आधुनिक युग में लोकतन्त्र का उथला पुथला स्वरूप स्थापित हुए कोई बहुत समय नहीं हुआ। दूसरे विश्व युद्घ से पहले कहीं भी विश्वस्त ढंग से मानवीय अधिकारों से लैस लोकतंत्र था ही नहीं। यूरोप को डिक्टेटरों ने हथियाया हुआ था। अमरीका में भीषण संघर्ष चल रहा था नागरिक अधिकारों को लेकर। हर प्रकार के प्रतिबन्ध थे विशाल नागरिक ईकाईयों के लिए जिनमें अश्वेत और मूल अमरीकी प्रमुख थे। स्त्रियां अपने आप को हर स्तर पर दोयम दर्जे का नागरिक मानने को विवश थीं, आर्थिक और प्रशासनिक दृष्टि से। चीन की क्रांति हुई नहीं थी। रूस साम्यवादी कम, साम्राज्यवादी अधिक हो रहा था। एशिया और अफ्रीका अभी उपनिवेश ही थे। मध्यपूर्व और कुछ देशों में धार्मिक अधिनायकवाद था। लेटिन अमेरिका महाद्वीप अपने गृहयुद्घों से त्रस्त था। इसलिए लोकतंत्र की शासन प्रणाली अभी परिपक्व नहीं हुई है। कहा जाए तो विश्व अभी लोकतन्त्र की प्रयोगशाला ही बना हुआ है, कार्यशाला अभी नहीं बना।
फिर भी जो आदर्श और सपने, उत्साह, दृष्टि की ताज़गी जो इस नयी मानवीय स्वशासन पद्घति के साथ जुड़ कर अपनी परिपक्वता के रास्ते पर आगे बढ़ती हुई नज़र आनी चाहिए थी, वह नज़र नहीं आती। किसी नए रास्ते पर निकल पड़ने का जोश और इरादे बड़ी जल्द एक बदहवासी का शिकार बनते चलते गये। साहस और लोकदृष्टि जो स्वशासन के आधार होते हैं, कभी अपनी फार्म में आए ही नहीं। एक निश्चित अवधि के बाद वोट डाल सकने के अधिकार को स्वशासन या लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। शासन के लोकाधार की अवधारणा का व्यावहारिक रूप अभी अस्पष्ट और ढुलमुल है।
लोक विश्वास, लोक साहस और लोक दृष्टि वास्तव में हर समय शासन की कूटनीति और कुप्रबन्ध का शिकार हुए रहते हैं। कैसे लोकमत को विभाजित रखा जा सकता है, कैसे किसी भी मुद्दे के प्रति सचेतना को एक खतरा मानकर उससे निपटा जा सकता है, कैसे अपने प्रशासनिक शक्ति केन्द्रों को महिमामंडित करके उन्हें शक्ति स्रोत के रूप में एक लोकभय का साधन बनाकर रखा जाता है, यही प्रजातांत्रिक हथकंडे विश्व का हर देश आज इस्तेमाल कर रहा है। जितना अशिक्षित, गरीब और अस्वस्थ समाज होगा, उतना ही लोकतांत्रिक प्रशासन का भय सर्वव्यापी होगा। हमारे समाज में भी सरकारी संस्था एक भय-पीठ बनकर लोगों को अपने से दूर रखने में महारत रखती है। चुने हुए प्रतिनिधि दिखने में भी लोगों जैसे दिखना बन्द हो जाते हैं। वे अलग ही, सत्त्ता स्वरूप हो जाते हैं। हमारे चुने हुए प्रतिनिधि कभी हमारे हुए ही नहीं। उन्होंने हमें कुछ दिया ही नहीं, केवल हमसे लिया ही है। इतना अधिक लिया है कि अब और कुछ देने को हमारे पास बचा ही नहीं। हमने अपनी आवेश में भरपूर उन्हें दिया। उन्होंने भरपूर हमारी बदहवासियों का शोषण किया।