण किसी न किसी रूप में लगभग हर जगह फैल रहा था और योरोप बाकी सारी दुनिया को जकड़े हुए था। बाल्ज़ाक, फ्लाबर्ट, एमिल ज़ोला और उन का Realism, Naturalism सब पीछे छूट गए थे। आज़ादी का स्वप्न भी उपनिवेशों की आंखों में उभर रहा था। जर्मनी में नाज़ियों की मदांधता आसपास के देशों को हड़पने की कोशिश में थी। यहूदियों के लिए इससे बुरा समय तब भी नहीं था जब रोमनों ने ईसापूर्व काल में उन पर जुल्म किए थे। केवल यहूदी ही नहीं, हर इन्सान दहशत में था। पहले विश्वयुद्घ का इतिहास सर्वविदित है। नाज़ियों की अपनी नस्ल और राज्यविस्तार की आकांक्षा सर्वविदित है। समाजवाद को साम्राज्यवाद बनने में भी अभी देर थी। उपन्यासों ने तब के समय को इस तरह रचा है जैसे उस समय की रचना उपन्यास की ही साज़िश हो। बाहर का अस्तित्व और संत्रास और उससे मुक्ति के प्रयासों की उपन्यास के भीतर और बाहर आवाजाही ऐसे बनी रही जैसे घर से निकलना और फिर घर लौटना। काफ़्का के The Trial (1925) से कामू के The Stranger (1942) तक की यात्रा एक कोहरे में दफ़्न घाटियों में यात्रा जैसी है। आंखों के सामने का कोहरा छंटता नहीं और चलना ज़रूरी है। यात्रा ज़रूरी है। ठीक ग़लत कुछ नहीं, बस ज़रूरी।
काफ़्का का ‘द ट्रायल’ इस सब कुछ के ज़रूरी होने का दस्तावेज़ है। जौसेफ़ के (K.) का अपराधी बनना समय की जरूरत है। कारण न के. को पता है न किसी अन्य को। उसके चाचा एक वकील करते हैं। वकील को अपराध की जानकारी नहीं है। लेकिन अपराध गंभीर है, बस यही मूल है। वकील की असिस्टेंट के प्रति के. का आकर्षण और आफ़िस के एक कोने का रोमांस – फिर एक पेंटर जो कचहरियों, मुकद्दमों की जानकारी रखता है, सिर्फ इतना जानता है कि सज़ा जरूर होगी, अपराध चाहे कुछ भी हो। फिर पादरी जो कैदियों का पादरी भी है, उस का रोल इतना ही है कि वह आने वाली अपरिहार्यता के लिए अपराधी को तैयार कर सके। आशा व्यर्थ की चीज़ है। सिर्फ तैयारी, अपनी समाप्ति के लिए। अपराध तो कुछ न कुछ है ही। सज़ा तो होगी ही। उससे बचने की कोशिश और उपाय भी जरूरी हैं। साथ ही शरीर की दूसरी वासनाएं भी इन्हीं स्थितियों के बीच के क्षणों में ही कहीं पूरी होंगी। वे भी ज़रूरी हैं। परिस्थितियों की क्रूरता हमारी अपनी वासना की तरह चारों तरफ फैली हुई है। वासना भी हर जगह है, क्रूरता भी हर जगह। दोनों एक साथ घटती हैं। मरने से पहले मरना हो नहीं सकता। लेकिन व्यवस्था का अपना समय और नियम है। सज़ा का वक्त आएगा जब, फैसला सुना दिया जाएगा। तुम्हारा यही अन्त ज़रूरी है। इसे कोई त्रासद भी कैसे कहे। यह बड़ी हास्यास्पद बात है। सब स्थितियों पर हंसी आती है। हर त्रासद स्थिति अपने भीतरी अतर्क और अकारण पर आधारित है और वही न समझ पाना ही हंसी का कारण है। कारण की अनुपस्थिति विदूषक की तरह है जो सब को हंसाती है। इसी का विस्मय बार बार हमें चौंकाता है, जकड़ता है, हाथ कुछ नहीं आता। हमारे समय के मार्केस और सलमान रश्दी भी इस विस्मय और अकारण का भरपूर प्रयोग करते हैं। खैर बात मृत्यु की थी और वहां ऐसी स्तब्धता है कि विदूषक को परदे के पीछे जाना ही पड़ता है। काफ़्का के ‘ट्रायल’ का अन्त या कहें अनन्त इस तरह है,
