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कहानी का अन्तःसदन-कृष्ण किशोर

कहानी का अन्तःसदन-कृष्ण किशोर

एक अन्धा आदमी सड़क के किनारे हाथ फैलाए खड़ा है। कुछ चबा रहा है – च्युईंग गम या कुछ और। चबाते हुए लगता है जैसे हंस रहा हो। उस की आंखें कैसे गईं – इसका कोई सवाल नहीं है। बस वह इस दुनिया में है और अन्धा है। सड़कों पर गाड़ियां, ट्रैमें वगैरह दौड़ रहे हैं। एक औरत अपनी ट्रैम में बैठे हुए ही, उसे देखती है। लगभग आधा मिनट को ही ट्रैम उस स्टॉप पर रुकी है। औरत घूर कर उसे देखती रहती है। उसे लगता है वह अन्धा उसी की तरफ देख रहा है। अपनी पूरी खुली आंखों से उसे देख रहा है। यह चित्र उस की चेतना में फ्रीज़ हो जाता है। एक संवेदना उसे जकड़ लेती है। उस अन्धे के प्रति अतिसंवेदनशीलता उसमें एक भय जागृत करती है। सारी दुनिया क्रूर है, संदिग्ध है, अनिश्चित है। यहां कभी भी, किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है। जिस वजह से वह व्यक्ति अन्धा हुआ है, वे सारी वजहें हमारे सारे वातावरण में फैली हुई हैं। कुछ भी सुरक्षित नहीं है। अतिसंवेदना, अतिभयावहता में बदलती है। इस भयावहता का इतना विस्तार एक क्षणिक दृश्य से पैदा होता है। लेकिन मूल में वही संवेदना है। कुछ चबाता हुआ, हंसता सा लगता हुआ, बाँह फैलाए, सड़क के किनारे खड़ा वह अन्धा आदमी किस यथार्थ का प्रतीक है! सर्वव्यापी लाइलाज क्रूर स्थितियों का – जहां जीवन का सारा विनाश ऋण्खलित है। एक दूसरे के ऊपर भरभरा कर गिरती हुई छोटी बड़ी विनाश स्थितियां, जीवन का सारा तामझाम समेट कर रखने, बचा कर रखने जैसी हास्यास्पद स्थिति। लेटिन अमरीकी कथाकार क्लेरिस लिस्पेक्टर की यह कहानी ‘लव’ कुछ इसी तरह की स्थिति बुनती है – अतिसंवेदनशीलता से पैदा होने वाला असुरक्षाबोध।

वह औरत ट्रैम के चल पड़ने के झटके से गिरा हुआ सामान संभालती है। अन्धा आदमी अभी अभी पीछे छूटा है। कहानी बढ़ती है, क्षति हो चुकी थी। उस की गोद में रखे टूट गए अण्डों का पीला गाढ़ा पानी बाहर रिस रहा था। अपने समय से एक दम निर्वासित होकर वह महसूस करने लगी जैसे गलियों में चलते हुए लोग खतरे में हैं। जैसे इस अन्धेरे में वे मुश्किल से अपना सन्तुलन बनाए हुए हैं और जैसे उन्हें कुछ पता नहीं कि किधर जाना है। एक दम ही ऐसा अहसास हुआ कि जैसे कोई कानून, व्यवस्था नहीं है। उसने अपने आगे वाली सीट कस कर पकड़ ली। उसे लगा जैसे सब कुछ चुपचाप उथल पुथल हो जाएगा। फिर भी, लगेगा जैसे सब कुछ वैसे ही है जैसे पहले था, जब व्यवस्था थी।

घर पहुंच कर अपने सात-आठ साल के बेटे को देखती है, उस की टांगें उसे बहुत पतली और लम्बी लगती हैं। बेटे को इतनी जोर से भींच कर गले लगाती है कि वह डर जाता है। स्टोव के भड़कने की आवाज़ से चौंक कर, अपने पति को डरी हुई नज़रों से देखती है। उस की बांहों में शिथिल होकर लड़खड़ा जाती है। ‘स्टोव को भड़कने से तुम नहीं रोक सकती’, वह उसे हाथ पकड़कर बैडरूम की ओर ले जाता है। इस तरह जैसे वह उसे जीने के खतरे से दूर ले जा रहा हो। ‘संवेदना का नशा उतर चुका था, उसे लगा जैसे उसने प्यार और उसके नर्क को पार कर लिया हो। अब वह शीशे के सामने अपने बालों में कंघी कर रही थी। कोई भी बाहरी संसार अब उस के मन में नहीं था। बिस्तर में जाने से पहले उसने दिन में पैदा हुई लौ को ऐसे बुझा दिया जैसे कैंडल बुझा रही हो।’

एक चित्र तो यह है कि हम अपनी सुरक्षा के बन्दोबस्त कड़े करने में लगे हुए हैं। हर चौराहे पर बांहें फैलाए खड़ी अशक्तताओं को देख कर डरे हुए हैं। भयावह स्थितियों की कल्पना करते हैं। अपनी सुविधा और सुरक्षा के दबड़ों में पहुंच जाने की आत्मलिप्त जल्दी में हैं। विनाश जिस का है, सिर्फ उसी का है। हम उसमें कहीं शामिल नहीं। भय सिर्फ तभी है जब हम निशाने पर हों। कैसी विडम्बना है कि भय यही है कि हर वक्त हम निशाने पर हैं। वह अन्धा आदमी हमें ही देख रहा है।

यह हंसता सा लगता हुआ अन्धा आदमी हमारी ज़िन्दगी का प्रतीक बना हुआ है। हमारी स्थितियों का, छोटे बड़े दैनिक डरों का, आतंकों का, कल क्या होगा की अनिश्चितताओं का, अन्धेरे में प्रवेश करते मानव सम्बन्धों का। उन सारे दबावों का जो हमारे समाज ने पैदा नहीं किए, कहीं बाहर से आकर जिन्होंने हमें दबोच लिया है और जिन का हम हंसते हुए, गम चबाते हुए एक अन्धे की तरह स्वागत भी कर रहे हैं। राजनीतिक अंधेरगर्दियों का – जिन से हम बचे रहना चाहते हैं। प्रणय सम्बन्धों का – जो सिर्फ छू कर ही समझ आ सकते हैं। अप्रत्याशाओं का – जो नितांत सहज स्थितियां बन गई हैं। यहां दयनीय कुछ नहीं। ट्रेजेडी, कॉमेडी कुछ नहीं। सिर्फ स्थितियां हैं, स्वप्न नहीं है। यही सपनों का न होना हमारा आज का दुःस्वप्न है। और यही दुःस्वप्न हमारा आज का यथार्थ है। ऐसा दुःस्वप्न जिससे मुक्ति की तलाश भी हमें नहीं। इस दुःस्वप्न को हम हंसते हुए, गम चबाते हुए जी लेना चाहते हैं। हमारी यही मध्यवर्गीय आत्मस्वीकृत विवशता, यही निरंकुश स्थितिबोध हमारी आज की कहानियों में अधिकतर व्यक्त हो रहा है।

To be continued

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