धर्म और अहंकार मिल कर क्रूर अनुभवों की रचना करते हैं। सामर्थ्य, सत्ता और महत्वाकांक्षा किसी भी भजन-कीर्तन, पूजा-पाठ, माला, तस्बीह से कहीं ज्यादा प्रभावशाली रहती है। हालांकि दुनिया के सब से बड़े धर्म ईसाइयत का शुरुआती इतिहास ऐसा रहा है जैसे किसी क्रूरता के खिलाफ जन-आंदोलन का इतिहास होता है। गरीब या निचले तबके के लोगों ने ऊपर वाले तबकों से लड़ कर ईसाइयत का आधार रखा। पिछले गरीब देहाती किसानों ने बड़े ताल्लुकदारों, जमींदारों से मुक्ति का स्वप्न ईसाई एकता में देखा। लेकिन सत्ता आते ही, राजाओं का धर्म बनते ही, पादरियों की फौज के हत्थे चढ़ते ही, महाराजाओं के महाराजा पोप ऑफ़ रोम का स्वर्ण सिहांसन बनते ही – युद्घ, जीत-हार और नरसंहार का इतिहास शुरू हो गया जो अब तक जारी है।
रामायण, महाभारत से लेकर सिकंदर, साईरस, मौर्यवंश, गुप्तवंश, चाऊ वंश, बाबर, अकबर, औरंगजेब, उत्तारदक्षिण, पूर्वपश्चिम में सभी शासक आपस में लड़ते-मरते रहे हैं। लेकिन फौजों के अतिरिक्त दूसरी जनक्षति उन युद्घों में कम ही होती थी। जनता को रौंदते हुए मंगोलों और अब्दाली जैसी मिसालें कम ही हैं। लेकिन धर्म को लेकर हुए युद्घों में जितने मासूम लोग कटे, उनकी गिनती इतिहास के पास नहीं है। धर्म युद्घों के बाद धार्मिक जनउन्मादों की असंख्य घटनाएं हुईं लाखों लोगों को जानमाल, असबाब से वंचित करती हुईं।
बड़े-धार्मिक युद्घ हुए 1095 से, जब रोमन कैथोलिक धर्माधिकारी पोप ईनोसेन्ट II ने पश्चिम योरोप के सभी राजाओं और जनता को धर्म का वास्ता देकर इक्ट्ठा किया। इस्लाम के खिलाफ धर्म-युद्घ छेड़ देने को ललकारा क्योंकि अरब की मुस्लिम शक्तियों ने जेरूसलम पर कब्जा कर लिया था। पूर्वी योरोप, उत्तरी अफ्रीका इत्यादि सब इस्लाम के कब्जे में थे। पोप ने कहा कि यह ईश्वर के हक की लड़ाई होगी। जो लोग इस युद्घ में मरेंगे, वे पाप मुक्त हो जाएंगे और उन्हें स्वर्ग में जगह मिलेगी। जिन लोगों ने भी यह धर्मोन्माद का संदेश सुना वे पागल हो उठे, ईश्वर की इच्छा समझकर वे अपना झोला और हथियार उठाकर युद्घ में कूद पड़े। सारे योरोप से लाखों आदमी, औरतें, बच्चे, भूमिधरों, राजघरानों से लेकर भिखारियों तक, साधारण जन से लेकर मुजरिमों और वेश्याओं तक ने इस युद्घ में शामिल होना अपना भाग्य समझा। जेरूसलम को आजाद कराना था मुस्लिम गद्दारों से जिन्हें तब के ईसाई सिर्फ आततायी और जालिम समझते थे। ये उन्मादी फौजें योरोप को पार करतीं, पूर्वी रोमन साम्राज्य – (अब ग्रीस और इटली) से गुजरती, कत्लेआम करतीं आगे बढ़ती गईं। उन्होंने रास्ते में यहूदियों को बेरहमी से मारा। अपने ईसाइयों को भी खूब लूटा। दो साल के इस रक्तिम धार्मिक यात्रा के बाद 1097 में ये ईसाई उन्मादी फौजें मध्यपूर्व केक्षेत्रों में पहुंच गर्इ। वहां इन्होंने मुस्लिम फौजों को हराया और 1099 में जेरूसलम पर पुनः कब्जा कर लिया। इन उन्मादियों ने किसी नियम का पालन नहीं किया। औरतों, बच्चों, बूढ़ों, सभी को बेरहमी से कत्ल किया। इस धर्म युद्घ के ही एक चितेरे (जो इस युद्घ में शामिल था), लार्ड रेमन्ड आफ एग्वाईलज ने इस युद्घ का वर्णन करते हुए लिखा है –
”बेहद अजीब दृश्य थे। हमारे जो सिपाही ज्यादा दयावान थे, उन्होंने शत्रुओं के सिर्फ सिर काटे, दूसरों ने उन्हें यातनाएं देकर मारा। उन्हें आग में फेंक दिया। घुटनों तक गहरे खून में उन के घोड़े चल रहे थे। उन की लगामें खून में भीगी रहती थीं। ये ईश्वर का शानदार इन्साफ था कि ये स्थान अधर्मियों के खून से सन गया था।”
ईश्वर का न्याय यह भी था कि बारहवीं सदी में एक और खून-खराबे के बाद जेरूसलम फिर से मुस्लिम सिपेहसालार सलाहद्दीन ने ईसाइयों से छीन लिया था। पन्द्रहवीं सदी में फिर तुर्की मुसलमानों ने योरोप को अपना निशाना बनाया। पूर्वी योरोप में कान्सटेन्टिनोपल पर कब्जा किया। ये लड़ाईयां सतारहवीं सदी तक चलती रहीं। नरसंहार जारी रहा। धर्म फलते-फूलते रहे। इस्लाम और ईसाइयत के बीच यह युद्घ आज भी जारी है। देखने वाले इसे राजनीतिक कारणों से जोड़ कर देखते रह सकते हैं लेकिन आज इस संघर्ष को धर्म का ही संघर्ष मानने वालो की भी कमी नहीं है। Huntington का Clash of Civilizations लेख इस बात को बेहिचक बयान करता है।