articleलोकतंत्रविचार

सपना जो बिखर गया

कृष्ण किशोर

आज कहीं भी सारे विश्व में लोकतंत्र की बात करते हुए, आंखें बंद हो जाती हैं सिर झुक जाता है। इंसान के सबसे बड़े सपने और प्रयास के, इस तरह बिखर जाने से ऐसा लगता है जैसे, दिन बहुत छोटे हो गए हैं, रातें बहुत लंबी। इस के अंधेरे में – जो कुछ हो सकता है, बस वही हो रहा है। निर्मम होकर ही कोई सत्य जस का तस कहा जा सकता है। सो आज का सच यही है कि लोकतंत्र दुनिया में कहीं भी दूध का धोया नहीं रहा। बहुत कम देश प्रदेश है जहां रंग – साफ सफेद है, पर पूरा नहीं। ज्यादातर रंग काला, नीला भूरा, पीला, लाल या मटियाला है। जो कुछ खो गया है उसकी तलाश भी नहीं।

दरअसल लोकतंत्र को हमने अपनी अपनी दैनिक ज़िंदगी से अलग कुछ ऐसा समझा कि यह केवल शासन पद्धति है, कुछ नियम कायदे हैं, और कुछ थोड़े से लोग हैं जो इन कानूनों और तौर तरीकों को बाकी सब पर लागू करने के जिम्मेदार हैं। हम हमेशा ही यह भूले रहे कि लोकतंत्र में चुनाव और सरकार लोकतंत्र पद्धति का मामूली सा, एक औपचारिक सा हिस्सा है। लेकिन हमने उसी को लोकतंत्र मान लिया है। लोकतंत्र वास्तव में लोक शक्ति को छोटा करने का बड़ा साधन बनकर सिहासन पर जा बैठा है। 

जनता के प्रतिनिधि बनना एक जोखिम का काम है। बड़ी ज़िम्मेवारी का काम है, और फिर वेतन और पारिश्रमिक बहुत थोड़ा। इसे देखते हुए बहुत ही कम लोग प्रतिनिधि बनने का साहस लेकर सामने आने वाले होने चाहिए। मगर बात इससे बिल्कुल उल्टी है, सब से लंबी लाइन यही है।

लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक प्रबन्धन नहीं है। जब तक हमारी दैनिक व्यावहारिक सोच का लोकतांत्रिक आधार पैदा नहीं होता, तब तक हमारी राजनीति का आधार भी लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। लोकतन्त्र की अवधारणा हमारी मानसिकता और सामाजिक मूल्यों में निहित अधिक है। इन दोनों की अनुपस्थिति में लोकतन्त्र केवल एक संवैधानिक प्रस्तुति और औपचारिकता बन कर रह जाता है। व्यावहारिक स्तर पर उसे अपनाने और लागू करने के लिए जोर जबरदस्ती का सहारा लेना पड़ता है।

लोकतन्त्र एक पूरी जीवन पद्धति है। जीवन जीने का तरीका है जैसे कभी हम अपने धर्म के बारे में कहते थे It is a way of life – (आज धर्म की बात करते हुए डर लगता है।) लोकतन्त्र हमारा भविष्य उस तरह नहीं है जिसे काल से विभाजित करके देखा जा सके। समय की निरन्तरता से अलग करके देखने में हमारे लोकतन्त्र का ताना बाना उखड़ पुखड़ जाता है। यह वही स्वप्न है जिसे सर्वोदय और स्वराज्य के रूप में हमने देखा था। ग्रामोदय भी उसी का हिस्सा है। हम न चीन बनना चाहते हैं, न अमेरिका। दोनों देश ही पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं हैं। हम केवल आयात निर्यात की दरों को अपने लोकतन्त्र की कसौटी नहीं बनाना चाहते। अपने गाँवों का आत्मविश्वास और उनकी आत्मनिर्भरता उससे अधिक महत्वपूर्ण है। उद्योग धन्धे और व्यापारी मण्डी अगर केवल मध्यवर्ग की संख्या बढ़ाती है और गरीबों की संख्या कम नहीं करती, ऐसा प्रबन्ध हमें नहीं चाहिए। हमारी शिक्षा पद्धति अपने आप में एक नए  विभाजन का नमूना बन जाए और सामाजिक संतुलन को छिन्न भिन्न कर दे, ऐसी व्यवस्था हमारा स्वप्न नहीं है।अपनी धार्मिक मान्यताओं में जी कर भी हम राजनीति में पूरी तरह धर्म निरपेक्ष हो सकते हैं –राजनीति अपने आप में एक सांझी संस्कृति है जो सिर्फ़ सांझे हितों के प्रयास पर आगे बढ़ती हैराजनीतिक संस्कृति अपनी भाषाओं की जीवनवाहिनी, आत्मोन्मुखी शक्ति को नकार कर आत्मविश्वास रहित सतही विदेशी अभिव्यक्तियों की मरुभूमि भी हमारे लोकतन्त्र की सौंधी मिट्‌टी नहीं बन सकती। हमें अपना ही उजलापन चाहिए, चमक दमक नहीं। हमें शक्तिशाली गांव, सुरक्षित कस्बे-शहर, संतुलित मानसिकता, निष्पक्ष साधन संचयन-वितरण चाहिए। हम अपने अतिरिक्त कुछ और नहीं बनना चाहते। सिख, ईसाई, हिन्दू, मुस्लिम, पारसी, यहूदी, उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी, पश्चिमी प्रदेश मिलकर भारत बनता है । चीन, अमेरिका, यूरोप और रूस आर्थिक आकृतियाँ हैं, मानसिक मानचित्र नहीं। हम बदलना चाहते हैं। भरपूर परिवर्तन करना चाहते हैं। लेकिन अपनी ही दिशा में, हम अपना ही विपरीतार्थी लोकतन्त्र नहीं, समानार्थी लोकतन्त्र तैयार करना चाहते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि भारत आज आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के रूप में अपनी पहचान बना रहा है। एक स्थिर और स्थापित लोकतन्त्र इतनी बड़ी आबादी वाले देश में अपने आप में एक उपलब्धि है। पहले से कहीं अधिक हमारे साधारण जन जागृत हुए हैं। हमारे कमज़ोर वर्गों, जातियों की स्थिति में लगातार सुधार आया है, हमारी स्त्रियां आज अधिक साहसी और आत्मविश्वासी हैं। अधिक बच्चे स्कूलों में जाते हैं। हमारी छवि विदेशों में एक शक्तिशाली देश के रूप में तेजी से उभरी है। लेकिन फिर भी भीतरी कमज़ोरियाँ बाहरी छवि से अधिक महत्वपूर्ण हैं। अपने आत्मविश्लेषण की स्थिति में आते ही एक निराशा और उदासी है जो हमें घेर लेती है। उसी निराशा और उदासी को एक तेज निष्पक्ष रोशनी में देखने से जो कुछ नज़र आता है, उसे ही कहने की ज़रूरत है।

