अनुभव, संवेदना और दृष्टि तीनों ही एक दूसरे तक आती हुईं और एक दूसरे में समाहित होती हुई धाराएं हैं। एक दूसरे की पूरक भी और नए कलात्मक आयामों की संभावना स्थली भी। एक रचनाकार की कल्पना और कला ज़िन्दगी की ऊपरी त्वचाबोधक वास्तविकताओं का अक्सर अतिक्रमण कर जाती है। इस प्रक्रिया में वास्तविक यथार्थ को पकड़ने का आयोजन करती है। तरह-तरह के स्वांग भरती है। वस्तुओं, घटनाओं, दृश्यों, स्थितियों के आसपास, ऊपर नीचे भिन-भिनाती रहती है। कभी कभी वास्तविक यथार्थ को पकड़ने के लिए नए नए और दिखने में असम्बद्घ यथार्थों की रचना करती है। क्योंकि अपने आप में कोई भी यथार्थ एकायामी या स्थितिबद्घ नहीं होता। कल्पना तरह तरह के पंख लगाकर दूरियां और गहराईयां नापती है। फैंटेसी रचती है, तन्द्राओं में जाकर अवचेतन में, अर्धनिद्रावस्था में, तनावों में, स्खलनों, अतृप्तियों, स्मृतियों, विस्मृतियों में यथार्थ ढूंढती है। इन्सानी स्वभाव के कब्रिस्तानों में, रातों उठ उठकर विचरते प्रेत लालचों, आकांक्षाओं, मर कर भी ज़िन्दा रहती हुई ज़िन्दगी की स्पष्ट अस्पष्ट मरीचिकाओं के भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे, यथार्थ या उस का आभास मंडराता रहता है। एक कल्पनाशील कलाकार अक्सर अपनी बाहरी सामाजिक स्थितियों और मान्यताओं की अनदेखी करता हुआ अपना साहस दिखाता है, उस यथार्थ को पकड़ने की कोशिश करता है। चाहे उसे कितनी ही भर्त्सना का सामना क्यों न करना पड़े।
इसी तरह की अलग अलग संभावनाओं, संवेदनाओं, फंतासियों, कल्पनाओं के हाथों महान कलाकृतियों की रचनाएं हुई हैं। आधुनिक कहानी के इतिहास का लगभग आरम्भ ही एक ऐसी रचना से हुआ जो आज तक हमारी कला का मापदण्ड बनी हुई है। निकोलाई गोगोल की कृति – ‘ओवरकोट’। दोस्तयोवस्की ने कहा था कि हम सब गोगोल के ओवरकोट से निकल कर आए हैं। जिन पाठकों ने ‘ओवरकोट’ नहीं पढ़ी, उन के लिए ही यह कहानी का संक्षिप्तिकरण है। एक बूढ़ा व्यक्ति है जिसे व्यक्ति कहना, तमाम बिखरे हुए सूत्रों को एक आकृति का रूप देने जैसा प्रयत्न होगा। नाम है अकाई अकाकियेविच। वह एक डिपार्टमैन्ट में काम करता है। शुरू से ही, कोई भारी चीज़ पकड़ने जैसा आभास गोगोल हमें करा देते हैं। वे कहते हैं, ”बहुत बेचैन करने वाला शब्द है ये – डिपार्टमैन्ट। यानी सारे दफ्तर, रेजिमेन्टस, कोर्ट कचहरियां, सब सरकारी विभाग, प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि इन में सारे समाज का अपमान समाया हुआ है।”
उस व्यक्ति के पास एक बहुत फटा पुराना सा ओवरकोट है। वही रोज पहने हुए काम पर जाता है। लोग उसे याद दिलाते रहते हैं, नया कोट ले लो। वह उसी को मुरम्मत कराने की सोचता है। कारीगर कहता है कि इसे मुरम्मत नहीं किया जा सकता। अपने वेतन में से जोड़ जोड़ कर और एक अतिरिक्त बोनस मिलने पर वह एक नया ओवरकोट खरीद लेता है। इतनी बड़ी आकांक्षा पूरी होती है। ओवरकोट एक प्रतीक है। एक ऐसा प्रतीक जो सारी बाहरी गलीज़ ज़िन्दगी को उघाड़े भी फिरता है और ढके भी रखता है। उस व्यक्ति को लोगों की नज़र में हास्यस्पद भी बनाता है और उसे एक भीतरी गंभीरता भी प्रदान करता है। उसकी आकांक्षा का प्रतीक, ऐसी विडम्बना का प्रतीक जैसे आकांक्षा पूरा होने का विधान उस के एकदम समाप्त होने के लिए ही रचा गया हो। पहले ही दिन, ओवरकोट पहन कर रात को घर जाते हुए कुछ उचक्के उसे धर दबोचते हैं, उस का कोट ले भागते हैं। इसी मोड़ पर अपने पूरे भदेस, निरर्थक, आत्मघाती, और अचूक क्रूर व्यवस्था का शिकार होती है ज़िन्दगी। जैसे कुछ खोने का यथार्थ पूर्ण यथार्थ नहीं है। एक क्षणिक स्थिति भर है जिस का एक राक्षसी मायावी उदर है और उस में वह यथार्थ छिपा है जिसे सामने आने या सामने लाने के लिए कई फंतासियों, जादुई प्रबन्धनों, कला प्रवणताओं को वैसी ही व्यवस्थाओं को रचना होगा जिन का वस्तुकरण हम वास्तविकता में नहीं कर सकते, केवल कल्पना के सहारे कर सकते हैं। वह बूढ़ा व्यक्ति अपना कोट छिन जाने की शिकायत लेकर नीचे के पुलिस कर्मचारियों की अनदेखी करके सीधे बड़े अफसर के पास चला जाता है। यथार्थ यही कि नीचे के कर्मचारी बेईमान हैं, कौन सुनेगा। विडम्बना यही कि ऊपर का अफसर बहुत ज्यादा ऊपर है। इस छोटे से बूढ़े की उम्मीद दरासल एक बड़ी हिमाकत है जिस के लिए वह अफसर उसे इतना डांटता है कि घर आकर वह वह बूढ़ा उस दहशत के बोझ से दहल कर मर जाता है। लेकिन प्रेत बन कर वह सड़कों पर लोगों को नज़र आता है। लोगों के ओवरकोट छीन लेता है। उस अफ़सर का ओवरकोट भी छीन लेता है। अफ़सर का ओवरकोट छीनने के बाद बूढ़े का प्रेत नज़र नहीं आता। उस के बाद उन उचक्कों के प्रेत नज़र आते हैं जिन्होंने बूढ़े का कोट छीना था। इन चोर प्रेतों की सूरत उस मुच्छैल अफ़सर से मिलती है जिसने बूढ़े को खूब डांटा था।
इस फैंटेसी में ऐसा यथार्थ है जिसे पाने को हमारी विज्ञ चेतना, हमारा अमूर्त न्यायबोध सामाजिक, राजनीतिक प्रयासों में सिर्फ हताश होता है। इसी हताशा से वह ऐन्द्रिक निर्वासन जन्म लेता है। और कल्पना उन व्यवस्थाओं की संभावना निर्मित करती है और कला रचती है ‘ओवरकोट’ जैसी रचनाएं, जिनमें आने वाली कथा संभावनाएं परिलक्षित होती हैं।