“Where was the judge he’d never seen? Where was the high court he’d never reached? ….. but the hands of one of the gentlemen were laid on K.’s throat, while the other pushed the knife deep into the heart and twisted it there, twice. …… ‘Like a dog!’ he said, it was as if the shame of it should outlive him.” यह अनन्त K. की मृत्यु को एक मामूली ज़रूरत से अधिक कुछ नहीं रहने देता-उस के बाद भी अपमानजनक शर्मिंदगी।
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काफ़्का और कामू बड़े-बडे़ प्रतीक, कथा बिंब और पेरेबल्ज़ रचते हैं अपने समय को पकड़ने के लिए। और इस प्रक्रिया में वे समयातीत भी हो जाते हैं। इन्सानी स्थिति के कुछ निर्णायक क्षणों को पकड़ कर इन्सान को मोहरे की तरह इस्तेमाल करते हैं अपनी बात कहने के लिए और लगता है स्थितियां पीछे भी जाती हैं और आगे भी। वे एक दर्शन को माध्यम बनाते हैं और इन्सान को उन स्थितियों से गुजारते हैं जो उन्हें उनकी परिणितियों तक ले जाती हैं। जहां कर्ता और दृष्टा में अन्तर समाप्त होता दीखता है।
कामू में कर्ता ही दृष्टा भी है और वर्तमान ही निर्णायक क्षण है। कर्ता अपने स्वयं के कर्ता होने से आक्रान्त भी नहीं है क्योंकि वह दृष्टा भी है और इसीलिए उसके परिणाम भोगने की अनिवार्यता एक सहज स्थिति है। लेकिन काफ़्का अपने कर्ता होने का भी ज़िम्मेवार नहीं है। वह कुछ है ही नहीं। परिस्थितियां ही कर्ता हैं और निर्णायक भी। कर्ता और परिणाम के बीच कार्य-कारण का सम्बन्ध गा़यब है। कामू हालांकि 1942 में ‘अजनबी’ लिख रहे हैं और काफ़्का ‘द ट्रायल’ 1925 से पहले। समय की प्रवृतियों में अन्तर केवल इतना था कि जो कुछ भी तरल था, ठोस बन गया था। पहले विश्वयुद्घ की समाप्ति के परिणाम युद्घ से भी अधिक भीष्ण थे। शायद इसी कारण सार्त्र और कामू दोनों अस्तित्ववादी दर्शन को एक सीमा तक ही स्वीकारते थे। वे भविष्य के प्रति आस्थावान होकर सामूहिक मानव प्रयत्नों में विश्वास करते थे। लेकिन कामू सार्त्र की तरह समाजवादी दर्शन को अर्जित नहीं कर पाए थे। उनका उपन्यास ‘अजनबी’ उनके अस्तित्ववादी चिन्तन का प्रतिनिधि उपन्यास है। अपनी मां की मृत्यु पर भावनाहीन उदासीनता, एक अरब व्यक्ति को गोली मारने के बाद की निस्पन्दता, अपने मुकदमे के दौरान प्रतिक्रियाहीन पाषाणता, कैद में पादरी को उसके ईश्वर के समेत नकारना और अन्त में मृत्यु का वरण। सब ऐसा है जो इस विश्व के अगोचर विधान की इन्सान के प्रति उदासीनता का प्रतिबिम्ब है। प्रकृति के विस्तार में इन्सान की उपस्थिति जैसे कोई विशेष ध्यान देने लायक चीज़ नहीं है। यहीं कामू और सार्त्र का अन्तर भी स्पष्ट हो जाता है। काफ़्का में स्थितियों की एबसर्डिटी आखिर एक विषाद तक पहुंचती है। कामू में यह विषाद अनुपस्थित है। कामू का essay ‘The Rebel’ सार्त्र और कामू का अन्तर भी है और दोनों के बीच की कड़ी भी, जिसे उन्होंने अपने समय में एक ज़िद की हद तक बनाए रखा – जोड़े भी रखा और तोड़े भी रखा।