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Periodical- Krishan Kishore

Periodical- Krishan Kishore

दैनिक जीवन के कटघरों में भीड़ ही भीड़ है l व्यक्ति कहीं नहीं । उनका निजत्व अगर कहीं दिखाई देता है , तो उसके आधार में उनका बिखराव और टूटन भी दिखाई देती है । व्यर्थ का संघर्ष ही दिखाई देता है । एक थका हुआ मन भी आंखों से झांकता है । इन शिकंजों से टूटना ही होगा । एक-एक करके सब को अपनी ही  दिशा में बढ़ना कब होगा ?

खुले आसमान के नीचे खड़े होकर हवा पानी की तरह  अपनी दिशा में बह निकलना उतना कठिन भी नहीं। बस  हमारी स्मृति खो गई है । उसे है जोर से पुकारना है। वापिस बुलाना है। हम भूल गए हैं कि हम सब प्रकृति के तत्वों से ही बने हैं। हवा, पानी धरती , आकाश और प्रकाश हम सबके भीतर है हमें विचलित करने के लिए ।अपने ही विस्तार को पाने के लिए  , इन तत्वों का  एक झोंका ही बहुत है । कुछ ही दूर निकलने पर पर्वत,  झरने, नदियां, जंगल- सब हमारे साथ होंगे।  घर वापसी की तरह हम अपनी खोई हुई पहचान वापस पाएंगे । कहीं भी निकल पड़ने के लिए, कुछ भी कर सकने के लिए  मुक्त होकर ,उन सब परिस्थितियों का सामना  करने को तैयार होंगे -जो बच्चों को बच्चा नहीं रहने देते ।व्यस्को से उनका विवेक और बूढ़ों से उनकी उदारता छीन लेते हैं । इस संसार को जिन भीतरी बाहरी शक्तियों ने मरघट बना रखा है और घरों को कारागार । इन से मुक्त होना जीने मरने के  संघर्ष जैसा आत्म हंता भी नहीं ।  केवल अपने ही रूप में इन पर उजागर होना काफी है ।  हवा, पानी ,धरती ,आकाश और हमारा सूर्य हमारे साथ है ही । हमारे भीतर और बाहर प्रकृति का विस्तार हमारे साथ है ही।

 

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