एक आम आदमी की ज़िन्दगी का दिन-रात का संघर्ष बाज़ारवाद का संघर्ष नहीं है। भौगोलीकरण से आयातित हताशाएं भी नहीं हैं। साम्राज्यवादी शक्तियों का चुपचाप कहीं और से आया हुआ अभिशाप भी उतना नहीं हैं। हमारे अपने देश की सारी पद्घतियां अभी तक साम्राज्यवादी हैं। लोकतांत्रिक नहीं हैं। लोगों की शक्ति कहीं नहीं है। हर इन्सान एक कमज़ोर और डरा हुआ इन्सान है। आत्मविश्वास की और आत्मसम्मान की कमी में सिर झुकाए हुए उसे यह भी समझ नहीं है कि वह अभी भी एक गुलाम मानसिकता वाले देश का वासी है। लोकतंत्र क्या होता है, वहां एक साधारण जन की कितनी शक्ति होती है, इस यथार्थ को हम पकड़ नहीं पा रहे हैं।
हमारे गांव अन्यायों से सहमे हुए हैं। गरीबी तो हमेशा से थी, बल्कि अब कम हुई है। बड़ी जात वालों का अत्याचार भी कम हुआ है। लेकिन इतना आतंक, इतना दबाव, इतना खतरा कब था? कैसा तन्त्र है जिसने हमें असुरक्षित बना दिया है? पिछले दस-पन्द्रह सालों की कहानी यह नहीं है। यह जुल्म कम्प्यूटर, टी.वी. और बाज़ार का नहीं है।
जो देश पहले उपनिवेश थे, वे अभी भी अपने आज़ाद मूल्य स्थापित नहीं कर पाये हैं। वे बाहरी ग्लैमर के शिकार भी अपनी गुलाम मानसिकता के कारण जल्दी होते हैं। लोकतांत्रिक सिद्घान्तों का कार्यकारी रूप भी जनसाधारण तक नही पहुँच पाया है। यह गुलामी का मॉडल है। यह हमारा अपना ही साम्राज्यवादी स्वरूप है जिसमें जमींदार के कहने पर गुमाश्ते किसानों की पिटाई किया करते थे। इस अनुभव को, अपने राजनीतिक गुलामी के अनुभव को, तरह तरह से सामने लाने की ज़रूरत है। आज जो मूल्य हमारे समाज के हीरो हैं, जो छद्म हमारा यथार्थ बन कर स्थापित हो रहा है, उसकी जड़ में हमारी मूल उपनिवेशक प्रवृत्तियां हैं। वही अपनी भोगी हुई गुलामी का प्रेत है जिसे हम मरने नहीं दे रहे हैं। सारा एशिया और अफ्रीका इस का शिकार है। लेटिन अमेरिका इस प्रेत से लगभग मुक्त हो चुका है। वहां का साहित्य ज्यादा राजनीतिक साहित्य रहा है। उपनिवेशी मानसिकता और शक्तिसूत्रों से लड़ने का बड़ा माध्यम वहां का साहित्य रहा है। व्यापक जनप्रयास और परिवर्तन की कहानियां एक बड़ा फ़लक भी देती हैं और पाठक को दृष्टि-प्रशिक्षित करने में मदद भी करती हैं। केवल भोक्तादर्शक की स्थिति से उठाकर निर्णायक की मनस्थिति में ला खड़ा करती हैं। लैटिन अमरीकी साहित्य इस तरह की रचनाओं का साहित्य रहा है।
उदाहरण के लिए एक सटीक प्रसंग प्रसिद्घ उपन्यास से भी लिया जा सकता है। गैब्रियल गर्सिया मार्केस का उपन्यास Hundred Years of Solitude एक लम्बी कथा कहता है। कई पीढ़ियों का समय एक साथ कथा में मौजूद है। सांसारिक अर्थों में यहां बहुत कुछ वास्तविक नहीं है। वास्तविक और यथार्थ उन के अतीत, परिणाम और निरन्तरता में फैला हुआ है। उसे ही अपने जादू से मार्केस त्रौकालिक बनाते हैं। मौत भी यहां इतनी दुर्दान्त नहीं जिसे हंसते खेलते बताया न जा सके। जीने की गम्भीरता हास्यास्पद हो उठती है जब उसे समय के कोष्ठों में सीमित कर दिया जाए।
