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Slums- Krishan Kishore

Slums- Krishan Kishore

झोपड़पट्टी, झुग्गी-झोपडी़, चाल, फॅावेला, इन्किलिनातो, घेटो – दुनिया भर में फैले हुए अलग-अलग नामों के स्लम हैं, अलग-अलग धरती के टुकड़ों पर बिखरे हुए। लेकिन ये सब वही प्रेत प्रतीक हैं, जादुई वास्तविकताएं हैं जो अपना विस्तार तरह-तरह से करती हैं। हमारे स्कूली स्लम, हस्पताली स्लम, दफ्तरी स्लम, प्रशासनिक स्लम, राजनीतिक स्लम, धार्मिक स्लम, संस्थाई स्लम – इन स्लमों ने अपने लिए सुन्दर, इज्ज़तदार नाम हथिया लिए हैं। वास्तविक अन्तर इतना है कि झोपड़पट्टी नाम के स्लमों में बसने वालों में यह गंदगी बाहर ज्यादा है, भीतर कम। बाकी स्लमों में गंदगी भीतर ज़्यादा है – बाहर कम। ये भी एक प्रेत प्रबन्धन है जो इस अन्तर को बिखरने नहीं देता, सदियों से बनाए रखे हुए है। लेकिन हम बहुत मजबूर हैं, सिर्फ झोपड़़पट्टी नाम वाले स्लम की बात ही करते हैं। दुर्गन्ध, बीमारी, भुखमरी, बेरोजगारी, बालशोषण, महिला दुरुपयोग, अपराध, चोरी-चकारी, दादागीरी, टुच्ची राजनीति, खेल-तमाशा, हँसी-नाच, काम-धन्धे, सरकारी-गैरसरकारी संस्थाएं उन के पत्तेबाज, कबूतरबाज हस्तक्षेप अपने डैने फैलाते, गांव लीलते शहरों में जज्ब होते स्लम और इनकी व्यथा कथा का घोर नाटकीय मंचन ही देखने को हम आज मज़बूर हैं। मजबूर इसलिए कि कुछ कर सकने में अक्षम। हम इस समस्या के भीतर आवाजाही कर सकने भर को ही सीमित और शापित हैं। जो सक्षम हैं – हमारी सरकारें और सरकारी संस्थाएं, उन की शक्तिमता है और कुबेरों की नाथी सांडनी।

डेढ़ सौ वर्षों के अन्तराल के समय को दो टुकड़ों को हाथ में हाथ डाल कर साथ खड़े हुए हम देख सकते हैं। 1844 में एंग्लस ने The Conditions of the Working Class in England में लिखा था मानचेस्टर शहर के बारे में – ”एक अहाते में जहां छिपा हुआ रास्ता खत्म होता है, एक बिना दरवाज़े का शौचकुण्ड है। यह शौचस्थल इतना गंदा है कि आने-जाने वालों को पेशाब और शौच से लबालब छुटकु तालों से ही छप-छप गुज़रना पड़ता है। दूसरा कोई रास्ता नहीं।”

इसी से पीठ सटा कर खड़ा हुआ है 1976 में लिखा मेहा मुवांगी का नाईरोबी (Nairobi) के बारे में उपन्यास – Going Down River Road –

”ज्यादातर रास्ते गीले घास में से हो कर इधर-उधर निकलते थे। घास इन्सानी शौच और मूत से भरा रहता था। ठण्डी गीली हवा में यह दुर्गन्ध सनी रहती थी। कभी-कभार ही इसके बारे में कोई अपना क्षोभ दबी ज़बान से शायद कह देता। वरना अनिश्चय, जमी हुई स्वीकृति और विमुखता ही अधिक दिखाई देती।”