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यह सर्वविदित सत्य है कि हमारे देश में प्राचीन काल से ही सामाजिक समानता की कोई अवधारणा नहीं रही। गरीब अमीर सभी समाजों में रहे हैं। राजा प्रजा भी रही, शिक्षित-अशिक्षित भी रहे। छोटे बड़े व्यवसाय भी होते हैं। लेकिन जिस तरह की असमानता, घोर आत्मघाती अमानुषिक विभाजन हमारे समाज में रहा है, वह दुनिया के किसी अन्य समाज में नहीं रहा। सभी वर्ग अपनी अपनी जाति में आगे पीछे, ऊँचे नीचे, शक्त-अशक्त हो कर ही दैनिक जीवन के क्रूर नियमों और सत्ता के भय के घेरे में जीवन जीते थे। गौरवशाली कहने के लिए उपलब्धियाँ थी भी, तो इन अन्धेरों में उनकी रोशनी का प्रकाश सिर्फ उनके लिए था जिनके हाथों में समाज की मशालें थीं। यह सब कुछ आज हम तरह तरह से सामने लाने और दूर करने में लगे हुए हैं। लेकिन हमारे प्राचीन सामाजिक विभाजन की जड़ें शायद इतनी गहरी हैं कि समानता का विचार मन और आत्मा से अभी स्वीकृत नहीं है। जब राजे रजवाड़े थे, उनकी संख्या आज के राजे रजवाड़ों से बहुत कम थी। परिवारवाद तब भी था, आज भी है। किस मन से, किस आत्मा से ऐसे वीभत्स और डरावने तंत्र को लोकतंत्र कहें। हमारी सारी राजनीतिक प्रक्रिया आज भी उन्हीं अनगिनत जातीय, वर्गीय और यौनीय विभाजक अवरोधों का शिकार है। सहमति आज भी केवल बहिष्कार की है। हर प्रकार के विभाजन का घोर कलुष हमें सही रूप में लोकतांत्रिक होने ही नहीं देता। राजनीति ने इसी मूल विभाजन का खूब लाभ उठाया है, इसे और भी उग्र बनाया है। सारा अभियान खुले तौर पर एक दूसरे का बहिष्कार करने में अपनी शक्ति ढूंढता है। राजनीति में विचारों की भिन्नता मात्र एक ओढ़नी की तरह है जो व्यावहारिक होते ही उतर जाती है।

सैक्यूलरिज्म का अर्थ ही हर तरह की धर्मान्धता को सुरक्षा देने के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गया। आर्थिक असमानता की क्रूरता भी इसके सामने फीकी पड़ी हुई है। पंचायतें, जात बिरादरियाँ किसी संविधान को नहीं मानतीं। कानून खड़ा उनके हठों का तमाशा देखता रहता है। इस तरह के विभाजन दुर्ग में कैद हम लोकतांत्रिक आज़ादी, सर्वशिक्षा, आर्थिक समानता, नागरिक अधिकार, सुरक्षा, लैंगिक समानता, अवसर समानता, सभ्य समाजिकता, सांस्कृतिक विकास आदि के तमाम प्रजातांत्रिक मूल्यों का सपना हर रात नींद में देखते हैं और सुबह उठ कर बिस्तर की तरह इन्हें चादर तकिए समेत समेट कर कोने में रख देते हैं। 70 साल से यही चल रहा है।

इस विभाजन के खिलाफ कोई घोर सत्याग्रही संवाद आज़ादी के बाद हमारे समाज में नहीं हुआ। ऐसा संघर्ष कभी छिड़ा ही नहीं कि लोगों को संग्राम की स्थिति में आना पड़ा हो। हथियारी संग्राम नहीं, सत्याग्रही वैचारिक संग्राम, जो इस प्राचीन शिला दुर्ग को गिरा सके। एक हठी सत्याग्रही वैचारिक मुद्रा की आवश्यकता है। लोकतंत्र को व्यावहारिक स्तर पर सुरक्षित करने के लिए एक लम्बे मानसिक संघर्ष की जरूरत है।  यह सत्याग्रही संघर्ष कौन छेड़ता? कौन हमारी मूल मानसिकता में लोकतांत्रिक समानता की धरती तैयार करता? क्या हमारे हर तरह से वंचित मज़दूर श्रमिक छेड़ते यह संग्राम जो चाहे शहर में हो या गांवों में। उन्होंने अपने शरीर को भूख से बचाने के लिए बहुत संग्राम छेड़े हैं। उन संग्रामों में वे हारे भी हैं, जीते भी हैं। आज भी उन्हीं का कन्धा है जो हमें ढो रहा है।

क्या व्यापारी वर्ग यह संग्राम छेड़ता? उन्होंने भी भरपूर संग्राम छेड़ा है और उन की छत्रछाया में एक बड़ी विश्वमण्डी हम बन भी गए हैं। व्यापारी वर्ग और राजनीति वालों का एजेण्डा इस तरह के सांस्कृतिक अभियान का कभी रहा ही नहीं। वे यथास्थिति को अपने पक्ष में ही जुटाने में लगे रहते हैं। तीन धाराएं हैं जीवन की जो कहीं दूर जाकर भी मिलती दिखाई नहीं देती। पैसे वालों की स्वर्ण धार, मिडिल क्लास की सफेद धार और गरीब लोगों की नीली पीली काली धार। बीच की धार, भारत की मिडिल क्लास, जिसका डंका सिर्फ भारत में ही नहीं, दुनिया भर की मंडियों में सुना जा सकता है, अपने उच्छृंखल उफान में आई हुई है। वह बाकी सम्पन्न देशों की मिडिल क्लास जैसी टिकाऊ समझ वाली नहीं है। भारत की मिडिल क्लास अपने तमाम संतुलन खोकर हर तरह के जोड़ तोड़ अपना कर पैसा कमाकर दिखावटी तरीकों से खर्च करने की आत्म तुष्टि में लगी हुई है। धर्म परायण भी सबसे अधिक यही क्लास है।

इन सबसे बिल्कुल अलग प्रशासन और अधिकारी वर्ग लोगों से सदा ही दूर रहे हैं। असली बात हमारे बुद्धिजीवियों पर आती है। हर तरह के विचार वहीं से आते हैं। व्यावहारिक स्तर पर उन विचारों का प्रचार, प्रसार, और लोक संपर्क वहीं से आना चाहिए। इसके साथ गैर लोकतांत्रिक सामाजिक-राजनीतिक संरचना के विपक्ष में एक जन संघर्ष का आह्‌वान भी और अगुवाई भी वहीं से आनी चाहिए थी – जो नहीं आई। कुछ खास स्थितियों में छुट पुट समय में वह जोत दिखाई दी थी। लेकिन अधिकतर मूर्त-अमूर्त अवसरवादिता और लोक साहस की कमी  हमारे बौद्धिक समुदाय को संघर्षगामी नहीं बनने देती।

