दैनिक जीवन के कटघरों में भीड़ ही भीड़ है l व्यक्ति कहीं नहीं । उनका निजत्व अगर कहीं दिखाई देता है , तो उसके आधार में उनका बिखराव और टूटन भी दिखाई देती है । व्यर्थ का संघर्ष ही दिखाई देता है । एक थका हुआ मन भी आंखों से झांकता है । इन शिकंजों से टूटना ही होगा । एक-एक करके सब को अपनी ही दिशा में बढ़ना कब होगा ?
खुले आसमान के नीचे खड़े होकर हवा पानी की तरह अपनी दिशा में बह निकलना उतना कठिन भी नहीं। बस हमारी स्मृति खो गई है । उसे है जोर से पुकारना है। वापिस बुलाना है। हम भूल गए हैं कि हम सब प्रकृति के तत्वों से ही बने हैं। हवा, पानी धरती , आकाश और प्रकाश हम सबके भीतर है हमें विचलित करने के लिए ।अपने ही विस्तार को पाने के लिए , इन तत्वों का एक झोंका ही बहुत है । कुछ ही दूर निकलने पर पर्वत, झरने, नदियां, जंगल- सब हमारे साथ होंगे। घर वापसी की तरह हम अपनी खोई हुई पहचान वापस पाएंगे । कहीं भी निकल पड़ने के लिए, कुछ भी कर सकने के लिए मुक्त होकर ,उन सब परिस्थितियों का सामना करने को तैयार होंगे -जो बच्चों को बच्चा नहीं रहने देते ।व्यस्को से उनका विवेक और बूढ़ों से उनकी उदारता छीन लेते हैं । इस संसार को जिन भीतरी बाहरी शक्तियों ने मरघट बना रखा है और घरों को कारागार । इन से मुक्त होना जीने मरने के संघर्ष जैसा आत्म हंता भी नहीं । केवल अपने ही रूप में इन पर उजागर होना काफी है । हवा, पानी ,धरती ,आकाश और हमारा सूर्य हमारे साथ है ही । हमारे भीतर और बाहर प्रकृति का विस्तार हमारे साथ है ही।