इन्सान जो भी बाहर शारीरिक रूप से जीता है, वह तो आइसबर्ग (समुद्र में तैरता बर्फ का पहाड़) का सिर्फ शीर्ष भाग है। सारा पहाड़ यानी यथार्थ समुद्र के नीचे होता है। एक समुचित यथार्थ को पकड़ने के लिए एक परिस्थिति या समय काफी नहीं। यथार्थ की वृतात्मकता का रूप जाने किन किन समयों, प्रदेशों, मान्यताओं, परम्पराओं से होता हुआ हमारी जातीय क्षमताओं को आंकता हुआ हमारे भविष्य और संभावनाओं तक पहुंचता है। यही साहित्यिक यथार्थ का स्वरूप है। हमारे मनीषी साहित्यकारों ने स्मृति, इतिहास, स्थिति-परिस्थिति, अनुभव, ज्ञान, कल्पना और दर्शन का सहारा लिया है इसी समुचित यथार्थ को पकड़ने के लिए।
हमारी स्मृतियां हमें याद दिलाती हैं कि क्या खो गया है जिस की वजह से हमें अपना आज का यथार्थ खंडित लगता है। हमारी संवेदनाएं लगातार उस चुभन को जीवित रखती हैं। हमारी कल्पनाओं के आधार में केवल हमारे अनुभव ही नहीं, हमारी पूरी परम्पराओं और दर्शनों का विचित्र आभास छलकता रहता है। ऐसी ही कल्पनाओं से हम त्रिकाल को बान्धते हैं और एक मायावी यथार्थ को अपने केवल स्थितिजन्य खंडित यथार्थ से अलग कर के देखने की मानसिकता प्राप्त करते हैं। पूरी अनुभव परिधि का चक्र हमें यथार्थ के मूल तक पहुंचाता है।
स्मृति एक ऐसा अनुभव है जो अपने समय के यथार्थ को हमारा आज का यथार्थ बनाती है। आज के मूल्यों से टकरा कर एक मोहभंग का अनुभव रचती है। इन्सान के अतीत को उस के भविष्य से अलग करके देखने की कला अभी आविष्कृत नहीं हुई है। आज की भागमभाग, चीज़ों की दौड़ और हर चीज़ की वासना यानी जो कुछ भी जितना ज्यादा है, उस चीज़ की उतनी ही वासना और अधिक मन दुखाती है, यही स्मृति हमारे आज के यथार्थ को अतिरिक्त क्रूरता भी देती है और एक आभास रचती है अपूर्णता का। उन की स्मृति से आज के बाज़ार की व्यर्थता और क्रूर हो उठती है।
कृष्ण किशोर