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दूसरी सबसे बड़ी कमज़ोरी हमारी उपनिवेशिक मानसिकता है। अपने आचार-विचार-व्यवहार-भाषा-चिन्तन वगैरह में हम मौलिक नहीं हो पाए हैं। अपनी ही समस्याओं से अनजान बने रहने का कारण, अपनी भाषाओं को व्यावहारिक स्तर पर न अपनाने का कारण, हर समय बाहर के मीडिया से आकर्षित हुए रहने का कारण कोई वैश्विक मानसिकता नहीं है, बल्कि गहरा आत्महीनता बोध है। भाषा का प्रश्न सीधा लोकतांत्रिक दृष्टि से जोड़ कर देखा जाना चाहिए, जिस तरह धार्मिक उन्माद को हम राजनीति से जुड़ा हुआ स्पष्ट देखते हैं। हम अपने अधिकतर लोगों को, चाहे वे किसी भी क्षेत्र से हों, एक साहसिक आत्मविश्वास के साथ बात करते हुए नहीं देखते। इसी का सीधा असर हमारे लोक सम्बन्धों और अन्ततः लोक विमर्श पर पड़ता है। हर स्तर के लोगों के साथ खुला विचार विनिमय हो ही नहीं पाता। जनसंवाद सिरे से हमारे समाज में गायब है। वही अच्छे लोकतंत्र का आधार बनता है। केवल एक ही स्तर के लोगों का विचार विमर्श काफी नहीं है। अलग अलग क्षेत्रों के खुले मंच हमारी परम्परा का हिस्सा रहे भी हैं जो केवल अपनी भाषाओं में ही सम्भव है। हमारी क्षेत्रीय भाषाओं की संवाहन शक्ति अपार है। लेकिन विदेशी भाषा का अधकचरा अति उपयोग एक वर्गीय और स्तरीय अलगाव के बनावटीपन को जिन्दा रखता है, हमें अलग ईकाईयों में बांटे रखता है। सारे देश की संपर्क भाषा का नमूना हमारी फिल्मों ने सामने रखा है जिसे हम किसी तर्क से नकार नहीं सकते। सब लोग जिस क्षेत्र में रहते हैं, वहां की भाषा तो स्वयं सीख ही जाते हैं। अंग्रेजी भाषा सबको आएगी ही वैश्विक ज़रूरत है। लेकिन लोक संपर्क और जनसंवाद के वैचारिक आदान प्रदान की भाषा जब तक अपनी ही भाषाएं नहीं होंगी, लोकतांत्रिक समाज की रूपरेखा उभर कर सामने नहीं आ सकती। क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हिन्दी की सांझी परम्परा का विकास और प्रयोग एक साहसिक और आत्मविश्वासी लोकतांत्रिक दृष्टि के विकास के लिए बहुत जरूरी है।

शुरू से ही आज़ाद देशों की शिक्षा की भाषा उनकी अपनी भाषाएं ही रही हैं। यूरोप इस बात का सबसे स्पष्ट उदाहरण है। यूरोप के सब देशों की भाषाएं अलग-अलग हैं। वे देश लम्बे समय से राजनीतिक रूप से आज़ाद रहे। भाषा की शक्ति और मौलिकता के सम्बन्ध को वे अच्छी तरह समझते हैं। यूरोप वैसे भी अपने मूल्यों से चिपक कर जीने वाली कौमों का घर है। इसलिए वे सांस्कृतिक कट्टरता के शिकार भी हैं। उसी का परिणाम यह भी है कि वे अपनी भाषाओं के आगे अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा को सन्देशवाहक से ज्यादा हैसियत नहीं देते।

गांधी जी ने भाषा के इस पहलू को बड़े स्पष्ट रूप में सामने रखा था। ‘हिन्द स्वराज’ में भी, उसके बाद भी, अनेक बार उन्होंने यही भाषाई मुद्‌दा उठाया। ‘हिन्दस्वराज’ में वे कहते हैं … हमें अपनी सभी भाषाओं को उज्जवल, शानदार बनाना चाहिए। …… उत्तरी और पश्चिमी हिन्दुस्तान के लोगों को तमिल सीखनी चाहिए। सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट होनी चाहिए….. उस वक्त की राजनीति में इसे बहुत ध्यान से किसी ने देखा नहीं क्योंकि मूल संघर्ष आज़ादी पाने के लिए था। आज देश वैसे भी गांधी से इतनी अधिक मानसिक दूरी पर खड़ा है कि गर्दन घुमा कर देखने से कुछ नज़र नहीं आता। कैसे विडंबना है, हमारी अपनी भाषाओं ने हमें नहीं बांटा है। अंग्रेज़ी भाषा के  सांस्कृतिक अलगाव ने हमारी वैचारिक सघनता को कम किया है और व्यापक लोक संवाद की परम्परा को बेहद क्षति पहुंचाई है। हमारे लोकतन्त्र के जन चिंतन  को कुंठित किया है।

उपनिवेशिक मानसिकता बहुत गहरे हमारी सारी पद्धति में मौजूद है। प्रशासनिक प्रबन्धन अंग्रेज़ों ने सिर्फ भय और रौब रुतबा बनाए रखने के लिए स्थापित किया था। वही भय और रौब रुतबा हमारी सभी सरकारों ने जानबूझ कर बनाए रखा है, तोड़ा नहीं। आखिर ये लोग भी सिर्फ शासन ही करना चाहते हैं। भ्रष्टाचार साथ जुड़ जाने से रौब रुतबे में सम्पन्नता की चमक भी आई है। अंग्रेज़ दूर से ही अलग पहचाने जाते थे। इन्हें भी दूर से अलग पहचाने जाने लायक कुछ चाहिए था जो लोगों से इन्हें अलग थलग रख सके। इस पद्धति में आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता थी। अफसर सभी देशों में होते हैं। अफसरशाही नहीं होती। वे अपनी गोपनीयता और अदृश्यता में दुनिया के सभी ब्यूरोक्रेटस को लज्जित कर सकते हैं। इन प्रशासकों ने सारे देश को अपनी शक्ति से गूंगा बहरा बना रखा है। अपनी जिम्मेवारी के अहसास से मुक्त दूर दराज की चीज बनकर वे अपने अज्ञातवास से शासन-प्रशासन का प्रसारण करते हैं जो अंग्रेज़ों की याद ही ताज़ा करता है।

हमारी दूसरी संस्थाएं उसी मानसिकता को और गहरे में स्थापित करने में लगी हुई हैं। शिक्षा पद्धति एक ऐसे वर्गीय विभाजन की नींव खोद रही है जो आगे चलकर हमारी सारी लोकतांत्रिक मान्यताओं को निरर्थक बना देगी। प्राईमरी शिक्षा से ही यह सामाजिक विभाजन शुरू हो जाता है। स्कूल या तो रजवाड़े हैं या फिर कचरा बाड़े। सभी इस असमानता को अपनी हैसियत से जोड़ कर देख रहे हैं और बच्चों की सोच को शुरू से ही प्रदूषित कर रहे हैं। समान अवसर का तर्क आज किसी को समझ में नहीं आ रहा। कम्पीटीशन का तर्क समान अवसर के बाद ही समझ आता है। बराबर अवसरों के बाद अपनी सामर्थ्य की ऊंच नीच पता चलती है। असमान धरातल पर खड़े होकर समानता की बात एक कुतर्क है जिसे हमारी शासन प्रणाली देखना नहीं चाहती। किसी भी लोकतांत्रिक मूल्य को कोई भी राजनीतिक दल मन से नहीं मानता। आचरण से नहीं मानता।

