जिस्म कब अचेत हो गया
मैं कहां जानता
अर्धरात्रि के किसी एक पल
क्रोंच, क्रोंच, क्रोंच
इतनी भयानक चीखें
हिंस्र होकर मंडरा रही थी।
यह पर्वत स्थली, वनस्थली शांत!
जैसे इस रक्तपात के वैभव को
अपनी अखंडता में भोग रही हो।
मैं चौक पर भय से
काली शिला पर उठ बैठा
कुछ ही ऊपर दो जोड़ी विशाल पंख
एक दूसरे पर झपटते, चक्कर काटते
मृत्यु का सामना करते
जीवन के मोह में,
एक दूसरे को समाप्त करने की
वासना से उत्पन्न भीषण चीत्कार
आक्रमण – प्रति आक्रमण!
सिर्फ छाया भर देख पाया
अपने सिर पर मंडराते इस पक्षी युद्ध की।
एक शिला पर जैसे सदियों से बैठा मैं
इसी का एक उभरा हुआ
भाग सा हो गया था।
कुछ ही क्षण,
मायावी मृत्यु से पलायन का संघर्ष
एक अंतिम उग्र आकाश व्यापी चीत्कार
और फड़फड़ाहट के साथ
मांसल, रक्त पिंड
वह प्रकृति पुत्र-एक पाखी
मेरी देह को अपने जीवन की तरह
अस्तित्व हीनता से भिगो गया।
एक सिहरता, दम तोड़ता, यह आकाश पुत्र
मेरी बाईं ओर
मेरी त्वचा को छूता हुआ
ढेर हो गया!
भयानक सन्नाटा!
एकदम इतना गहरा
इस रक्तपात के बाद!
मुंदी हुई आंखों को खोलने के लिए
इतना संघर्ष करना पड़ा
जैसे पलकें नहीं, सुरमई शिलायें हो
किसी गुफा द्वार को बंद करती हुई।
कितनी ही देर आकाश पर
पथराई पुतलियां टिकी रही
रात का कौन सा पहर था
नक्षत्र सिर्फ रक्त के छिटके हुए धब्बे थे
राक्षसी वक्ष पर।
बहुत देर बाद आंखें
दाई और घूम गई –
अंतहीन देवदार, पंक्ति बद्ध
सारे हिंस्र दैत्य
सारे युवा और वृद्ध दैत्य
पंक्ति बद्ध खड़े थे
उस गहरी खाई की ओर पीठ फ़ेर कर
जहां कितने ही अस्थि-पिंजर
फेंक दिए हैं उन्होंने
जीवन का रक्त मांस चूसकर।
धीरे-धीरे एक-एक विशाल-शिला पर
दृष्टि घूम गई।
कितनी भयानक दंत श्रेणी
उस अहंकारी उन्मत्त
पर्वत दैत्य की।
मैं निर्वसन –
अपने प्रति निर्मम हो उठा –
जीवन की अंतिम सार्थकता को
स्वीकार करने के लिए
रमणीयता के वक्ष से उभरती हुई
सात्विक हिंसा का अर्थ
आत्मसात करने में एक
चमकीला क्षण भर ही लगा।
एक उष्णता से स्फूर्त होकर
भीग गया मेरा मायावी अस्तित्व।
भीतर की सारी बर्फ
पिघल कर रिसने लगी
रोम-रोम से
मेरा सारा अनुभव, सारा ज्ञान,
बूंद-बूंद कर बह निकला
आसपास शिलाओं पर
शून्य हो गया था मैं
और रिक्त
उसी रिक्तता में उनींदा होकर चलता गया
उन्हीं संकरे रास्तों पर वापिस
जहां अपनी सभ्यता के प्रतीक
अपने वस्त्र छोड़ आया था।
भीगे हुए वस्त्र
अपने गर्म वक्ष से सटाकर
स्तब्ध बैठा रहा देर तक।