U N Habitat की 2002 रिर्पोट के अनुसार भारत में आज भी 60 करोड़  लोग बाहर खुले में शौच के लिए मज़बूर हैं। 3700 शहरों में से सिर्फ सत्रह में गन्दे पानी के निकास का प्रबन्ध है। बड़ी बाईस झोपड़पट्टियों के सर्वेक्षण में सामने आया कि दस लाख झोपड़पट्टियों में प्रति एक लाख लोगों के लिए सिर्फ बीस शौचालय हैं। नौ पट्टियों में शौचालय हैं ही नहीं। इन पट्टियों में शौचालय होना या न होना किसी सुख या दुख की रेखायें नहीं खींचता। ऐसी छुटकी असुविधायें उन के वहां बने रहने के भय को भी कम या ज्यादा नहीं करतीं। जो कुछ नहीं है, उन की सूची में बस एक और असुविधा यह भी है।

आस-पास कोई कारखाना नहीं, छोटी-बड़ी लोहा भट्टियां भी नहीं, प्लास्टिक के छोटे पेंच बनाने तक की दो फुटी हत्थी भी नहीं लेकिन कलकत्ता की पार्क स्ट्रीट रेलवे फाटक के इस तरफ संकरी गलीनुमा, चल भर सकने की जगहें अपनी झोपड़ी तक पहुंचने को धरती की एक लकीर। दोनों तरफ ऊपर नीचे अड़ी-सटी लहलहाती, हुंकारती, धड़कती झोपड़ियां। सभी के बाहर जीवन्त लोगों का भरापूरा संसार। कौन किस निकास छिद्र से आकर बाहर बैठ गया है, रात को कौन किस घुरने में तप्पड़ शैया पर गहरी नींद सोता है, इस का अन्दाजा लगाना मुश्किल। सभी घुरने जैसे सभी के सांझे। देखने में ऐसा ही लगता है। उसी के थोड़ा आगे है हमारी बन्दर पट्टी। यहां रास्ता – लकीर कुछ चौड़ी है। लोग-बाग सिर झुका कर अपनी खोलियों से बाहर आते हैं, किसी से बतिया कर गायब हो जाते हैं। बन्दर नचाने वालों की बस्ती के खिलौनों जैसे बच्चे इधर-उधर लुढ़क पुढ़क कर कहीं गुम हो जाते हैं। शोर मचाती उनकी मांओं को दुनिया भर के काम हैं। समय की बहुत कमी है। आदमी दिन में लोगों का मन बहलाने अपने बन्दर लेकर बाहर निकले हुए हैं। शाम को खूब भीड़ है। अन्दाजा नहीं था कि इस मुश्किल से सौ गज लम्बी और दस फीट चौड़ी इस पट्टी पर सैकड़ों लोग किस तरह आत्मसघनता से स्वनियन्ता हो कर, भविष्य इस से कुछ अलग होगा, इस छलना से मुक्त, एक पूर्ण जिन्दगी जी रहे हैं। अपने देश, राजनीति, सरकार, दूसरी सामाजिक संस्थाओं पर किसी भी तरह भरोसा कर सकने का कोई भी कारण उन के पास नहीं है। दो दोपहरियां और दो शामें उन के साथ गुजार कर ऐसा लगा कि यहीं बस जाओ। अपने बाहर के जीवन छदम्‌ हैं, आत्मघाती। झूठे विश्वास और मान्यताएं, धर्म, समाज, राजनीति तथा अन्य प्रशासनिक व्यवस्थाओं की दुर्गन्ध और विषाक्त आगत-अनागत से मुक्त यहीं बस जाओ। हाड़ तोड़ मेहनत बस और कुछ नहीं, दो रोटी का संघर्ष, बस और कुछ नहीं। एक तप्पड़ शैया और नींद और वासना और उस का फल बच्चे – बस और कुछ नहीं। सारी बीमारी, ज़हर सरीखी दवादारू, हत्यारे डाक्टर और नाटकीय हस्पताल और जैसी-कैसी मौत, बस और कुछ नहीं। सब दूसरे लच्छेदार, रेशमी और गिरगिटी संघर्षों से मुक्ति। दूसरों की तरह जियो का छद्म खत्म। ताजिये निकलने की शाम थी। एक जश्न जैसा था। सभी को इस उत्सव में शामिल होना था। हम पर बिना किसी वजह से उनका भरोसा कुछ देर की बातचीत से इतना दृढ़ हो गया था कि वे उस शाम को हमें अपना ही हिस्सा समझा बैठे। लकड़ी के एक मरियल तख्तपोश पर बैठ कर दुख कम, सुख ज्यादा बांटे। जोश दिलाने वाली बातों पर, खासकर लड़के-लड़कियों के चेहरे तमतमा उठते जैसे कुछ भी करने को तैयार। जिन के आगे पीछे बचाने खोने को कुछ नहीं, बस उन्हीं जैसा सहज विश्वास। हर तरह से वंचित, मरियल जिस्म भीतर से इतने भरे-पूरे हैं, हैरानी होती है। हम सब कुछ लिए हुए भी इतने रिक्त। अपनी बीमारी, अपने तमाम कष्टों, दुखड़ों और सरकारी धोखाधड़ियों की बात करते हुए ये किसी भय, आतंक या ज़हर से भरे हुए नहीं थे। उनकी गरीबी अपनी ही समस्या ही हो जैसे। कोई आगे बढ़ सकने के तरकीबी षड़यंत्र उनकी गरीबी से पैदा नहीं होते। इस मारामारी से आगे बढ़ती हुई दुनिया से, कुछ ही दूर आगे जाकर ऊँची इमारतों से और उन से कुचक्रों से वे बेखबर नहीं हैं। लेकिन इस प्रगति के साधनों से एक भय उन्हें लगता है कि वे कभी भी इस प्रगति की चपेट में आ जायेंगे। किसी प्रसाधन के नाम पर उन की झोपडि़यां उखाड़ दी जायेंगी, उन्हें उठा कर कहां पटक दिया जायेगा – इसका भय उन्हें रहता है। प्रगति उनके लिए एक जंगली, पाशविक शक्ति है जिस से वे अपने आप का बचा नहीं पायेंगे। एक दिन ऐसा आ सकता है कि दिन-दहाड़े, एक जानवर उन पर झपटेगा और थोड़े से संघर्ष के बाद, थोड़ी सी चीख-पुकार के बाद आँखें बन्द कर के, अपने आप को ढीला छोड़ कर उन्हें चुप बैठ जाना पडे़गा। यही बिच्छु दंश उन्हें एक भीतरी पीड़ा देता रहता है। भूख-बीमारी इस पीड़ा के सामने कुछ नहीं।