भारत प्राईमरी शिक्षा पर व्यय करने की दर में दुनिया में सबसे नीचे आता है। प्राईवेट शिक्षा भारत का सबसे बड़ा व्यवसाय बना हुआ है। सामाजिक विभाजन आज जातीय के साथ साथ शैक्षिय भी हो गया है। लोकतांत्रिक समानता की अवधारणा इन दोनों असमानताओं की शिकार है। सन्‌ 2020 में भारत सरकार ने प्राईमरी शिक्षा के बजट में 3 प्रतिशत कटौती की। प्राइवेट स्कूल्स ऑफ इंडिया सेक्टर की रिपोर्ट में सन्‌ 2020 में इस व्यवसाय में 175,000 करोड़ रुपये लगने की सम्भावना है। सन्‌ 2000-2001 में यह राशि मात्र 26,883 करोड़ थी। इन प्राईवेट संस्थानों में उन्हीं मिडिल, ऍपर मिडिल क्लास और धनिकों के बच्चे पढ़ते हैं। इन वर्गों में शिक्षा की अवधारणा केवल एक कम्पीटिशन से अधिक कुछ नहीं। लोकतांत्रिक समानता की दृष्टि किसी भी स्तर पर ऐसी शिक्षा का उद्देश्य नहीं होता। प्राईमरी शिक्षा हमारे लोकतन्त्र के भावी स्वरूप की आधारशिला है। बच्चों को शुरु से ही उँचाई नीचाई के अन्धेरे में धकेल कर हम किस उज्जवल लोकतन्त्र की बात सोच सकते हैं?

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हमारी आर्थिक नीतियाँ दुनिया के शहरी देशों की नकल हैं। मार्केट एकॉनमी (Market Economy) एक शहरी व्यवस्था है। यू.एस.ए. 81 प्रतिशत शहरी है, जापान 95 प्रतिशत, रूस 73 प्रतिशत और मैक्सिको 75 प्रतिशत। यूरोप के सारे देशों की जनसंख्या का 70 प्रतिशत से अधिक शहरी है। इन सब देशों में मुख्य उत्पादन उद्योगों से है। भारत की बात इससे बिल्कुल उल्टी है। 74 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र के लोगों का उत्पादन कुल 17.4 प्रतिशत। 4,5 उद्योगों का और सर्विस सेक्टर का उत्पादन शहरों में केंद्रित है जो 71 प्रतिशत है। सारा ध्यान ही शहरों पर है। 1970 के दशक के बाद होने वाली हरित क्राँति की उपलब्धियाँ 1990 के दशक के बाद कम होनी शुरू हो गईं। 

यह ठीक है कि विकास के लिए विकसित देशों के मॉडल की तरफ ही देखना पड़ता है। लेकिन अपनी ज़रूरतों के सन्दर्भों के अनुसार ही ऐसा होना चाहिए। हमारे देश में ग्रामीण उत्पादन से सम्बन्धित सारे छोटे उद्योग धन्धे गांवों में केन्द्रित किए जा सकते थे। इसी बहाने वहाँ दूसरी सुविधाएं भी पहुँचती। हमारे कुल मजदूरों का केवल 6 प्रतिशत बडे़ उद्योगों में काम करता है। 94 प्रतिशत श्रमिक अनोर्गनाइज़्ड सेक्टर में काम करते हैं। इसी अनोर्गनाइज़्ड सेक्टर का बड़ा भाग गांव छोड़कर शहर में इधर-उधर श्रम करता है। इन्हें ही अपने गांवों में केन्द्रित उत्पादन में लगाया जा सकता था। लघु उद्योग अपने साथ सांस्कृतिक और शैक्षिक वातावरण भी गांव में लाते। आज गांव की पंचायतें इन्हीं दो मानवीय संसाधनों के अभाव में अपनी संवैधानिक शक्ति को या तो पहचानती नहीं या उनको अनदेखा करती हैं, अतिक्रमण भी करती हैं। पूरा राजनीतिक दृष्य आज हमारे गांवों में दूषित हो गया है। दूसरे मानवीय सांस्कृतिक संसाधनों का केन्द्र भी आज सिर्फ शहर ही हैं, गांव सांस्कृतिक मरुभूमियां हैं।

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आधुनिक युग में लोकतन्त्र का उथला पुथला स्वरूप स्थापित हुए कोई बहुत समय नहीं हुआ। दूसरे विश्व युद्ध से पहले कहीं भी विश्वस्त ढंग से मानवीय अधिकारों से लैस लोकतंत्र था ही नहीं। यूरोप को डिक्टेटरों ने हथियाया हुआ था। अमरीका में भीषण संघर्ष चल रहा था नागरिक अधिकारों को लेकर। हर प्रकार के प्रतिबन्ध थे विशाल नागरिक ईकाईयों के लिए जिनमें अश्वेत और मूल अमरीकी प्रमुख थे। स्त्रियां अपने आप को हर स्तर पर दोयम दर्जे का नागरिक मानने को विवश थीं, आर्थिक और प्रशासनिक दृष्टि से। चीन की क्रांति हुई नहीं थी। रूस साम्यवादी कम, साम्राज्यवादी अधिक हो रहा था। एशिया और अफ्रीका अभी उपनिवेश ही थे। मध्यपूर्व और कुछ देशों में धार्मिक अधिनायकवाद था। लेटिन अमेरिका महाद्वीप अपने गृहयुद्धों से त्रस्त था। इसलिए लोकतंत्र की शासन प्रणाली अभी परिपक्व नहीं हुई है। कहा जाए तो विश्व अभी लोकतन्त्र की प्रयोगशाला ही बना हुआ है, कार्यशाला अभी नहीं बना।

फिर भी जो आदर्श और सपने, उत्साह, दृष्टि की ताज़गी जो इस नयी मानवीय स्वशासन पद्धति के साथ जुड़ कर अपनी परिपक्वता के रास्ते पर आगे बढ़ती हुई नज़र आनी चाहिए थी, वह नज़र नहीं आती। किसी नए रास्ते पर निकल पड़ने का जोश और इरादे बड़ी जल्द एक बदहवासी का शिकार बनते चलते गये। साहस और लोकदृष्टि जो स्वशासन के आधार होते हैं, कभी अपनी फार्म में आए ही नहीं। एक निश्चित अवधि के बाद वोट डाल सकने के अधिकार को स्वशासन या लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। शासन के लोकाधार  का व्यावहारिक रूप अभी अस्पष्ट और ढुलमुल है।

लोक विश्वास, लोक साहस और लोक दृष्टि वास्तव में हर समय शासन की कूटनीति और कुप्रबन्ध का शिकार हुए रहते हैं। कैसे लोकमत को विभाजित रखा जा सकता है, कैसे किसी भी मुद्दे के प्रति सचेतना को एक खतरा मानकर उससे निपटा जा सकता है, कैसे अपने प्रशासनिक शक्ति केन्द्रों को महिमामंडित करके उन्हें शक्ति स्रोत के रूप में एक लोकभय का साधन बनाकर रखा जाता है, यही प्रजातांत्रिक हथकंडे विश्व का हर देश आज इस्तेमाल कर रहा है। जितना अशिक्षित, गरीब और अस्वस्थ समाज होगा, उतना ही लोकतांत्रिक प्रशासन का भय सर्वव्यापी होगा। हमारे समाज में भी सरकारी संस्था एक भय-पीठ बनकर लोगों को अपने से दूर रखने में महारत रखती है। चुने हुए प्रतिनिधि दिखने में भी लोगों जैसे दिखना बन्द हो जाते हैं। वे अलग ही, सत्त्ता स्वरूप हो जाते हैं। हमारे चुने हुए प्रतिनिधि कभी हमारे हुए ही नहीं। उन्होंने हमें कुछ दिया ही नहीं, केवल हमसे लिया ही है। इतना अधिक लिया है कि अब और कुछ देने को हमारे पास बचा ही नहीं। हमने अपनी आवेश में भरपूर उन्हें दिया। उन्होंने भरपूर हमारी बदहवासियों का शोषण किया।

