पिछले कुछ दशक संचार क्रांति के रहे हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद जैसी आपाधापी मची थी, गांव उजड़े, शहर बनने शुरू हुए थे और बड़े पैमाने पर उथल पुथल हुई थी, उस से अलग तरह की उथल पुथल संचार क्रांति से पैदा हुई है। ज़िन्दगी में हर समय एक दबाव सा बना रहता है। नौकरी की अपेक्षाएं, एक खास तरह के प्रशिक्षण की होड़, हर वक्त असमंजस की स्थिति पैदा करता है। स्थिरता और जड़ता में कोई अन्तर ही नहीं रहा। लाख, डेढ़ लाख महीना कमाने वाले युवक युवतियां प्रेत ज़िन्दगियां जीते हैं। सुबह कब जाते हैं, रात कब आते हैं, पता नहीं। छोटे शहरों और कस्बों की दुनिया भी है जहां मामूली सी पगार पर एक बी.काम या इससे भी अधिक शिक्षित युवक-युवती काम करने वाले मिल जाएंगे। छोटे बड़े उद्योग धन्धे, बिजनेस कम्पनियां ऐसे ही युवाओं के सिर पर टिकी हुई हैं। अगर एक खास तरह की शिक्षा नहीं है तो इन्हीं छोटी मोटी नौकरियों में जमे रहो, एक कम्पनी से दूसरी कम्पनी में। स्थिरता कहीं भी नहीं। घर से बसों, गाड़ियों में काम पर पहुँचो। रात घर लौटो और छोटी सी पगार पर जितने दिन हैं, बने रहो, अगले मौके की तलाश में हर वक्त बने रहो। कम्पनी वाले भी हर वक्त नए कर्मचारी की तलाश में। काम और आदमी की अदला बदली आम बात है। इस अस्थिरता का दबाव है, लेकिन आतंक इतना नहीं। हंसना बोलना, प्यार करना, शादी ब्याह, सब कुछ चलता है। जरा सी फुर्सत मिले तो उदासियां और निराशाएं मन को दबोच लेती हैं। एक निहत्थापन है जो असुरक्षा का घेरा टूटने नहीं देता। फिर भी इन युवक युवतियों के जीवन में वैसी कुंठाएं, वर्जनाएं और जुगुप्साएं नहीं हैं जो एक संकुचित समाज में होती हैं। ये अपनी अस्थिरता में भी एक मुक्तता, संतुलन और तटस्थता बनाए रखते हैं। निराशाजनक बात यह है कि चारों तरफ गन्दी राजनीति की तरफ इन युवक युवतियों का कोई खास ध्यान नहीं जाता। जो हो रहा है, उसे आराम से होने देते हैं। राजनीति वालों को इन का कोई डर नहीं है। उन्हें यह आश्वस्ति है कि ये लोग विरोध का झन्डा नहीं उठाएंगे। चारों तरफ होते हुए अन्यायों, अत्याचारों के खिलाफ इनमें आक्रोश नहीं जागेगा। इनकी अस्थिरता, पाँच हज़ार के बाद सात हज़ार की नौकरी पाने की तलाश में ही इन्हें बांधे रखती है। आक्रोश और विरोध का स्वर वहीं है जहाँ ये चार पांच हज़ार भी नहीं हैं।
हीरो आज समाज में वैसे भी कोई नहीं। सिर्फ ग्लैमर हीरो है, चाहे वो खेलों में हो, फिल्मों में हो, राजनीति में हो या बिजनेस में। और यह ग्लैमर आम आदमी की पहुँच से परे है इसलिए व्यक्ति का हीरो कोई नहीं। हमारे आस पास समाज में कोई हीरो नहीं, घर परिवार में कोई हीरो नहीं, काम की जगह कोई हीरो नहीं। सम्बन्धों में कोई हीरो नहीं। देखने के लिए आसपास सभी कुछ अपने जैसा ही साधारण सा है। अच्छा भी, बुरा भी। सुख दुःख भी, आस निरास भी, हंसी खुशी भी। असाधारण कुछ नहीं। जिन्दगी की क्रूर स्थितियों में भी असाधारण देखने की मनस्थिति गायब हो गई है। आँखें जैसे एक ही आकार में खुलती बन्द होती हैं। फैलती, सिकुड़ती नहीं। माथे सपाट और समतल रहते हैं। धारियां नहीं पड़ती। यह एक रूप है ज़िन्दगी का।
इस निम्न मध्यवर्ग के नीचे भी एक स्तर है जीवन का, दरासल काफी नीचे। जहाँ उदासियों का ऐश्वर्य भी नहीं है। सोचने को, महसूस करने को जितना ढोर डंगर के पास है, बस उतना ही। और हमारे देश में इन की संख्या सब से ज्यादा है। हमारे बोझा ढोने वाले, रेढ़ी रिक्शा खींचने वाले। रोड़ी कूटने वाले, टोकरी उठाने वाले, खेत खलिहान में मजूरी करने वाले, कचरा बीनने वाले। भाग-भाग कर हुक्म बजाने वाले, होटलों-ढाबों में बर्तन मांजने वाले, मंडियों में झरिया लगाने वाले। आदमी भी, औरतें भी और बच्चे भी।
इन सब कामों में उम्र, शहर, कस्बा, गाँव किसी का दखल नहीं। प्रान्त, प्रदेश का अन्तर नहीं। कहीं कम कहीं ज्यादा। ये सब आश्वस्त हैं कि इससे ज्यादा उन्हें कुछ मिलेगा नहीं। कुचक्र इतना सबल है कि इन्हें आक्रोश की स्थिति में भी नहीं आने देता। कोई भी अवसर जिन की बातें सरकारें करती हैं, संस्थाएं करती हैं, इन के लिए सुनी सुनाई बातों की तरह भी नहीं। कहीं काम बदलेंगे तो पहले जैसा दूसरा भी होगा। इसलिए संतुष्ट। इनके प्रति एक विस्तृत संवेदन-हीनता हमारे समाज में है। अगर ये न हों तो किस का जीना दूभर नहीं होगा। इन का होना और अपनी जगह बने रहना हमारे समाज के लिए बहुत जरूरी है। किसी की ज्यादा दुर्दशा देखो तो दो शब्द हमदर्दी उडे़ल दो, बस और क्या। संख्या में बहुत कम लोग इतनी ज्यादा संख्या वालों को कैसे दबाए रखते हैं, ये एक भीषण अजूबा है। कुदरत का चमत्कार है, सितारों की गर्दिश है, कर्मों का फल है, ईश्वर का न्याय है, ललाट की रेखा है। और हमारी संवेदनाएं अपने सगे भाई-बन्धुओं, बाल-बच्चों, पत्नियों-प्रेमिकाओं से आगे बढ़ने में अशक्त हैं। आज़ादी इस इमारत को रंग बिरंगे पेंट से और चमकीला बना रही है।
ऐसे ही यथार्थों का अन्तरीकरण सामान्य जीवन के प्रति जो अन्तर्दृष्टि देता है वह अकसर किसी समय और प्रदेश तक सीमित नहीं होती। लेकिन एक सीमित समय या समाज के यथार्थ का सामान्यीकरण भी उसी अन्तर्दृष्टि तक ले जाता है जो सभी मानवीय सरोकारों का स्रोत बनती है। ऐसी ही यथार्थ दृष्टि समाजवादी दर्शन का स्रोत भी बनी थी जो मानवीय पक्षधरता का सबसे स्पष्ट और मौलिक चिन्तन बना, और आज भी है।
……To be continued