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यात्रा-1

निस्पंद और आहत होने के लिए
एक विशेष दिन चुना था क्या उसने
या बस यूं ही दमकते सूरज से गरमाए आकाश की तरफ देखते हुए
घर से निकलना
और सांझ ढले वापस न आना

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सम्पादकीय कविता के क्षितिज- –  कृष्ण किशोर

कविता का सत्य कभी-कभी सत्य न होकर भी सत्य होने का आभास रचता है।  जैसे क्षितिज सत्य होने का आभास देता है ,लेकिन सत्य है नहीं। हम स्वीकार करके उसे आत्मसात करते हैं ।यह केवल कविता का प्रसाधन मात्र नहीं है। ऐसे कितने ही क्षितिज- सत्यों का सहारा लेना पड़ता है ,कविता को अपनी बात कहने के लिए । लेकिन इन सब अनुभवों के पीछे अगर कोई ठोस मानवीय संदर्भ नहीं है तो मात्र प्रसाधन को हम स्वीकार नहीं करते । जीवन का सत्य अगर कंटीले झाड़ -खंखाड़ के जंगल जैसा होता है, तो कविता का रूप भी उसी तरह कटीले झाड़ खंखाड़  के बन की तरह हो जाता है। हमारी हिंदी कविता में एक ऐसा समय रहा है जब किसी विशेष विचार मानसिकता के तहत  झाड़ खंखाड़ वनों की  सिर्फ कागजी पेंटिंग की गई। वहां सिर्फ रंग थे ,लहू की एक बूंद भी नहीं थी। इसीलिए उस तरह का विचार आलाप ज्यादा देर टिका नहीं।

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नई तरह का बाबू कल्चर- कृष्ण किशोर

....हमारे देश और समाज की असली शक्ति उत्पादन केन्द्रों में है - चाहे वे कारखाने हों या खेत या स्कूल। उन्हीं के बल पर हम आज बहुत कुछ निर्यात करने की स्थिति में पहुंचे हैं। दूसरे देशों की फाईलों का रोकड़ा तैयार करने की मुनीमगिरी से कुछ परिवारों में थोड़ा धन ज़रूर आ रहा है, लेकिन एक बड़ी कीमत पर। काम संस्कृति एक विकास-संस्कृति होनी चाहिए, हास-संस्कृति नहीं। संकीर्ण और दृष्टि विहीन सम्पन्नता मानसिक विपन्नता की ओर ले जाती है।...

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Periodical- धर्मोन्माद – कृष्ण किशोर

दुनिया के सब से बड़े धर्म ईसाइयत का शुरुआती इतिहास ऐसा रहा है जैसे किसी क्रूरता के खिलाफ जन-आंदोलन का इतिहास होता है। गरीब या निचले तबके के लोगों ने ऊपर वाले तबकों से लड़ कर ईसाइयत का आधार रखा। पिछले गरीब देहाती किसानों ने बड़े ताल्लुकदारों, जमींदारों से मुक्ति का स्वप्न ईसाई एकता में देखा। लेकिन सत्ता आते ही, राजाओं का धर्म बनते ही, पादरियों की फौज के हत्थे चढ़ते ही, महाराजाओं के महाराजा पोप ऑफ़ रोम का स्वर्ण सिहांसन बनते ही - युद्घ, जीत-हार और नरसंहार का इतिहास शुरू हो गया जो अब तक जारी है।

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Periodical – 5/2023 Krishan Kishore

....जितना अशिक्षित, गरीब और अस्वस्थ समाज होगा, उतना ही लोकतांत्रिक प्रशासन का भय सर्वव्यापी होगा। हमारे समाज में भी सरकारी संस्था एक भय-पीठ बनकर लोगों को अपने से दूर रखने में महारत रखती है। चुने हुए प्रतिनिधि दिखने में भी लोगों जैसे दिखना बन्द हो जाते हैं। वे अलग ही, सत्त्ता स्वरूप हो जाते हैं।..

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Periodical Krishan Kishore

...इतिहास किसी भी समय का शारीरिक चित्रण हमारे सामने रख सकता है, उस समय के जीवन का समग्र सत्य नहीं बन सकता। समग्र सत्य तक पहुंचने के लिए इतिहास और साहित्य के संगम स्थल तक पहुंचना जरूरी है ।वही समय का तीर्थ स्थान है।.

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Periodical- Krishan Kishore

...खुले आसमान के नीचे खड़े होकर हवा पानी की तरह  अपनी दिशा में बह निकलना उतना कठिन भी नहीं। बस  हमारी स्मृति खो गई है । उसे है जोर से पुकारना है। वापिस बुलाना है। हम भूल गए हैं कि हम सब प्रकृति के तत्वों से ही बने हैं।..

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लोक मानस और कविता

किसी भी चीज के लिए, एक तरह की नियति समय खुद निश्चित करता है। समय का अर्थ घंटे ,दिन, माह, साल नहीं। समय का अर्थ है, बदलती हुई परिस्थितियां, नए मापदंड, नए मूल्य। लेकिन फिर भी, हम बार-बार मुड़कर अतीत की तरफ तो देखते ही हैं।

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