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ऐसा कोई देश आज नहीं है जहाँ वास्तव में लोकतन्त्र का सही स्वरूप लागू हो चुका हो। अमेरिका, चीन, रूस, भारत, बाकी सारे एशियाई देश, सारे अफ्रीकी देश, मध्यपूर्व, दक्षिणी अमेरीकी देश, आस्ट्रेलिया अथवा छोटे छोटे टापू देश जिनकी कोई भी भोगौलिक स्थिति संदिग्ध रही है, सभी जगह सिर्फ़ हाइब्रिड डेमोक्रेसियां हैं।

इन यथास्थितियों के पीछे इन देशों का आम आदमी बहुत छोटा और सीमित है। धोखा यह नहीं है, केवल शक्ति का प्रयोग है। पहले शक्ति के प्रयोग से प्रतिनिधि बनते हैं, फिर शक्ति के प्रयोग से शासन करते हैं। ऐसा लोकतन्त्र कहीं नहीं जहाँ प्रथम भी और अंतिम भी लोकमत हो।

किसी न किसी रूप में डेमॉक्रेटिक सेंटरलिज़म (Democratic Centralism) ही सभी प्रजातान्त्रिक देशों में प्रचलित है। एक रूलिंग पार्टी के अधिनायक आपस में विचार विमर्श के बाद अपनी पार्टी को निर्देश जारी कर देते हैं। अक्सर किसी भी देश में कोई भी पार्टी 50 प्रतिशत से अधिक बहुमत से चुनकर आने में सफल नहीं रहती। इसलिए उसे सही लोकमत नहीं कहा जा सकता। डेलिबरेटिव डेमॉक्रेसी ( Deliberative Democracy) का स्वरूप अभी विकसित नहीं हुआ है जहाँ अपनी पार्टी से बाहर का मत भी विचार-विनिमय का हिस्सा बने और वह विचार विनिमय मंच केवल संसद भवनों तक ही सीमित न रहे। एक विषय पर  लोकमंचों के विचार किसी तरह से विचार कोष का हिस्सा बने और उन पर पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठकर विचार हो, ऐसा किसी भी देश में राजनीतिक वातावरण अभी नहीं है। हर पार्टी में भी एक या अधिक महिमा-मंडित डिक्टेटर हैं और बहुमत में आई (हालांकि वह बहुमत नहीं होता) पार्टी के उन्हीं प्रमुखों  का ही एकल राज्य होता है। इस हिसाब से यह पार्टी सिस्टम भी सही लोकमत की कार्यशाला नहीं है। पार्टी सिस्टम में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।  व्यक्ति अधिनायकवाद किसी न किसी स्वरूप में हर देश में, हर पार्टी में लोकमत को मात्र एक व्यक्ति से छोटा बना देता है। लोकमत का अधिपति एक व्यक्ति बनकर बैठ जाता है।

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आर्थिक सम्पन्नता किसी देश या समाज के जनतांत्रिक होने की कसौटी नहीं हो सकती। हमारा पड़ोसी देश चीन हमसे अधिक सम्पन्न है लेकिन जनतन्त्र वह आज भी नहीं है। चीन में प्रचलित डॉमिनेंट पार्टी सिस्टम में केवल वहां कम्युनिस्ट पार्टी की छत्र छाया में आठ अलग अलग पार्टियां थोड़ी बहुत साम्यवादी विचार विविधता के साथ चुनाव लड़ती हैं और कभी कभी कोलिशन ( Coalition) भी बनाती हैं। वहां आज साम्यवाद के नाम पर पूंजीवादी आर्थिक नीतियों का ही बोलबाला है और सामाजिक इकाईयों के कठोर अलगाव के परिणाम स्वरूप शहरों और गांवों के जीवन स्तर का अंतर भारत से भी अधिक है। चीन में नागरिक अधिकारों को कई तरह से सीमित किया जाता है। उनके शहरों से गांवों और गांवों से शहरों में बस जाने की स्वेच्छा तक इसलिए सीमित है कि वे गांवों को खेतीहर किसानों तक ही सीमित रख कर पार्टी आधिपत्य कायम रख सके। रेसिडेंशियल कार्ड सिस्टम  इसी उद्देश्य से लागू किया हुआ है। हालांकि वहां शिक्षा की दर गांवों में भारत से कहीं अधिक है। फिर भी वहां गांवों में किसानों की दशा भारत से ज्यादा खराब है। शहरों और गांवों में आय का अनुपात भारत में 2:1 का है, चीन में 3: 1 है।

अमेरिका जो दुनिया में सबसे अधिक सम्पन्न देश है, वह लोकतांत्रिक मानदण्डों में अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर खरा नहीं उतरता। साम्राज्यवादी प्रवृतियों के अतिरिक्त वहां का समाज कई अर्थों में  प्रिमिटिव है जहाँ धन और धर्म समाज की संवाहक शक्तियाँ हैं। आम आदमी अपनी पूरी निर्भयता में भी विवश है।

मार्केट डेमॉक्रेसी का सबसे बड़ा मॉडल आज अमेरिका ही है। वह दूसरे देशों के व्यापार को ही नहीं, वहां की सरकारों को भी इसी माध्यम से प्रभावित करता है। लोकमत से हट कर कारपोरेट मत ही अन्ततः आर्थिक नीतियां ही नहीं, सांस्कृतिक नीतियां भी निर्मित करता है। इस बात को गौर से देखने की ज़रूरत है कि जहां जहां अमेरिकी प्रभाव बढ़ा, वहां आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता ही अधिक आई है।  

यह तथ्य केवल दक्षिणी और सेन्ट्रल अमरीका के संदर्भ में ही नहीं बाकी अमरीकी प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में भी स्पष्ट दिखाई देता है। अधिकतर यूरोपीय देशों का माडल अमरीकी मॉडल नहीं है। वे सभी मिश्रित आर्थिक नीतियों वाले देश हैं। फ्रांस, जर्मनी इत्यादि अपने आप को सोशियलिस्ट डेमॉक्रसीस ही कहते हैं। इंगलैण्ड में भी लेबर पार्टी का मिश्रित एजेण्डा रहता है। वहां उत्पादन की उपयोगिता उपभोक्ता तय करता है। इसके विपरीत मार्केट डेमॉक्रसीस में उत्पादक ही उपभोक्ता की ज़रूरतों का निर्णायक बन बैठता है। हमारे लोकतन्त्र में मिश्रित समाजवादी आर्थिक नीति ही कामयाब हो सकती है।

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सन 2020 में 167 देशों के प्रजातन्त्रों का विश्लेषण यूनाईटेड नेशनज़ की एक एजेन्सी ने किया था। पांच प्रमुख तत्वों को अपनी जांच का आधार बनाया गया चुनाव प्रक्रिया (Electoral Process), नागरिक स्वतन्त्रता (Civil Liberties), सरकार का कार्यकारी स्वरूप (Functioning of government), राजनैतिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी (Political Participation), समाज की राजनीतिक संस्कृति (Political Culture) इन आधारों को देखते हुए लोकतान्त्रिक राज्यों को चार श्रेणियों में बांटा गया – पूर्ण लोकतन्त्र (Full Democracy), अपूर्ण लोकतन्त्र (Flawed Democracy), मिश्रित लोकतन्त्र (.Hybrid Democracy), अधिकारिक लोकतन्त्र(Authoritarian Regimes)

