नदी घर

बहिष्कृत

इन्हें पता है जीवन कितनी जल्दी फैलने वाला रोग है  हवा का एक झोंका ही बहुत है एक जोड़ा पक्षियों की फड़फड़ाहट या पत्थरों पर उछलती हुई पानी की धार बस काफ़ी है इन्हें पता है – सूरज की एक किरण भी घातक हो सकती है

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अन्यथा

आज तुम्हारी सब की
साझी और अलग-अलग चुनौती है
कि तुम सब जो हो,
वास्तव में वही होना चाहते हो कि नहीं।
आज की सांझ
कल के जिस सूर्य को जन्म देगी
वह कंदराओं के भीतर टिमटिमाने वाला
मद्धिम मद्धिम दीपक जैसा नहीं होगा
जिसकी रोशनी में
सब कुछ मायावी और सुंदर लगता है

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नदीघर

आज भी कोई महाभारत
या तीसरा विश्व युद्ध नहीं होगा
मध्य युगीन अश्वारोहियों की दुर्दांत वासनाएं
कोई आतंक पताका फहराते हुई
तुम्हारे शारीरिक या आत्मिक दमन की
दुंदुभि बजाती हुई
तुम्हें घुटने टेक कर
जीवन की भीख मांगने के लिए
विवश नहीं करेंगी।
और न ही प्रताड़ित करेंगी
तुम्हें नन्हा सा साहस बटोर कर
अ पनी-अपनी कंदराओं से
बाहर आ जाने के लिए।

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प्रयास

प्रकृति के सानिध्य से,
धवल उज्ज्वल विस्तार से
सूर्य के प्रकाश से, हवाओं की गति से
जितनी ऊर्जा, साहस, निश्चय बटोर सकता था
अपने श्वास की गति में
सब कुछ समेटकर
बार-बार इन गुफाओं में प्रवेश करता हूं।
कंदराधिकारी सरकंडों से बने पुतलों की तरह
अपने स्थानों से जैसे बंधे खड़े रहे।
कुछ चरमरा कर
अपने आसपास ही बिखर गए -
कभी किसी का हाथ नहीं उठा।
हवा और सूर्य का प्रकाश
जो मेरे साथ भीतर चला आया था
इन्हें विचलित करने के लिए काफी था,
उठ खड़ा होने के लिए काफी था –
कुछ लड़खड़ाते पांवों के लिए।

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अप्रयास

आकाशोन्मुख होकर खड़ा हूं
पहले कितनी बार
आज के सूर्य से सूर्य देखा – याद नहीं।
शिखर पर यह तरल ज्वाल वृत्त
मेरी छाया से मुझे मुक्त करता हुआ वृत्त
मुझे हठात ही आकांक्षा मुक्त कर देता है।
या फिर उकेरता है
मेरे भीतर की प्रकाश हीनता को।
कंदराद्वार पर कोई शिला नहीं
पर मेरी धमनियों में उद्घोष नहीं होता
अग्रसर होने का।
मेरा एकांत – सूर्य तप्त एकांत
मेरी वहीं ऐश्वर्य बोध जनित वासना
शिथिल कर देती है मुझे
और वहीं दो शिलायों से निर्मित
छाया कक्ष में बैठ जाता हूं पीठ टिका कर।

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रक्ष असमान

किसी भी अंधेरी गली में
किसी भी गुफा द्वार में प्रवेश कर जाता हूं। 
भीतर की अंधेरी सीलन
मुझे अच्छी लगती है। 
वहां घुटने टेक कर बैठी हुई
अधमरी ज़िदंगी,
आंखें मूंदकर, सिर झुकाए
हाथ वक्ष से चिपकाए प्रार्थना रत जिंदगी
मुझे क्रोधित नहीं करती
क्योंकि मैं जानता हूं
ये मजबूर लोग जो कुछ मांग रहे हैं
बस वही इन्हें नहीं मिलना है
क्योंकि ये सिर्फ मांग रहे हैं
इंसान से या अपने भगवान से। 
दूसरों के सशक्त हाथों से
अपनी गर्दनें छुड़वाने के
संघर्ष में लगे अशक्त लोग
मुझे द्रवित नहीं करते – क्योंकि मैं
जानता हूं इस सहज संबंध को
जो केवल एक स्थिति है
जो कभी क्रांति नहीं ला सकती। 
एक शव से सटा हुआ दूसरा शव!
देखता हूं इस
संस्था-बद्ध नियम-बद्ध शव स्थिति को
जिसे मैं कोई महत्व नहीं देता
क्योंकि संस्था
सरकंडों के राक्षस के सिवाय कुछ नहीं