उपन्यास में मैकान्दो कस्बे में औद्योगिक प्रगति का एक प्रसंग। अमरीकी कम्पनी ने उपयोगी वातावरण देखकर वहां केलों की खेती और व्यापार बड़े पैमाने पर शुरू किया था। लेकिन मजदूरों की हालत ऐसी थी कि उन्हें शौचालय और पानी तक की सुविधाएं नहीं थीं। मजदूरों के संगठन ने अपनी शक्ति प्रदर्शन का निश्चय किया। अपनी मांगों की लिस्ट तैयार की। लेकिन कम्पनी का प्रशासक मिस्टर ब्राउन वहां से भाग निकला। अर्जी दें किसे? आखिर मिस्टर ब्राऊन को एक वेश्याग्रह में वस्त्रहीन स्थिति में मजदूरों के नेता घेराव करके अपनी विज्ञप्ति थमा देते हैं। कम्पनी यह सिद्घ करने के लिए कि मि. ब्राऊन तो कंपनी में कुछ है ही नहीं, उसे धोखा-धड़ी के इल्जाम में जेल भिजवा देती है। इसी मसखरे अन्दाज में मार्केस इतनी गंभीर कथा कहते चलते हैं। मजदूरों ने हड़ताल कर दी। कम्पनी ने कोर्ट में कहा, वहां कम्पनी के मजदूर तो हैं ही नहीं, कभी कभी उन्हें दिहाड़ी पर बुलाया जाता है। पक्के मजदूर नाम की कोई चीज़ कंपनी में नहीं है। लगभग तीन हज़ार मजदूर प्रदर्शन के लिए रेलवे स्टेशन के पास इक्ट्ठे होते हैं। चारों तरफ मशीनगनें तैनात थीं। पांच मिनट का समय उन्हें बिखरने के लिए दिया जाता है। उस के बाद चौदह मशीनगनों से लगभग सब को भून दिया जाता है। अगले दिन कम्पनी की तरफ से अख बारों में बयान आता है कि शांतिपूर्वक प्रदर्शन के बाद मजदूर अपने घर लौट गए। सेना, मशीनगनों का नाम ही नहीं। ऐसा व्यापक प्रचार किया गया कि सभी कहने लगे कि कुछ हुआ ही नहीं। कोई मरा ही नहीं। रातों रात लाशों को समुद्र में फेंक दिया गया। शांतिपूर्वक हुए फैसले की दो शर्तें कम्पनी ने दिखा दीं। लेकिन इस सामूहिक संहार के बाद घनघोर बारिश शुरू हो गई। यह पूछने पर कि इन मांगों पर अमल कब होगा, कम्पनी के प्रशासक ने गंभीरता से कहा ‘बारिश रुक जाने के बाद’ और चार साल ग्यारह महीने, दो दिन तक बारिश होती रही।
यह वास्तविक घटना जो Banana Massacre के नाम से जानी जाती है, 1928 में वहां घटी थी। जनता को यही बताया गया था कि कुछ नहीं हुआ, कोई नहीं मरा। मार्केस अपने खास साहसिक अंदाज में इस सच को इतने समय बाद सामने लाते हैं। समय को असमय करते, घटनाओं को वायविक बनाते हुए मार्केस ऐसा परिवेश रचते हैं जहां सब कुछ होकर भी न हुआ सा लगता है। लेकिन प्रभाव की तीव्रता बढ़ती है। अपने खंडित अर्थों में नहीं, अपने पूर्णार्थ में।