 

जिस्मो दिलो दिमाग जलेंगे बदोशे शब

हम ही अन्धेरे रास्तों में जगमगाएंगे।

पेरू के एक राजनीतिज्ञ/अर्थशास्त्री अपने नये तर्क के साथ प्रस्तुत हुए थे। मेक्सिको, ब्राज़ील और लेटिन अमेरिका के कई देशों में उन की योजना को लागू भी किया गया। वह अर्थशास्त्री हैं Hernando De Soto। अरनान्डो डी सोटो कहते हैं कि प्रत्येक झोपड़पट्टी वाले की झोपड़ी को उस की सम्पत्ति मान कर उसे स्वामित्व का पट्टा दे दिया जाये। यानी वे अपनी झोपड़ी के कानूनी मालिक। टैक्स भी वे शहर को देंगे। उस निजी सम्पत्ति के आधार पर चाहे थोड़ा ही सही, बैंकों से कर्ज भी ले सकते हैं। अपनी झोपड़ी की दशा सुधारने के लिए या कोई छुटपुट काम धन्धा करने के लिए। अगर दस हज़ार झुग्गियों के स्वामी प्रापर्टी टैक्स म्युनिसिपल कारपोरेशन को देंगे, उस के बदले उन्हें सुविधाएं मिल सकती हैं। बिजली, पानी, पक्की गलियां स्कूल इत्यादि। वोट तो वो देते ही हैं लेकिन उठा दिये जाने के भय से वे वोट उन्हीं को देते हैं जो सत्ता में हैं। अपनी सम्पत्ति के मालिक की हैसियत से उन का उठाए जाने का भय समाप्त होगा, वोट का प्रयोग भी अपनी समझ से होगा, भय से नहीं। काम धन्धा, झोपड़पट्टी से बाहर निकलेगा। अपने पास कुछ होने का विश्वास बड़ी ताकत बनती है। एक नागरिक के रूप में वैधता मिलना ज रूरी है। किसी परिवार का कहीं भी कुछ नहीं हैं, यह कैसी स्थिति है। न वे मकान मालिक हैं, न किराएदार। वे काम करते भी हैं लेकिन क्या करते हैं, बताने को कुछ खास नहीं। वे न मज़दूर हैं न किसान, न दुकानदार न नौकरीपेशा। तब वे क्या चोरचकार हैं। ऐसा भी नहीं। क्या वे भिखारी हैं, ऐसा भी नहीं। वे इन सभी कामों और स्थितियों के बीच बिखरे होते हैं। कभी नौकर, कभी मज़दूर कभी भिखारी भी। ऐसी स्थिति में करोड़ों लोग जिन देशों में रहते हों, उन देशों की प्रगति सिर्फ बाहर से आये मेहमानों को ही दिखाई जा सकती है, देशवासियों को अपने आंगन के बीचों-बीच या दरवाज़े के बाहर पड़ा कूड़ा खूब दिखता है। सड़कों पर बे दरो-दीवारी में घूमते लाखों बच्चे किसे नहीं दिखते। इन पट्टियों से निकल कर वे पटड़ियों पर आते हैं। दिन भर न जाने क्या करते हुए यूं ही खूब बड़े हो जाते हैं। विकास और प्रगति इन के चारों तरफ है। वे ठीक इस के बीचों-बीच खड़े हैं। लेकिन यह बीच की जगह इतनी लम्बी चौड़ी है कि वे चाहे जितना दौड़ लें अपने चारों और पसरी प्रगति को छू नहीं सकते। इन सब को किसी गिनती में तो लाना ही होगा। इन्हें कोई नाम और अपना पता देना ही होगा। De Soto की योजना को बहुत लोगों ने नाकाफी माना है और गलत भी। झोपड़ी का स्वामी बनने पर भी कौन बैंक उन्हें कर्ज देगा। कौन उसे पूंजी की तरह भुनाने देगा। लेकिन एक उठा दिया जाने का भय तो खत्म होगा। अपनी मेहनत से शायद छप्पर की बजाय छत डाल सकें। जो भी हो, जब तक उन्हें आवासित नहीं किया जाता, यही तरीका बेहतर है। प्रगति और विकास की दौड़ में आए हुए देश इन्हें कभी आवासित नहीं करेंगे, किसी न किसी प्रसाधन के नाम पर इन धब्बों को मिटाएंगे ही।

दानदया की धार्मिकता हमारी समस्याओं का आधार कभी नहीं होगा। आज़ादी के 70 साल बाद भी जिस देश में उपनिवेशक पद्घतियां, संस्थाएं और काम करने के तरीके ज्यों के त्यों बने हुए हों, जहां कोई भी सत्ता में आया हुआ दल उसे बनाए रखने में ही अपना लाभ समझता हो, वहां प्राईवेटाईजेशन, ग्लोबलाईजेशन और लिबरिलज्म जैसी सिद्घियाँ हमारे एक ही हिस्से को सशक्त करती जायेंगी  दूसरा हिस्सा अपाहिज बना रहेगा। सिर्फ ईमानदार समाजोन्मुख सरकारी नीतियां और उन का ईमानदारी से लागू होना ही हमारे जैसे देशों का एक-मात्र हल है। अपनी धरती की समस्याओं के बारे में ईमानदारी से सोचने पर दोचार हाथ की दूरी पर ही समाधान किसी तिराहे-चौराहे पर मिल जाते हैं। साधनों की कमी इतने बड़े देश में नहीं होती यदि सारा पैसा आलीशान भवन निर्माणों और देसी-विदेशी व्यापारियों को सुविधाएं पहुंचाने के लिए ही खर्च न कर दिया जाए। साधनहीनों को सामान से भरी हुई मंडियां नहीं चाहिएं, उन्हें चाहिए करखाने और अन्य उद्योग धन्धे, जहां उन्हें चाहे जैसी और जितनी भी उनकी शिक्षा हो, काम मिल सके। पास-दूर कहीं भी रहने को छोटा घर मिल सके। इतना भी मुश्किल नहीं है यह सब हासिल करना, अगर ईमानदार कोशिश हो।

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