alsoreadकविता

जो कुछ साथ चला आया था

जो कुछ साथ चला आया था

जो घटा नहीं था जो अभी घटना बाकी था

बस वही साथ चला आया था

धरतियां सोख लेती है स्मृतियां

हवाएं उड़ा ले जाती है आंखों की नमी जहां-तहां

बिन जाते हैं सपने जैसे बगुलों की राह पड़े तिनके

चमकता सूरज सोख लेता  अतीत का वाष्प

पूरा कंठ खोलकर गाने से भी अपनी आवाज नहीं सुनती

कुछ भी सोचना उमस उमस बतियाना

बालू में लौटते फिरो

साथ नहीं आता एक कण भी

ऐसी ही जगह पहुंच पुरानी चोट की तरह

मन टीस कर बैठ गया था।

इतनी उम्र कहीं टिके रहना

पहाड़ जंगल नदियों की स्मृति भर है क्या

पर्वतों मैदानों से उतरती नदी की तरह

किसी रूप और प्यार की स्मृति भर है क्या

या कुछ सुदिनों कुदिनों के मकड़जाल हैं

कोनों में लटके हुए जिन्हें बेआवाज बुहारा जा सकता है

छन बिन कर जो बचा

वह तो अंधेरी कोठरी के कोने में पड़े

कबाड़ जैसा भी नहीं।

जो भी इस जड़ जीवन में घटा -अच्छा बुरा

एक खरोंच भर से ज्यादा कहां

किसी को कहने सुनने के काम का भी नहीं

ऐसी भी नहीं थी अपनी सुबह शाम दोपहरियां

कि अपनी परछाई भी उनमें दिखे

बिल्कुल काई भरी तलैया जैसी।

ऐसा लगा था

पीठ किसी दीवार में जड़ा दरवाजा हो

सांकल कभी चढ़ी कभी उतरी

सायं सायं  करती हवाओं में खुलते भिड़ते पाट

अस्थिर और बेचैन

यही था कुछ अस्थिर और बेचैन

जो साथ चला आया था

जो अभी घटना बाकी था घटा नहीं था

आंखों का पानी माथों का पसीना

सूखते देखने की आस

चमड़ाए चेहरों पर अन्न की महक

हाथों पैरों में हरे पत्तों की चमक

और उसमें शामिल अपने श्रम पसीने का स्वाद

इन सब के बिना खटखट बजता खाली टीन का डिब्बा था मन

जो साथ चला आया था

यह कोई स्मृति नहीं थी जिसे धरती सोख लेती

जिसे हवाएं उड़ा ले जातीं

जो घटा ही नहीं

बाहर  खड़ा पीटता रहेगा आत्मा का द्वार

या किसी तेज घूमते वृत्त के केंद्र में

एक बड़े गोल सुराख की तरह

उगलता रहेगा आग

धरती का सूरज से छिटक कर अलग होना भी

क्या ऐसे ही हुआ था।

कृष्ण किशोर

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