भारत के साथ साथ अमेरिका को भी लोकतन्त्र घोषित किया गया। केवल स्वीडन, डेनमार्क –  देशों को पूर्ण लोकतन्त्र माना गया। इस विश्लेषण के खुलासे में जाने का यह स्थान नहीं है लेकिन हम अपने देश के तत्वों के आधार पर इन व्यवहारों का कुछ जायज़ा ले सकते हैं।

नागरिक स्वतन्त्रता हमारे संविधान में भरपूर है। लेकिन व्यावहारिक रूप में नागरिकों के किसी अधिकार की रक्षा नहीं की जाती। आम नागरिक और शक्तिशाली नागरिकों के जीवन का अंतर यही है। सरकार का व्यावहारिक स्वरूप सब से अधिक दोषी है। भ्रष्टाचार वहीं से शुरू होता है। शक्ति का सारा दुरुपयोग वहीं से शुरू होता है। संवैधानिक सत्त्ता केन्द्र वहीं से उपजते हैं। जिनके लिए नीतियां बनती हैं, वही लोग वंचित रह जाते हैं।

हमारी आज़ादी को अभी जब एक दशक भी पूरा नहीं हुआ था, 1954 में रेणु ने ‘मैला आंचल’ में जो स्थिति बयान की, आज भी वही है। कोई उंगली रख कर बताए कि क्या फर्क आया है?

”कचहरी में ज़िले भर के किसान पेट बांध कर पड़े हुए हैं…… अपील करनी है। अपीलो? खोलो पैसा, देखो तमाशा।…….कानून और कचहरी कंपौड में पलने वाले कीट पतंगे भी पैसा मांगते हैं। ज़िला कांग्रेस आफिस में जुलुम हो रहा है। जिला कांग्रेस के सभापति का चुनाव होने वाला है। चार उम्मीदवार हैं, दो असल और दो कमअसल। राजपूत भूमिहार में मुकाबिला है। जिले भर के सेठों और जमींदारों की मोटरगाड़ियां दौड़ रही हैं…….. बावनदास सोचता है, अब लोगों को चाहिए कि अपनी अपनी टोपी पर लिखवा लें भूमिहार, राजपूत, कायस्थ, हरिजन! …… कौन कार्यकर्ता किस पार्टी का है, समझ में नहीं आता।” 

आज भी राजनैतिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी  भीतरी कोष्ठकों तक नहीं पहुंचती। सभाओं, जलसों जुलूसों तक ही आम आदमी सीमित रह जाता है। प्रतिनिधि मनोनीत करने में कुछ व्यक्ति ही अंतिम शक्ति रखते हैं। लोकतन्त्र की नाकामयाबी यहीं से शुरू होती है। प्रतिनिधि का चुनाव किसी प्रक्रिया द्वारा वहां की जनता को ही निश्चित करना चाहिए। हर पार्टी का जनाधार होता है। वही जनाधार निश्चित करे कि कौन पार्टी की तरफ से चुनाव लड़े। हम यहां . . पार्टी की या .. पार्टी सदस्यता की बात नहीं कर रहे। लोग खुले तौर पर बगैर सदस्य बने भी कांग्रेसी, समाजवादी, बी.जे.पी. वादी इत्यादि होते ही हैं। आम लोगों की राजनीतिक प्रक्रिया में व्यावहारिक स्तर पर सत्त्ता बढ़नी चाहिए। राजनीतिक विमर्श से पहले लोक विमर्श होना चाहिए। तभी विधायकों और प्रशासकों पर लोक अंकुश हो सकता है जो लोकतन्त्र की सफलता की पहली शर्त है।

हमारे समाज में राजनीतिक संस्कृति का कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के निजी जीवन में हर विषय पर अपने विचार होते हैं और वह उन्हें अपने आस पास प्रकट भी करता रहता है लेकिन लोक बुद्धि के इस गहन स्त्रोत को हमारे समाज में कोई उपयोगी दिशा नहीं मिल पाती। सारे विचार केवल हवा में उछल कर रह जाते हैं। वे किसी कोष में नहीं जाते। संचन और संवाहन का कोई मंच हम विकसित नहीं कर पाए हैं। हमारे लोक मानस का समुचित चिंतन कहीं पहुंचता ही नहीं। सामाजिक राजनीतिक संस्कृति का विकास लोकतंत्र में बहुत ज़रूरी है।

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राजनीतिक संस्कृति का स्पष्ट आईना बनती है हमारी विधान सभाएं और संसद। लोगों को आज इनमें विश्वास नहीं है और सांसदों को लोगों में विश्वास नहीं है। एक पैतृक पेशा बन गया है संसद या विधानसभाओं में जाना। कानून बनाना कोई गम्भीर प्रक्रिया नहीं रही। केवल क्षेत्रीय मुद्‌दे, एक संकीर्ण दृष्टि के तहत लड़ई झगड़े का अखाड़ा बने रहते हैं। आज़ादी के बाद हमारी संसद में ऐसे व्यक्तियों की भरमार थी जो संसार में किसी भी संसद सभा का गौरव बन सकते थे। सत्त्ता में आए हुए दल और विरोधी दल दोनों एक दूसरे का सिक्का मानते थे और आदर भी करते थे। उच्च स्तर के तर्क वितर्क और हास्य विनोद भी होते थे जो संसद को जीवन्त बनाए रखते थे।

किसी भी लोकतन्त्र में विरोधी दलों की उपस्थिति सत्तारूढ़ दल की अपेक्षा लोकमानस के अधिक निकट होनी चाहिए। उन्हें सदन से बाहर का विस्तृत आईना बनना चाहिए। अक्सर ही सत्तारूढ़ दल अपनी लोकछवि को सुदृढ़ बनाने के लिए कानून बनाते रहते हैं। विरोधी दल अपनी प्रतिक्रिया में अधिक नकारात्मक रवैया अपना कर सत्तारूढ़ दल की नीतियों को पक्का ही करते हैं। पुलिस को हरकत में लाना विरोधी दलों की नीति का हिस्सा बना रहता है। इसे सत्ता का जुल्म कह कर पेश करने में ही वे अपनी सफलता समझते हैं। शहर बन्ध इत्यादि नकारात्मक तरीके हैं। हमारी आज़ादी के संघर्ष में इन सब का प्रयोग किसी और उद्देश्य से होता था। आज यह मात्र एक हथकण्डा है।

