alsoreadकविता

बहुत पीछे मुड़ कर – कृष्ण किशोर

बहुत पीछे मुड़ कर – कृष्ण किशोर

मैं सूने मंदिर का भगवान

मुझे न कोई पूजने आता

मेरे पाषाणों की भाषा

न कोई कभी पढ़ पाता

मैं अनंत साधना लिए हुए बैठा हूं

की युगों युगों तक घोर तपस्या मैंने

लेकिन इस पथ से कोई पथिक न गुजरा

मैं जिसको अपना कुछ भी फल दे पाता

मेरी सौरभ वायु के झोंको में

विलीन हो जाती

मेरी सुंदरता वृक्षों की काली

छाया बन जाती

मेरे उपवन में कोई भ्रमर न आया

मैं जिसको अपना मधुर मधु दे पाता

मैं सहस्त्रों वर्ष प्राचीन खंडहर की भाषा हूं

मेरे कारण इतिहासों को मान मिला है

कुछ देर और हूं मौन धरा वालो तुम सुन लो

स्वयं जगत   वाले मेरे दर शीश झुकाने आ जायेंगे

बीहड़ बन में भी सजूं यदि मैं पत्थर बन कर

मुझ को जग वाले वहीं पूजने आ जायेंगे

To be continued..

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