जैसे जैसे इतिहास साहित्य का रूप लेता है, उसमें कुछ नए आयाम शामिल होते चले जाते हैं। इतिहास एक रास्ते की तरह कहीं से कहीं होता हुआ हम तक पहुंचता है । उस पर उतना ही पीछे जा सकते हैं, जितना रास्ता है । उसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है ,जो हम तक नहीं पहुंचता है। इतिहास उसकी कल्पना कहीं करता है, कहीं नहीं करता। साहित्य उसी कल्पना का सहारा लेता है -उस सब कुछ को एक रूप देने के लिए जो जस का तस स्थूल रूप में हमारे सामने नहीं है। जो कुछ हमारे सूर ,तुलसी, कबी,र रहीम खुसरो अपने समय का बोध करा गए हैं, वह कोई इतिहासकार नहीं करा गया। इसी तरह हमारा प्राचीन दार्शनिक वैदिक साहित्य ही सर्वोपरि साक्ष्य है, अपने समय का। तब तक का इतिहास किसी अन्य ठोस रूप में हमारे सामने या तो है नहीं, या शंका ग्रस्त है। इतिहास साहित्य के समय की केवल स्थूल तथ्यात्मक व्याख्या नहीं है ।उस समय के मर्म को , भीतरी तथ्य को, जीवन की उस व्याख्या की रचना करता है जो दुर्ग दीवारों, नृप व्यवस्थाओं ,जय -पराजय, राज्य- विस्तार तथा अन्य विवरण नहीं कर सकते। इतिहास किसी भी समय का शारीरिक चित्रण हमारे सामने रख सकता है उस समय के जीवन का समग्र सत्य नहीं बन सकता। समग्र सत्य तक पहुंचने के लिए इतिहास और साहित्य के संगम स्थल तक पहुंचना जरूरी है ।वही समय का तीर्थ स्थान है।
वैसे तो सभी साहित्यिक रचनाएं अपने समय का किसी सीमा तक दर्पण होती हैं। लेकिन बहुत सीमित रूप में। उस समय के दैनिक जीवन की विस्तृत झांकियां ,दुख-सुख, कानून व्यवस्थाओं के अत्याचार, भुखमरी से सटी हुई अट्टालिकायें, वर्ग संघर्ष, किसी खास वर्ग के जीवन का अघोर काला नर्क। एक सुनियोजित रूप में वर्ण के आधार पर, नस्ल के आधार पर दैनिक अत्याचार, आक्रमणकारियों द्वारा जीते हुए प्रदेशों से मूल निवासियों का सर्व -विनाश कोई ऐसी घटनाएं नहीं है- जिन्हें केवल ऊपरी विवरणों से, छुटपुट झलकियों से, या सहानुभूतिपूर्ण दया धर्म से प्रेरित अश्रु प्रवाह से, काली पीली शब्दों की लकीरों से बयान किया जा सके। इतिहास के ऐसे समय हैं जहां इतिहास की पुस्तकों ने इतना भी नहीं छुआ कि उस दर्द की मध्यम सी आहट की आस पास की हवा को उद्वेलित करती। यह काम उन साहित्यकारों ने किया जिनकी वजह से आज इंसानियत का चेहरा शर्म से लाल हो जाता है। पीछे मुड़कर उनको समय की झलक देखते ही आंखों पर हाथ रखने पड़ जाते हैं । फर्क चाहे कुछ न पड़ता हो कहीं लेकिन एक भी गाली की तरह हमारे चेहरे को बेरंग कर जाते हैं वह विवरण -जो साहित्यकारों ने अपने उपन्यासों, कहानियों, कविताओं में रचे। इतिहासकार जैसी उन भीतरी पगडंडियों पर कभी चले ही नहीं। वह केवल राजमार्गों पर ही भटकते रहे। अधिकतर ऐसा ही हुआ है।