हमारे सांसदों, विधायकों का ज्ञान, देश-विदेश की आर्थिक नीतियों, तकनीकी प्रविधियों, सूचना-तन्त्रों और विशेष क्षेत्रों में नए विकास के बारे होता ही नहीं। किसी भी विचार को समाज पर थोपने से पहले समस्या का अध्ययन होना ज़रूरी रहा ही नहीं। इस स्थिति में विरोध की अवधारणा को एक स्पष्ट रचनात्मक दिशा देनी होगी। विरोध का भी विरोध करने की एक सामाजिक दूरदर्शिता विकसित करनी होगी। विरोध की व्याख्या और स्वरूप अकादमिक स्तर पर और अन्य सामाजिक सांस्कृतिक मंचों पर बहस का विषय होना चाहिए। विरोध के उपद्रवी स्वरूप को दूरदर्शी चिन्तन से संयमित होना चाहिए, वरना मात्र एक साधन के रूप में प्रयोग किया गया अस्त्र विरोध के तर्क को खंडित करता है। केवल घटनाओं से लाभ उठाने वाले दल हमारे अपरिपक्व युवाओं का भारी नुकसान करते हैं।

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आज पार्टियों की संख्या ने हमारे लोकतन्त्र को एक मज़ाक बनाया हुआ है। तीन, चार या पांच पार्टियां विचारों की भिन्नता के आधार पर हो सकती हैं। नई राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए अनुयायियों की संख्या कुल संख्या के विशेष अनुपात में होनी चाहिए। उसके लिए विशेष चुनाव प्रणाली का विधान हो सकता है। बहुत देशों में ऐसा विधान है। क्षेत्रीयता अपने आप में एक अनिवार्य सिद्धांत है। लेकिन उसका इलाज एक ही क्षेत्र में अनेकों राजनीतिक दल बनाना नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों का पिछड़ा हुआ रह जाना कोई क्षेत्रीय नीति की कमी का नहीं, केन्द्रीय नीतियों का परिणाम ही अधिक होता है। पार्टियों की अधिक संख्या धन और विचारों का दुरुपयोग ही करती हैं, गैर राजनीतिक संगठन, उद्योग संगठन इत्यादि विचारों को सन्तुलित बनाने में और संयत करने में बड़ा योगदान तभी दे सकते हैं जब पार्टियों की संख्या कम हो।

अधिकतर समुन्नत देशों में राजनीतिक दलों की संख्या बहुत कम है। यू.एस.ए. में दो – और . और भी पार्टियां हैं मगर नगण्य। इंग्लैंड में दो मुख्य पार्टियां – और जर्मनी में दो मुख्य . . . और . . ., रूस में हालांकि 17 दल हैं लेकिन मुख्यतः 3 पार्टियां हैं – . ., . .. और . ., फ्रांस में मुख्य तीन पार्टियां और जापान में दो पार्टियां। सभी देशों की पार्टियों के नाम लेना सम्भव नहीं। मतलब यही है कि विभाजन जितना कम हो उतना विचार केन्द्रित लोकतन्त्र हो सकता है। अफ्रीकी देशों में अनगिनत पार्टियां हैं लेकिन दक्षिण अफ्रीका में केवल अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ही 90 के दशक से शक्ति में है। राजनीतिक दलों की संख्या पर अंकुश संवैधानिक ढंग से लगाया जा सकता है। क्षेत्रीय मानस और हितों को कुंठित किए बगैर उनकी जनशक्ति को एक मानक बनाया जा सकता है। इसी प्रकार बहुमत का अर्थ हर संदर्भ में 50 प्रतिशत से अधिक होना चाहिए। इस तरह मैदान में उतरने वाले उम्मीदवारों की संख्या बहुत कम रह जाएगी। विचारों की लोक केन्द्रिता स्वयं एक मान्य आधार बन जायेगा।

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मीडिया को लोगों का मानसिक विधायक और अदालत दोनों बनना पड़ता है। लेकिन हमारे समाज में मीडिया सिर्फ एक .. से आगे बहुत कम जाता है, घटनाओं के सतही स्तर तक ही सीमित रह जाता है। भीतरी कारणों की जांच पड़ताल पर आधारित गम्भीर विमर्श की भूमि तैयार नहीं करता जिससे लोकमत को दृष्टि और शक्ति मिलती है। मीडिया सरकार और राजनीतिक दलों से ऊपर एक जागरूक विचार प्रहरी की तरह लोकमत का संरक्षक होता है। हमारे यहां लोगों को ही हर समय गलियों में उतरना पड़ता है। अखबारों की तरह बिकना पड़ता है, खबरों की तरह छपना पड़ता है। अपना कैमरा खुद बनना पड़ता है। जितने प्रदर्शन, विरोध और लाठी डंडा प्रयोग हर मुद्दे के लिए हमारे देश में होता है, उतना और देशों में बहुत कम है। हमारे लोकतन्त्र की यह शक्ति भी है और दुर्भाग्य भी कि अपनी हर बात के लिए गलियों में उतरना पड़े और मीडिया वालों के लिए सिर्फ सामग्री जुटाने का साधन बनना पड़े। अगर मीडिया उन बातों, लोक स्थितियों, अन्यायों, विचारों इत्यादि को शक्तिशाली ढंग से उठाए, बार बार उठाए तो लोगों को दीवार बन कर सड़कों पर खड़ा न होना पड़े और पुलिस की लाठियों से उन दीवारों को गिरना न पड़े। वैचारिक मंचों और समर्थ पत्रकारों के अभाव में हमारा मीडिया लोगों का सही विधायक अभी तक नहीं बन सका है। हमारे अखबार, रेडियो, टेलीविज़न सबसे बड़ा विचार मंच हो सकते हैं। वे भी अगर केवल एक प्रदर्शन के स्तर तक सीमित रह जायेंगे तो आम लोग निर्णय बुद्धि कहां से लायेंगे। आज भारत के अखबारों की संख्या और बिक्री एक गर्व का विषय है। करोड़ों की संख्या में हमारी अपनी भाषाओं के अखबार छपते हैं। यह बहुत विश्वस्त करने वाली स्थिति है। अब निर्भर करता है कि हमारे पत्रकार केवल खबरें इक्ट्‌ठे करने वालों की भीड़ के अतिरिक्त और किस तरह प्रशिक्षित होते हैं। उनमें पत्रकारिता की ओजस्विता, निर्भयता और विचारशीलता पैदा करना अखबारों के मालिकों और प्रबन्धकों का उत्तरदायित्व है या अन्य प्रशिक्षण केन्द्रों का। अपने सबसे निचले स्तर के पैदल सिपाही पत्रकारों में घटनाओं के विवरण के इलावा एक राजनीतिक सामाजिक कार्यकारण की प्रक्रिया और खोजी प्रवृति का विकास करना उनकी जिम्मेवारी है। सारे परिदृश्य को बदलने की शक्ति आज सबसे अधिक मीडिया में है। निर्भयता हमारे पत्रकारों में आज बहुत है। लेकिन निर्भीकता का केवल रोमांचक रूप ही काफी नहीं है। निर्भीकता को सामाजिक चिन्तन से लैस किए बगैर लोगों को कोई स्पष्ट और निर्लिप्त दृष्टि हम नहीं दे सकते। मीडिया केवल विरोधी मंच नहीं हो सकता। वह हर तरह के लोकजीवन का, रचनात्मक सम्भावनाओं का दर्पण है। पूंजीवादी समाजों में मीडिया समस्याओं को उलझाने में महारत रखता है। वहां मीडिया धनवानों के हाथ आई कुंजी भी है और तलवार भी। हालांकि वहीं सशक्त पत्रकारिता की लम्बी परम्परा है, टी.वी. पर, हर चैनल पर बड़े पंडित बैठे हुए हैं। लेकिन कुल मिलाकर वे लोकहित और लोकक्षति के अन्तर का स्पष्ट रूप सामने आने ही नहीं देते।