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असंदिग्ध

एक लंबी निद्रा के बाद
दिनों -दिन की सारी थकान
अपने संबंध संस्कार
अपनी त्वचा से छिटक कर
अर्ध रात्रि सब कुछ झटक कर
खुले आसमान के नीचे आ खड़ा होता हूं।
सबसे चमकदार सितारे की तरफ़
आंख उठाकर,
सोचने की अवस्था से बहुत परे -
एक आकाशी वस्तु की तरह
सितारों के बीच एक सितारा
बनकर जम जाता हूं।
अपनी खुली छत के फर्श पर
मेरी आंखें ऊपर भी हैं
आकाश पर - फैला हुआ
मायावी संसार देखती हुई
और भीतर भी हैं
अपने ही स्वरूप पर जमी हुई।

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वापसी

प्रकृति के इस विशाल रमणीय कक्ष में
उकड़ूँ बैठा हुआ मैं - हठात ही
स्मृति के एक उन्मत्त झकोरे से
इस विस्तार की ढलान पर फिसलने लगता हूँ।
एक निष्ठुर कगार पर आ टिकता हूँ
स्थिर हो जाता है सब कुछ
एक कसाव और जकड़न के साथ
स्मृति वास्तविक हो उठती है
इस हिम प्रदेश मेंयह निशब्दता
उकेर गई उनींदी स्मृतियां।
स्मृतियां जैसे अधखुली आंखें हों
अपने भीतर झांकती हुई
एक एक पोर सहलाती हुई,
अपने बिखरे अस्तित्व धागों को खोलकर
खुली धूप में फैलाती हुई, समेटती हुई
आज और अतीत को जोड़ती हुई।

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प्रकृति जन्य

मुक्त हो कर अकर्मण्य खड़ा हूँ।
एक पर्वत शिखा पर-
जहाँ कोई पगडंडी
किसी आकांक्षा की ओर नहीं ले जाती।
मेरे पाँवों के नीचे है
धुनी हुई चाँदी सी बर्फ़
और चारों तरफ़
हल्के नीले फूल के तरह खिला हुआ आकाश।
बाँहों में बाँधने के लिए
अपने वक्ष के सिवाय कुछ नहीं।
जीवन की सांझ जैसी हल्की
हवा की परतें
किसी देवदार का
एक पत्ता भी नहीं हिलाती
मन की तरह शांत
सिर पर बर्फ लादे खड़े हैं
उदेश्यहीन, विशाल पेड़ और पत्थर।

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सात्विक हिंसा

जिस्म कब अचेत हो गया
मैं कहां जानता
अर्धरात्रि के किसी एक पल
क्रोंच, क्रोंच, क्रोंच
इतनी भयानक चीखें
हिंस्र होकर मंडरा रही थी।
यह पर्वत स्थली,
वनस्थली शांत!
जैसे इस रक्तपात के वैभव को
अपनी अखंडता में भोग रही हो।
मैं चौक पर भय से
काली शिला पर उठ बैठा
कुछ ही ऊपर दो जोड़ी विशाल पंख
एक दूसरे पर झपटते, चक्कर काटते
मृत्यु का सामना करते
जीवन के मोह में,
एक दूसरे को समाप्त करने की
वासना से उत्पन्न भीषण चीत्कार
आक्रमण – प्रति आक्रमण!

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