वैदिक साहित्य में जिन पशु-पक्षियों का ज़िक्र आता है – जैसे अश्व, हस्तीन, खर, महिषा (भैंस), मयूर, ऊष्ट्र तथा भेड़-बकरियों के आदि संस्कृत नाम जैसे सरभा इत्यादि, सभी भारतीय परिवेश से सम्बन्धित हैं। ये ईरान की आवेस्ता भाषा में भी हैं जो ज़ोरोस्ट्रीयन मत वालों की भाषा थी। उस के आगे, यूरोप की तरफ बढ़ते हुए जो पेड़ और दूसरी वनस्पति जगत की शब्दावली है, उस का भी ध्वन्यात्मक स्वरूप वैदिक साहित्य में है। इसके अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण भाषाई समानता इण्डोयूरोपियन भाषाओं में मिलती है जिसका सबसे बड़ा भाषा समूह इण्डोईरानियन भाषाएं हैं। यह एक ऐसी तर्क लड़ी है, जो सारे भूभाग को, मध्य एशिया, ज्योर्जिया, आरमेनिया, अज़रबाईजान, दक्षिणी रूस, ईरान और पूर्वी और पश्चिमी यूरोप तक भाषाई और अन्य कई समानताओं से निर्मित होती है। नस्ल (रेस) को यूरोपियन लोगों ने बड़ा महत्व दिया और उस आधार पर आर्यों को, पश्चिमी जर्मनी इत्यादि के साथ जोड़ने की कोशिश की। लेकिन सप्तसिन्धु (आज का पंजाब) जिसे वेदों की रचना भूमि माना जाता है, के निवासियों की सूरतें, सारे लोअर रूस के भागों से लेकर ईरान तक के लोगों से मिलती हैं। जलवायु इस का एक बड़ा कारण है। मैक्समूलर ने अपनी सैद्घाँतिकी को सिर्फ भाषा तक केंद्रित रखा था। उन्होंने उस समूचे मानव समूह को जो आर्य भाषा बोलता था ‘आर्य’ कहा। नस्ल या जाति से उस का कोई सम्बन्ध उन्होंने नहीं माना। ये सभी साक्ष्य उन भाषाओं से लिए गए हैं, जो किसी तरह ऋग्वेद में प्रयुक्त भाषा से सांझ रखती हैं। लेकिन ऋग्वेद तक आते आते उन भाषाओं के मौलिक रूप केवल शब्द ध्वनियों की सांझ और अन्तः परिवर्तित स्वरूपों तक सीमित रह गए हैं। किसी धरती के पशु पक्षी, वनस्पति, नदियां, पहाड़ एक चेतना के रूप में आत्मसात करने में, उन्हें आत्मज की तरह मानने बखानने में पीढ़ियां नहीं, सदियां लग जाती हैं। इस धरती पर आते ही तो ऋग्वेद जैसी रचना एकदम घटित नहीं हो गई होगी। जाहिर है, वे सदियों तक धीरे धीरे यहां आते रहे या वे मूल रूप से थे ही यहीं के। आक्रमण जैसी घटना बिल्कुल अस्वाभाविक है। जो पेड़, पौधे बाहर से सम्बन्धित किए गए हैं, हमारे पर्वतीय ढलानों पर भी मिलते हैं। जो नहीं मिलते, उन की खोज आवश्यक है। लेकिन खोज की प्रणाली यह नहीं होनी चाहिए कि नतीजा पहले निकालो और फिर उसके प्रमाण एकत्र करो। भाषाई साम्य केवल स्थानांतरण से ही नहीं और भी पारस्परिक आदान प्रदान से संभव होता है। हैरानी इस बात की है कि इस प्रश्न को क्यों नहीं उठाया गया कि जब इतने बड़े पैमाने पर एक ही भाषा बोलने वाले लोग एक ही भूभाग के निवासी थे और जिन्होंने ऋग्वेद जैसी विपुल धार्मिक-सांस्कृतिक ग्रंथ की रचना की (जो उस समय की किसी भी और रचना से अधिक पुरानी और विकसित है), तो अधिक संभावना इसी बात की हो सकती है कि यहीं से वे लोग अन्य दिशाओं की तरफ गए। अफ़गानिस्तान, ईरान होते हुए पूर्वी यूरोप यानी ग्रीस-इटली इत्यादि के बाद पश्चिमी यूरोप पहुंचे। भाषाओं की सांझ का अन्तः साक्ष्य और अन्तर्सम्बन्ध भी इस बात से खण्डित नहीं होता। यूरोप वाले शायद इस बात को एक सम्भावना मान कर कभी चले ही नहीं। वे मध्य एशिया या पश्चिम से ही आर्यों का इधर आना मानते हैं।
हमारे आज के इतिहासकारों ने इस बात को काफी प्रामाणिक ढंग से कहा है कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आए। खासतौर पर सरस्वती नदी (घग्गर-पंजाब, हरियाणा, राजस्थान) की खोज और पुर्नस्थापना के बाद। वे यहीं के मूल निवासी थे और तरह तरह के रंगों, शक्लों और धार्मिक विश्वासों वाले अन्य मूलनिवासियों के साथ रहते थे। आपसी युद्घ भी उन के होते थे। किसी बृहत बाहरी आक्रमण और विजय की कहानी वेदों में वर्णित छुटपुट युद्घों या शत्रुताओं से सिद्घ नहीं होती। बड़े पैमाने पर यहां के मूल निवासियों को युद्घ में हरा कर बाहर से आए हुए आर्य लोगों ने उन्हें गुलाम बना लिया और फिर वही शूद्र बना दिए गए, यह मत भी प्राचीन ग्रन्थों में कहीं प्रमाणित नहीं होता। इतनी बड़ी विजय, पराजय, युद्घ, संघर्ष इत्यादि का कोई वर्णन इन प्राचीन ग्रन्थों, विशेषकर प्राचीनतम ऋग्वेद में नहीं मिलता।
To be continued…