हमारे देश में ऐसी प्रवृति नहीं है। उद्देश्य भी बहुत षड़यन्त्रकारी नहीं है। लोकहित ही अधिकतर मन्तव्य रहता है। लेकिन एक विस्फोट की स्थिति है हमारे मीडिया जगत में। अभी यह स्थिति है कि क्या करें, क्या न करें। मात्र प्रदर्शन भी उसी का परिणाम है। कोई स्वस्थ परम्पराएं अभी विकसित नहीं हुई हैं। टेलीविजन खासतौर पर एक भौंडेपन का शिकार है। अखबारों की अपेक्षा हमारा टीवी. कहीं अधिक विकार ग्रस्त है। लेकिन अतिरेगुलेशन भी अनुभव यात्रा को अवरुद्ध करता है। अनुभव यात्रा में स्वयं एक पड़ाव आता है। पीछे मुड़ कर देखने और उसी के आधार पर आगे बढ़ने की दृष्टि भी मिलती है। वही हमारी स्थिति है। वह पड़ाव भी आएगा। अभी हम यात्रा के शुरु के दौर में ही हैं।

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कमज़ोर जातियों, प्रजातियों, दलितों, स्त्रियों इत्यादि को लेकर समाज में एक गुप्त विरोधी मानस तैयार हो रहा है। राजनीतिक अवसरवादियों ने सुविधाएं बांटने के साथ साथ असन्तुलन और असन्तोष भी बांटा है। एक कारण को दूसरे कारणों से जोडे़ बिना, स्थितियों के अन्तर्सम्बन्धों को नज़रअंदाज़ करके कानून बनाना इसी अवसरवादिता का शिकार रहा है। किसी एक वर्ग या जाति की असमानता और पूरे समाज में असमानता को बिल्कुल ही सम्बन्धित करके न देखना एक ऐसे रोष को जन्म दे रहा है जो हमारे संविधान में अविश्वास पैदा करता है। आज स्थिति यह है कि हमें ईमानदारी से जाति और वर्ग, अन्य कमज़ोर तबकों को एक सामाजिक पूर्णता में देखना पड़ेगा। दलित और गरीब दलित में अन्तर आज करना पड़ेगा। पूरे समुदाय को एक ही श्रेणी में रखकर नीतियां बनाना सामाजिक विघटन को तेज़ करता है। अब समय आ गया है जब अवसर की समानता के साथ सामुदायिक स्थिति को वर्गीय स्तर के साथ जोड़ कर देखा जाए। हालांकि पिछड़ी जातियों को आज भी हर प्रकार की प्राथमिकता की आवश्यकता है, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति में अन्तर किया जाना भी आज असंगत नहीं रहा। इस बढ़ते हुए रोष का राजनीतिक लाभ उठाना भी उतना ही अनुचित है जितना सामुदायिक हितों का लाभ उठाना। लोकतांत्रिक दूरदर्शिता इसी में है कि किसी वर्ग को कुछ देते हुए ऐसा न लगे कि अन्याय हो रहा है। अमर्त्य सेन का यह कथन भी इसीलिए आंशिक रूप में ही ठीक है।

“No policy of affirmative action aimed at caste advantage can be adequately effective without taking the class background of the members of the lower castes. The impact of caste, like that of
gender, is substantially swayed by class.”
 (Caste, gender, class & community)

हालांकि जिन के साथ हज़ारों सालों तक यह अन्याय हुआ है, उनकी अनदेखी मात्र इसलिए नहीं की जा सकती कि उनकी स्थिति में कुछ सुधार हो गया है।

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सही लोकतंत्र की अलग अलग अवधारणाएं हो सकती हैं, लेकिन मूल तत्व वहीं रहेंगे। लोक साहस और लोक बुद्धि ही निर्णायक हो, एक नागरिक को अपने देश की संस्थाओं में भरपूर विश्वास हो। ऐसा विश्वास कि मैं अस्पताल जाऊंगा तो मुझे कीड़े मकौड़े की तरह बाहर ही रेंगते नहीं रहना पडे़गा, कि अगर मैं थाने जाऊंगा तो एकदम सुरक्षा की भावना अपने भीतर महसूस करूँगा, कि मैं कोर्ट कचहरियों में धक्के खाते हुए किसी अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए सारी उम्र नहीं गुज़ारुँगा, कि मेरे कुछ मौलिक अधिकार हैं जिनका अतिक्रमण देश की कोई सत्ता नहीं करेगी। देश के शिक्षा संस्थानों में विश्वास कि बच्चों को बिना भेदभाव अच्छी शिक्षा मिलेगी। कमजोर तबकों को यह विश्वास कि सारा सिस्टम उनके साथ है और उन्हें इस दशा में अधिक देर नहीं रहना पड़ेगा। कि धार्मिक विश्वासों का पालन और अवहेलना दोनों का अधिकार मुझे है। कितना ही गरीब समाज हो, भूख से हत्या या आत्महत्या नहीं होगी। संचित साधनों में किसी सम्मत नियमों के अनुसार हमारा अधिकार होगा कम या ज्यादा। प्रशासक मेरी अनुपस्थिति को अनदेखा नहीं कर सकेंगे। मेरे प्रतिनिधि पार्टी प्रमुखों द्वारा मुझ पर थोपे नहीं जायेंगे।

पूर्ण लोकतन्त्र अभी हमारा एक स्वप्न है। इसे ठोस धरातल पर स्थापित करने के पहले हमें जातीय, साम्प्रदायिक विभाजन के खिलाफ घोर युद्ध छेड़ना होगा। अपने गांवों को हर तरह से सुदृढ़ करना होगा। प्रशासन को लोक हितैषी बनाना होगा। राजनीतिक भ्रष्टाचार का साहस से सामना करना होगा। क्षेत्रीय विभाजन से ऊपर उठकर एक राष्ट्र की सांस्कृतिक नींव रखनी होगी। जातीय उग्रता को पराश्रय नहीं देना चाहिए। कानून की सख्ती उनके लिए ज़रूरी है। आन्तरिक धार्मिक उग्रता को केवल सच्ची उदारता से ही कम किया जा सकता है, दूसरा कोई रास्ता नहीं। कुछ देशों की धींगामस्ती के खिलाफ राजनीतिक सांठगांठ और सैनिक शक्ति दोनों ही ज़रूरी हैं। लोगों का आत्मबल नहीं गिरना चाहिए। कानून बनाना और लागू करना दो अलग हरकतें नहीं होनी चाहिए।

एक ही रास्ता है। उसी पर पक्के पांव चलते जाना है। कुछ लोगों की ज़िम्मेवारी दूसरों से ज्यादा है जो इन सब बातों को साफ साफ देखते समझते हैं। वही लोग संख्या में ज्यादा न होते हुए भी यह संघर्ष छेड़ेंगे और जारी रखेंगे। हर क्षेत्र से मुट्ठी भर लोग ऐसे निकल ही आयेंगे। खासतौर पर बुद्धिजीवियों को कलम और कमर दोनों कस लेनी होंगी। लोकतन्त्र के अलावा हम कुछ और हो नहीं सकते। लोकतन्त्र ही हमारा भविष्य है। हमें खूब सजने संवरने के लिए यही आईना चाहिए।

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